युद्ध बेशक सेनाएं लड़ती हैं लेकिन उसके दुष्प्रभाव झेलते हैं उस टकराव में शामिल देशों के आम नागरिक, लंबे समय तक। अनगिनत मौतें, असंख्य घायल, बेघर-शरणार्थी परिवार, ठप रोजगार, ध्वस्त इमारतें, बर्बाद इनफ्रास्ट्रक्चर, हथियारों के रासायनिक कचरे का प्रदूषण व इन सब के चलते पर्यावरण का नाश– यही दृश्य होता है युद्ध के बाद का। इस विभिषिका के साथ ही बड़ी आबादी पर स्वास्थ्य संकट, बीमारी, महामारी के कहर का खतरा बना रहता है। यूक्रेन भी इन दिनों ऐसी ही दारुण गाथा की हकीकत बन रहा है।
मुकुल व्यास
युद्ध भले ही किसी कारण से हो,उसके दीर्घकालीन प्रभाव पड़ते हैं। युद्ध ख़त्म होने के बाद भी स्थानीय नागरिकों को लंबे समय तक उसके कष्टदायक परिणाम झेलने पड़ते हैं। जब शहरों पर बमबारी और गोलाबारी होती है,उसका सीधा असर नागरिक आबादियों पर पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, इन हमलों में हताहत होने वालों में 90 प्रतिशत से ज्यादा सामान्य नागरिक ही होते हैं। अभी हाल के वर्षों में देख चुके हैं कि गोला बारूद ने अफगानिस्तान,इराक और सीरिया में गहन आबादी वाले क्षेत्रों में कितनी तबाही मचाई है। अब हम रोज यूक्रेन से आ रही भयानक तस्वीरों को देख रहे हैं। इन तस्वीरों से साफ है कि वहां जनजीवन किस कदर अस्त-व्यस्त हो चुका है। वहां कितने लोग हताहत हुए हैं, इसका अनुमान लगाना अभी बहुत कठिन है। लाखों लोग बेघर हो चुके हैं और लाखों दूसरे देशों में शरण लेने के लिए बाध्य हुए हैं। निरंतर रॉकेट हमलों और गोलाबारी से देश के इनफ़्रास्ट्रक्चर को जबरदस्त नुकसान हुआ है जिसे बहाल करने में कई वर्ष लग जाएंगे। लोगों के सामने भीषण खाद्य संकट है। उनके पास बिजली नहीं है,पानी नहीं है। शहरी क्षेत्रों में युद्ध से जानमाल की क्षति के अलावा पर्यावरण पर भी असर पड़ता है। आधुनिक हथियारों से पर्यावरण का ज्यादा विनाश होता है। युद्ध में सामान्य हथियारों के अलावा रासायनिक और परमाणु हथियारों के प्रयोग से पर्यावरण और कुदरती इकोसिस्टम पर खतरा बढ़ता है। युद्ध के पर्यावरणीय प्रभाव के कुछ ख़ास उदाहरणों में प्रथम विश्व युद्ध,द्वितीय विश्व युद्ध,रवांडा का गृह युद्ध,कोसोवो युद्ध और खाड़ी युद्ध शामिल हैं। इन युद्धों में न सिर्फ़ लाखों लोगों की जानें गईं बल्कि बड़ी संख्या में जानवर भी मारे गए और वानस्पतिक प्रजातियों को भारी नुकसान हुआ। युद्ध प्रभावित खेतों में लंबे समय तक खेती नहीं हो पाई। विनाशकारी युद्ध के सामाजिक,आर्थिक और मानसिक प्रभाव लंबे समय तक रहते हैं, यह बात जग जाहिर है।आम लोगों की खुशहाली में पर्यावरण की भी एक अहम भूमिका होती है। संयुक्त राष्ट्र ने समय-समय पर युद्ध और सशस्त्र संघर्षों की स्थिति में पर्यावरण के दोहन को रोकने और आबादी वाले क्षेत्रों में विस्फोटक हथियारों का प्रयोग कम करने की अपील की है। युद्ध में पर्यावरण को क्षति से होने वाले जल और वायु प्रदूषण से न सिर्फ जन स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता है बल्कि इससे उन लोगों की रोजी-रोटी पर भी दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है जो पर्यावरणीय संसाधनों पर आश्रित हैं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस और अंतरराष्ट्रीय रेडक्रॉस के अध्यक्ष पीटर मॉरेर ने साल 2019 ने शहरों और आबादी वाले अन्य केंद्रों में विस्फोटक हथियारों के प्रयोग के बारे में एक संयुक्त अपील जारी करके युद्ध से विनाश और नागरिक आबादियों की पीड़ा पर विराम लगाने की अपील की थी। ‘एक्शन फॉर आर्म्ड वायलेंस’ संस्था ने 2020 में विश्व भर में विस्फोटक हथियारों के प्रयोग से 18747 लोगों के मरने और जख्मी होने के मामले दर्ज किए थे। कुल मिला कर 123 देश ऐसे थे जहां विस्फोटक हथियारों से कम से कम एक व्यक्ति हताहत हुआ था। आबादी वाले क्षेत्रों में 91 प्रतिशत मरने या जख्मी होने वाले नागरिक थे। कम आबादी वाले क्षेत्रों में यह प्रतिशत 25 था।मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों में बड़े पैमाने पर उत्पन्न होने वाले मलबे और कचरे के अलावा कारखानों से निकलने वाले खतरनाक पदार्थ शामिल हैं। इन हानिकारक पदार्थों में एस्बेस्टस,औद्योगिक रसायन और ईंधन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा कारखानों को होने वाली क्षति से लीक होने वाले रसायनों से जमीन और जल प्रदूषण हो सकता है,जल आपूर्ति बाधित हो सकती है तथा अपशिष्ट जल का सैनिटेशन और सॉलिड वेस्ट इनफ़्रास्ट्रक्चर ठप हो सकता है। युद्ध में पेयजल आपूर्ति और अपशिष्ट जल प्रणालियों पर गोलाबारी प्रदूषण का खतरा बढाती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूर्वी यूक्रेन में 750000 लाख बच्चों को डायरिया जैसी बामरियों का खतरा है जो प्रदूषित जल से होती हैं। विस्फोटक हथियारों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाले मलबे का परिवहन और निपटान भी एक बड़ी समस्या है। मसलन, इराक के मोसुल में शुरू के दिनों में शहर से बाहर मलबा ले जाने का खर्च दस करोड़ डॉलर आया था। मलबे के निपटान में समय लगता है। सड़कों पर फैले मलबे को साफ करने में सामान्य तौर पर 6 से 12 महीने लगते हैं। लेकिन इसमें कुल मलबे का सिर्फ 15-20 प्रतिशत ही होता है। युद्ध में क्षतिग्रस्त होने वाले ढांचों और मकानों को गिराने के दौरान और मलबा निकलता है। इस काम में कई साल लग जाते हैं। इनके अलावा मलबे में मौजूद विस्फोटक अवशेषों का निपटान भी एक बड़ी समस्या है। दूसरे विश्व युद्ध में प्रयुक्त बम और रॉकेट आज भी यूरोप के खेतों में मिलते रहते हैं। वियतनाम और कंबोडिया में अब भी बारूदी सुरंगों का संकट बरक़रार है। वियतनाम में आज भी तीस लाख से अधिक बारूदी सुरंगें और विस्फोटक जमीन में धंसे हुए हैं। साल 1975 से अब तक वहां युद्ध के अवशेषों से 40000 से अधिक वियतनामी नागरिकों की मृत्यु हो चुकी है। कंबोडिया के ग्रामीण क्षेत्रों में बारूदी सुरंगों की उपस्थिति एक बड़ी समस्या है। वहां करीब 40000 लोग ऐसे हैं जिन्हें बारूदी सुरंगों के कारण अपना हाथ या पैर कटवाना पड़ा है। दुनिया में हर 22 मिनट में एक व्यक्ति बारूदी सुरंग से मर जाता है या अपाहिज हो जाता है। कंबोडियाई माइन एक्शन सेंटर ने अनुमान लगाया है कि देश में 40 लाख से 60 लाख के बीच बारूदी सुरंगें और दूसरे विस्फोटक पदार्थ मौजूद हैं। वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा प्रयुक्त किए गए रसायन पचास साल से पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। युद्ध के दौरान अमेरिका ने देश के जंगलों और कृषि भूमि पर 8 करोड़ लीटर से अधिक पौधनाशकों का इस्तेमाल किया था। इनमें एजेंट ऑरेंज नामक रसायन भी शामिल था।
एजेंट ऑरेंज ने उन घने जंगलों को साफ कर दिया जहां विएत कोंग लड़ाके छिप कर अपनी कार्रवाइयां करते थे। इस रसायन के प्रयोग से देश की बहुत सी फसल भी बर्बाद हो गई थी। यह पौधनाशक रसायन डायोक्सिन से प्रदूषित था। डायोक्सिन की वजह से अनेक वियतनामी लोगों और अमेरिकी सैनिकों को नुकसान पहुंचा।