देश में जारी राजनीतिक वर्चस्व के लिये सूचना तंत्र के इस्तेमाल की जंग में सोशल मीडिया व परंपरागत मीडिया के एक हिस्से को भी इस्तेमाल करने से नहीं चूका जा रहा है, जो कालांतर विश्वसनीयता के संकट का वाहक ही बनेगा। हालिया उदाहरण के रूप में, जैसा कि कांग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया है कि राहुल गांधी के वायनाड में दिये गये एक बयान को उदयपुर के हत्यारों से जोड़ने का प्रयास एक चर्चित चैनल के टीवी एंकर ने किया है जिसके चलते कांग्रेस पार्टी की ओर से चैनल के एंकर, भाजपा के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता, एक विधायक आदि के खिलाफ जयपुर में आईटी एक्ट समेत विभिन्न धाराओं में प्राथमिकी दर्ज की गई है। इससे पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का उक्त चैनल के खिलाफ बयान आया था जिसके बाद ही ये प्राथमिकी दर्ज की गई। यहां तक कि क्षुब्ध कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने चैनल के नोएडा स्थित कार्यालय पर प्रदर्शन भी किया गया। दरअसल, 24 जून को राहुल गांधी के केरल में वायनाड स्थित कार्यालय में वामदलों की युवा शाखा ने तोड़फोड़ की थी। राहुल ने एसएफआई कार्यकर्ताओं को बच्चा कहकर माफ करने की बात कही थी। जबकि राहुल के उक्त बयान को उदयपुर की उस घटना से जोड़कर प्रसारित किया गया, जिसमें दो धर्मांध लोगों ने एक दर्जी की गला रेतकर हत्या कर दी थी। निश्चित रूप से हेट क्राइम की घटना से राहुल गांधी के वायनाड के बयान को जोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण ही है। जिसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं और उससे कांग्रेस पार्टी के जनाधार पर प्रतिकूल असर होने की बात पार्टी नेता करते रहे हैं। पार्टी नेताओं का आरोप है कि भाजपा को राजनीतिक लाभ देने और लोगों की भावनाओं को भड़काने के मकसद से टीवी प्रसारण की क्लिप को ट्विटर पर भी साझा किया गया। हालांकि, मीडिया हाउस ने इस बात के लिये माफी मांग ली है लेकिन पार्टी ने केरल में दिये गये बयान को तोड़-मरोड़ कर उदयपुर की घटना से जोड़ने को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
निश्चित रूप से मीडिया और राजनीति के बीच जो हल्की लक्ष्मण रेखा है, उसका उल्लंघन करना पत्रकारिता के मूल्यों का ह्रास ही कहा जायेगा। लंबे समय से देश में मीडिया के एक वर्ग पर देश के शीर्ष नेतृत्व को बढ़त देने के आरोप लगते रहे हैं, हालिया घटनाक्रम भी ऐसे ही आरोपों की ओर इशारा करता है। निस्संदेह, जनता मीडिया से नीर-क्षीर विवेक की उम्मीद करती है जिसका दायित्व तथ्यों की पवित्रता को कायम रखते हुए जिम्मेदारी से सूचना का संप्रेषण करना है। मीडिया विशिष्ट नहीं है उन्हें केवल जनता के सूचना प्रतिनिधि के रूप में काम करने का दायित्व मिला है। विडंबना यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सबसे पहले खबर देने की होड़ में ऐसी खबरों का प्रसारण हो जाता है जो तथ्यात्मक रूप से पुष्ट नहीं होतीं। टीआरपी के लिये गलाकाट स्पर्धा ने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। दूसरी विडंबना यह भी है कि यदि इलेक्ट्राॅनिक मीडियाकर्मी अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन करना भी चाहें तो भी कुछ चैनल मालिकों के निजी हित उनकी स्वतंत्र कार्यशैली में बाधक बन जाते हैं, जिसमें इन चैनल मालिकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं व आर्थिक हित भी जुड़े रहते हैं। यही वजह है चैनलों के संचालन में मुनाफे के समीकरण को देखते हुए चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। इनके संचालन में देश के अरबपति पूंजीपतियों व उनके राजनीतिक आकाओं की पूंजी भी लगी रहती है। सही मायनों में पत्रकारिता के सरोकारों से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। संपादक संस्था के क्षरण से भी यहां स्वछंदता व गैरजिम्मेदार व्यवहार को बढ़ावा ही मिला है। जिसको मीडिया की विश्वसनीयता के नजरिये से सुखद संकेत कदापि नहीं कहा जा सकता। दरअसल, मीडिया की विश्वसनीयता अपरिहार्य शर्त है। मीडिया कभी कारोबार नहीं हो सकता। सामाजिक समरसता और निष्पक्ष व्यवहार इसके लिये अनिवार्य शर्त है। जहां लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन होगा, साख का संकट सामने होगा। इसके लिये एक सशक्त नियामक संस्था की जरूरत अकसर बतायी जाती रहती है। संस्था के बनने तक मीडिया के आत्मानुशासन को प्राथमिक उपचार के रूप में देखा जाना चाहिए।