शारा
गलतफहमियों से उपजी गलतफहमियां, उसके बाद खुलासा। लंबी जद्दोजहद के बाद अंत भला तो सब भला। ऐसा ही कथानक है फिल्म ‘कालापानी’ का। वर्ष 1958 में रिलीज इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में जीवन के हर रंग हैं। बेहतरीन गीत-संगीत, निर्देशन और उम्दा अभिनय ने फिल्म ‘कालापानी’ को सुपरहिट बना दिया।
राज खोसला ने निर्देशन गुरुदत्त से सीखा था, इसीलिए उनकी फिल्में एक ही केंद्र बिंदु के इर्दर्गिद घूमती हैं। जैसे निर्देशक विशाल कैनवास के मध्य में एक बिंदु लगाकर विषय-वस्तु की तरफ इंगित कर देता है, फिर उसी बिंदु को आधार बनाकर पूरे कैनवास को अपने स्ट्रोक से भर देता है। ये स्ट्रोक बिंदु का ही हिस्सा लगते हैं। स्ट्रोक लगाते वक्त निर्देशक विषयान्तर नहीं होता। यही गुरुदत्त स्कूल ऑफ डायरेक्शन है। जीवन का कोई एक पहलू उठाकर उसे फिल्म का रूप देना टेढ़ी खीर है। यहां राज खोसला अपने गुरु से आगे बढ़ गए हैं। गुरुदत्त इमोशन का फिल्मांकन करते-करते इमोशनल हो जाते थे। उनका यह इमोशनलिज्म ही उन्हें छोटी-सी उम्र में ले डूबा। यह इमोशनलिज्म राज खोसला के निर्देशन में नहीं है। ‘काला पानी’ को निर्देशित करते वक्त वह ताजा-ताजा गुरुदत के करीब आये थे तो उनका इमोशनलिज्म भी साथ लाये। यह इमोशनलिज्म काला पानी में दिखा। उसके बाद उन्होंने तौबा कर ली। उसके बाद की फिल्मों में वह दिल और दिमाग को साथ रखते थे। मूलत: यह फिल्म बांग्ला फिल्म ‘सबार उपारे’ को आधार बनाकर बनायी है और ‘सबार उपारे’ लेखक एजे क्रोनिन के उपन्यास ‘बियोंड दिस प्लेस’ को आधार बनाकर बनायी गयी है। इसे नवकेतन फिल्म्ज ने प्रोड्यूस किया। गुरुदत्त और देवआनंद दोस्त थे और राज खोसला गुरुदत्त के शिष्य। इसका संगीत भी सचिन देव बर्मन ने दिया था। गीत लिखे थे मजरूह सुलतानपुरी ने। यह फिल्म 1958 को रिलीज हुई थी और रिलीज होते ही यह कमर्शियली भी हिट रही और क्रिटिकली भी। मतलब पैसे भी खूब कमाए और समीक्षकों के कारण बाक्स ऑफिस भीड़ से भरने लगे। फलस्वरूप नवकेतन की जेबें भी भरने लगीं। उसी समय यह फिल्म 12 मिलियन बजट लिये हुए थी। कहानी, गीत, संगीत तो था ही, कहीं भी ऐसा नहीं था जो फिल्म को सुपरहिट बनने से रोक सके। मुजरे के गीत की कमी थी, सो निर्देशक ने मुजरा भी करवा दिया ‘नजर लागी राजा तोरे बंगले पर’ गीत गवाकर। इस फिल्म के लिए देवआनंद को छठे फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए सर्वोत्तम अभिनेता का पुरस्कार मिला। नलनी जयवंत को सर्वोत्तम सहायक अभिनेत्री का। यह फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट थी। इसे उस साल की आठवीं कमाऊ फिल्म घोषित किया गया। चलते-चलते नलनी जयवंत के बारे में पाठकों को बता दूं, जिन्होंने अपनी बढ़िया एक्टिंग के कारण पुरस्कार जीते। हालांकि, दर्शकों को लगता था कि ये पुरस्कार मधुबाला ले जाएंगी जिन्होंने फिल्म में यह गाना गाया ‘अच्छा जी मैं हारी।’ नलनी जयवंत वह अभिनेत्री थीं जो अकेली अपने फ्लैट में मरीं। लोगों को उनकी मौत का तब पता चला जब म्युनिसिपल कमेटी की गाड़ी उनके शव को दाह-संस्कार के लिए ले गयी। बताते हैं कि पड़ोसियों को तीन दिन बाद उनकी मौत का पता चला। वह अपने पति की मृत्यु के बाद अकेली ही रहती थीं। उनकी यह दूसरी शादी थी। नलनी जयवंत शोभना समर्थ की फर्स्ट कज़िन थी और फिल्मों में 1941 से लेकर 1983 तक सक्रिय थीं। मुनीम जी, काफिला, संग्राम, समाधि, मिलन आदि फिल्मों में उन्होंने एक्टिंग की। उनकी मृत्यु 2010 में हुई थी। फिल्मों में वह आखिरी बार नास्तिक में दिखीं।
बहरहाल, ‘काला पानी’ की कहानी पर आते हैं। करण मेहरा बने देवआनंद अपनी विधवा मां के साथ शहर में रहते हैं। एक दिन अचानक उन्हें मां से ही पता चलता है कि वह वास्तव में विधवा नहीं क्योंकि उसका पति अभी जिंदा है। उसका नाम शंकर लाल है और वह हैदराबाद की एक जेल में आजीवन कारावास काट रहा है क्योंकि उसने माला नामक वैश्या की हत्या की थी। यही कारण है कि उसने तुमसे यह राज छुपाया। यह सच्चाई जानते ही करण अपने पिता जी को मिलने के लिए आतुर हो उठा। वह हैदराबाद पहुंचता है और बड़ी मुश्किल से अपने पिता जी को मिल पाता है। उसके पिता शंकर लाल बताते हैं कि वह बेकसूर है और उन्होंने माला का कत्ल नहीं किया। यह जानकर करण केस की छानबीन करना शुरू कर देता है। वह पुराने दिनों/सालों की अखबारों की कतरने निकालता है। 1943 की, जब देश में ब्रिटिश इंडिया राज करती थी। खोजबीन करते-करते यहीं उसकी मुलाकात आशा से होती है जो अखबार में पत्रकार है और एक गेस्ट हाउस भी चलाती है क्योंकि वह एक लैंडलॉर्ड की भतीजी है। वह उसे अपने गेस्ट हाउस में ठहराती है। रोज मिलते-मिलाते करण और आशा का प्यार हो जाता है। एक दिन आशा को पता चलता है कि करण चोरी-छिपे किशोरी नामक वैश्या को मिलता है। तब वह फैसला करती है कि ऐसे बदचलन व्यक्ति से वह राब्ता नहीं रखेगी। तब फिल्म देखकर तो ऐसा ही लगता है कि करण भी अपने बाप के पदचिन्हों पर चल रहा है। लेकिन वह ऐसा करके माला के कत्ल की तह तक जाना चाहता है। वह किशोरी से उस खत को लेना चाहता है, जिसमें शंकर लाल की गुनाही छिपी है और कत्ल करते हाथों की बात कही है। वह ऐसा करने में कामयाब हो जाता है और किशोरी की गवाही पर अपने पिता शंकर लाल को जेल से रिहा करवाने में कामयाब हो जाता है।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : देवआनंद
निर्देशक : राज खोसला
पटकथा : जीआर कामथ, आनंद पॉल
संवाद : भप्पी सोनी
मूलकथा : बियोंड दिस प्लेस
गीत : मजरूह सुलतानपुरी
संगीत : सचिन देव बर्मन
सितारे : देवआनंद, मधुबाला, नलनी जयवंत, मुकरी, आगा, नासिर हुसैन आदि
गीत
हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये : मोहम्मद रफी
अच्छा जी मैं हारी : आशा भोसले, मोहम्मद रफी
दिल वाले अब तेरी गली : रफी, आशा
नजर लागी राजा : आशा भोसले
दिल लगाके किधर गयी : आशा भोसले
जब नाम-ए-मुहब्ब्त लेके : आशा भोसले