युद्ध के विस्फोटक अवशेषों को ठिकाने लगाने का काम बेहद पेचीदा है। इसमें व्यक्तिगत सुरक्षा को सुनिश्चित करने के अतिरिक्त तकनीकी सर्वे करने पड़ते हैं और उचित निपटान तथा रिसाइक्लिंग के विकल्प खोजने पड़ते हैं। इसमें काफी समय लगता है। विस्फोटकों के निपटान में खदान सामग्री की मांग बढ़ने से प्राकृतिक संसाधन ज्यादा खर्च होते है और पर्यावरणीय प्रणाली का क्षय होता है। विस्फोटकों के अवशेषों की मौजूदगी के कारण विस्थापित लोग भी अपने घरों में नहीं लौट पाते। औद्योगिक परिसरों को क्षति होने से जहरीले रसायन निकलते हैं जिससे हवा,पानी और मिट्टी का प्रदूषण होता है। एक्शन ऑन आर्म्ड वायलेंस की हाल की रिपोर्ट के अनुसार, यूक्रेन के डोनबास में 36 खदानें जलमग्न हो चुकी हैं। उनसे निकलने वाली मीथेन गैस और दूसरे विषाक्त पदार्थों ने स्थानीय भूजल को प्रदूषित कर दिया होगा। यूक्रेन युद्ध की आंच वहां चेर्नोबिल सहित दूसरे रिएक्टरों तक पहुंच गई। गनीमत है कि वहां विकिरण का खतरा पैदा नहीं हुआ लेकिन इससे यह बात भी रेखांकित होती है कि युद्ध की चपेट में आ कर परमाणु रिएक्टरों से कोई बड़ा हादसा हो सकता है। युद्ध के दौरान अक्सर तेल प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया जाता है जिसका स्थानीय जनता और पर्यावास पर सीधा असर पड़ता है। इराक के पर्यावरण मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट पर्यावरण कार्यक्रम के साथ मिलकर वर्ष 2019 में एक सर्वे किया था जिसमें 74 तेल प्रदूषित क्षेत्रों की पहचान की गई थी। आईएसआई संघर्ष के दौरान इराक के कयारा नगर पर कई महीने तक धुएं और कालिख के बादल छाए रहे।
महामारी के खतरे झेलते शरणार्थी
यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद वहां बहुत बड़ा मानवीय संकट पैदा हो गया है। करीब 25 लाख लोग देश से भाग कर पड़ोसी देशों में शरण ले चुके हैं और लाखों लोग देश में ही विस्थापित हैं। लोगों के बड़े पैमाने पर विस्थापन के बीच कोविड और अन्य संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा पैदा हो गया है। इस क्षेत्र में कोविड के मामलों में कुछ कमी जरूर आई है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन को चिंता है कि यूक्रेन में टीकाकरण की दर कम होने से कोविड गंभीर रूप ले सकता है और इससे मरने वालों की संख्या भी बढ़ सकती है। यूक्रेन में टीकाकरण की दर करीब 34 प्रतिशत है जबकि पड़ोसी मोल्दाविया में सिर्फ 29 प्रतिशत लोगों को वैक्सीन लगी है। यूक्रेन में टीकाकरण की कम दर का अर्थ यह है कि दूसरे देशों में शरण मांग रहे यूक्रेनियाई लोगों में भी टीकाकरण की दर बहुत कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों का कहना है कि यूक्रेन और आसपास के देशों में 3 से 9 मार्च के बीच कोविड के 791021 नए केस और 8012 नई मौतें हुई हैं। उन्होंने कहा,दुर्भाग्य से वायरस अपना विस्तार जारी रखने के मौके तलाशेगा।
उन्होंने यूक्रेन में कोविड के मामले बढ़ने की आशंका के पीछे कई कारण गिनाए हैं। एक तो वहां टेस्टिंग कम हो रही है और दूसरा यह है कि वहां टीकाकरण का काम रुका हुआ है। युद्ध ने लोगों और अधिकारियों का ध्यान बांट रखा है। हंगरी,स्लोवाकिया और रोमानिया यूक्रेन से आने वाले शरणार्थियों की टेस्टिंग कर रहे हैं और उन्हें कोविड के टीके लगा रहे हैं। इस बीच, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि यूक्रेन में अस्पतालों,एम्बुलेंसों और जन स्वास्थ्य केंद्रों पर हमलों में हाल में तेजी आई है और वहां आवश्यक दवाओं की कमी हो गई है। संगठन ने यूनिसेफ,संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के साथ एक संयुक्त बयान में यूक्रेन की स्वास्थ्य व्यवस्था पर हमले तुरंत रोकने की अपील की है। पिछले रविवार तक यूक्रेन में स्वास्थ्य केंद्रों पर 31 हमलों की पुष्टि हो चुकी थी। यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है।