चिकित्सा विज्ञान की सभी शाखाएं इस बात पर सहमत हैं कि भयभीत व्यक्तियों पर दवाओं का प्रभाव ऊंचे आत्मबल वाले लोगों के मुकाबले कम होता है। जो व्यक्ति जीवन में आशावादी, सकारात्मक और ऊंचे मनोबल वाले होते हैं, वे जल्दी स्वस्थ हो जाते हैं। दरअसल, मनुष्य के इस आचरण में भय की बड़ी भूमिका होती है। पूरी दुनिया में सांप के काटने से जहर से कम व उसके भय से ज्यादा लोग मर जाते हैं। परमहंस योगानन्द लिखते हैं कि भय एक प्रकार की गतिहीनता है जो आपके मस्तिष्कीय रेडियो को प्रभावित करता है। हालांकि, वे मानते हैं कि भय हमारी आदतों के अनुसार ही अच्छा और बुरा भी हो सकता है। स्नेहपूर्ण भय सृजनात्मक भी हो सकता है,जैसे सख्त अभिभावक का भय बच्चे को अच्छे नंबर लाने को प्रेरित करे।
दरअसल,भय हमारे हृदय से उत्पन्न होता है। पीड़ा की चेतना से हमारे मन में चिंताएं पैदा होती हैं। कह सकते हैं कि भय हमारे अतीत के अनुभवों पर आधारित है। जीवन में किसी व्यक्ति के साथ दुर्घटना हुई हो तो उसके अनुभव से भय का अनुभव किया हो। जब हम उसके बारे में सोचते हैं, आशंकित होते हैं तो हमारी इच्छाशक्ति दुर्बल हो जाती है। हमारे स्नायुतंत्र पर इसका असर होता है। हो सकता है उस बात के हमारे मन-मस्तिष्क पर प्रभाव के चलते हम फिर से किसी चोट आदि के शिकार हो जायें। यह अनुभवजनित सत्य है कि जब भय से हमारा हृदय निर्बल हो जाता है तो हमारी जीवन शक्ति भी क्षीण हो जाती है। इसके चलते आशंका बन जाती है कि हम बैठ-बैठे रोगाणुओं को अपने शरीर पर आक्रमण करने का अवसर दे दें। हालांकि, अभी कोराना काल के अनुभव के वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं लेकिन बाद में पता चलेगा कि बहुत से स्वस्थ लोग अच्छी इम्यूनिटी के बावजूद कोरोना के शिकार हो गये। यही वजह कि कई लोग वैक्सीन लगाने और तमाम सुरक्षा उपायों के बावजूद कोरोना के बार-बार शिकार हो गये। यह प्रवृत्ति हम तमाम गरीब मुल्कों में देख सकते हैं जहां उपचार की बेहद कमी थी और उन्हें वैक्सीन की सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी, फिर भी वे कोरोना महामारी से बच गये। दुनिया का सबसे शक्तिशाली, संपन्न और तमाम चिकित्सा सुविधाओं से लैस देश अमेरिका इसका उदाहरण है जहां आंकड़ों के हिसाब से कोरोना से मरने वालों की सबसे अधिक संख्या रही। साथ ही संक्रमितों का आंकड़ा भी सबसे ऊंचा रहा।
परमहंस योगानंद लिखते हैं कि दरअसल, भय हमारे हृदय से उत्पन्न होता है। जैसे कि एक बच्चा जो आग के खतरे के बारे में नहीं जानता वह आग की लौ से खेलना चाहता है। जहरीले सांप को पकड़ना चाहता है। लेकिन जिस व्यक्ति के अवचेतन में आग के खतरे और सांप के जहर का प्रभाव अंकित है वह भयभीत हो जाता है। ऐसे में मन की शक्ति से हम भय से मुक्त हो जाते हैं। यदि हम किसी महामारी, बीमारी व दुर्घटना के भय से बचना चाहते हैं तो अपने मन को मजबूत करना होगा। जब कोई मुसीबत सामने हो तो आप गहरे से धीरे-धीरे तथा लय के साथ कई बार सांस लें और सांस छोड़ें। प्रत्येक सांस लेने के साथ थोड़ा देर रुकना चाहिए। इससे हमारा रक्त का संचरण सामान्य होता है और सही मायनों में हमारा हृदय शांत होता है। फिर हम भय से मुक्त होने लगते हैं। तब हमारी इच्छा शक्ति भी दुर्बल नहीं होगी। हमारे स्नायुतंत्र को इससे मजबूती मिलेगी। फिर हमारी जीवनी शक्ति मजबूत होगी। संभव है तब कोई रोगाणु और विषाणु हमारे शरीर पर हमला करने में विफल होगा। हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र हमारी रक्षा को तत्पर रहेगा।
इसमें दो राय नहीं कि हमें जीवन में आसन्न खतरे से सजग व सतर्क तो रहना चाहिए, लेकिन भयभीत नहीं होना चाहिए। भय हो लेकिन सकारात्मक होना चाहिए ताकि हम किसी खतरे की चपेट में न आ जायें। लेकिन भय हम पर हावी नहीं होना चाहिए। कह सकते हैं कि भय एक सतर्कता का साधन बने जिसका प्रयोग हम विवेकशीलता के साथ कर सकें। कई बार किसी आपदा व रोग का भय हमारे शरीर में रोग को बढ़ा देता है। बीमारी की बात आने पर हम उसके साथ खुद को जोड़कर रोग की परिस्थिति के बारे में सोचने लगते हैं। देश में ऐसे लाखों मामले सामने आये जब दोनों-तीनों वैक्सीन लगवाने, मास्क लगानेे, साफ-सफाई की सतर्कता और सुरक्षित दूरी रखने के बावजूद कोरोना से ग्रसित हो गये। इसमें भय की परिस्थितियां ओढ़ लेने, स्नायुतंत्र कमजोर कर लेने और जीवनी शक्ति में गिरावट से वे रोग की चपेट में आ गये। यह टकसाली सत्य है कि यदि सर्दी-जुकाम होने से हमेशा डरे रहते हैं तो आपका शरीर रोग के लिये अधिक ग्रहणशील होगा। अब चाहे इससे बचने के लिये तमाम उपाय करते रहें। जरूरत इस बात की है कि आप भय से अपने स्नायुतंत्र को कमजोर न करें। अपनी इच्छा शक्ति को दुर्बल न बनायें। वास्तव में जब आपकी जीवनी शक्ति मजबूत होने के बावजूद किसी रोग व दुर्घटना की आशंका से चिंता बनी रहती है तो आप उसी अनुभव को उत्पन्न करने में सहायता करते हैं,जिससे कि आप भयभीत व आतंकित रहते है। ऐसे में उन लोगों से मेल-मिलाप करने से बचना चाहिए जो सदा दूसरों व अपनी दुर्बलता व रोगों का रोना रोते रहते हैं। वे आपके मन में भय के बीज बो देते हैं। सुखद वातावरण व सकारात्मक विचारों से हम स्वस्थ रह सकते हैं।