शमीम शर्मा
प्रेमचन्द की विश्व प्रसिद्ध कहानी ‘कफन’ के किरदार घीसू और माधव ने कफन खरीदने की लिये उधार मांगे हुए पैसों से दावत उड़ायी क्योंकि उन्हें जवाबदेही और बदनामी का कोई खौफ नहीं था। माधव और घीसू आज और भी निडर हो गये हैं और मान-अपमान उनके लिये कोई मुद्दा ही नहीं है। आज भी वे वहीं खड़े हैं और भरे बाजार कोरोना संक्रमितों के कफन बेचकर जेबें भरने में जुटे हैं। फुर्सत मिलेगी तो उस पैसे से दावत भी उड़ायेंगे।
वह भी समय था जब लोग कफन सिर पर बांधे देश की रक्षा के लिये लड़ने-मरने काे तैयार रहा करते मगर समय ने ऐसी करवट ली है कि कुछ लोग मुर्दों के बदन के कफन ही बाजार में बेचकर पैसा बनाने में जुटे हैं। कुछ तो और भी चार चन्दाबाज निकले। मुर्दों के मोबाइल, अंगूठी, कानों की बालियां और हाथों के कंगन ही ले उड़े। कोरोना से न केवल जान की हानि हो रही है, माल की भी हो रही है। और यह मालदार अस्पतालों में ज्यादा हो रही है।
पूरी दुनिया में वर्ण आश्रम भले ही चार हों पर जातियां दो ही तरह की हैं-एक तो टोटा अर एक साहूकारा। बाकी न तो कोई धर्म है, न जाति, न वर्ण। कोरोना से भी खतरनाक बीमारी है अभाव और गरीबी। खाली पेट को न तो मजहब से कुछ लेना है और न रब से। भूख व्यक्ति को निचोड़ कर रख देती है। टोटा जब कफन की चोरी करवाता है तो बात जंचती है कि अभावों में पेट की आग के सामने सब घुटने टेक देते हंै। पर कोरोना में तो साहूकारों ने भी नीति और धर्म के परचट्टे उड़ा दिये। कुछ अमीरजादे डाॅक्टरों ने अपनी डाॅक्टरी शपथ से लेकर घर-परिवार के संस्कार और धर्म की रीति-नीति को मुट्ठी की धूल के समान उड़ा दिया।
हर आदमी सपना देखता है कि कम से कम वह इस योग्य तो हो जाये कि उसे अपनी बारात में किसी और की कार मांगकर दुल्हन को ना लाना पड़े। पर फुटपाथ की दुनिया में जी रहे लोगों के ख्वाबों में न कार होती है, न दुल्हन। सिर्फ रोटी होती है जो कभी चांद की तरह मनमोहक दिखती है और कभी दुल्हन के चेहरे जैसी प्यारी। सिर पर कफन बांधे वे रोटियों के लिये रैली में भी जा सकते हैं, धार्मिक भंडारों में भी क्योंकि एक ऐसा भी वर्ग है, जिसके लिये कोरोना से निपटने से भी ज्यादा गंभीर है रोटी का प्रबन्ध।
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एक बर की बात है अक कोरोना के इलाज मैं दवाइयां की भिड़न्त देखकै नत्थू बोल्या—आयुरवेद अर एलापैथी की लड़ाई मैं आच्छा होया अक बस स्टैंड पै बैठे शर्तिया इलाज करनिये नीं कूद वरना मुकाबला त्रिकोणीय हो जाता।