उन दिनों अभिनेता अक्षय कुमार बॉलीवुड की बुलंदी की सीढ़ियां चढ़ने की तैयारी कर रहे थे। वे अभिनय पर एक किताब ख़रीदना चाहते थे, लेकिन उनकी जेब में सौ रुपये कम निकले। इसलिए उन्होंने किताबों की दुकान पर खड़े-खड़े ही किताब का पहला पन्ना पढ़ा- अच्छा अभिनेता बनने के लिए पहले एक अच्छा इंसान बनना ज़रूरी है। बाद में, एक इंटरव्यू में उन्होंने जाहिर किया कि मैं इससे पूर्णत: सहमत हूं, क्योंकि जब आप अच्छे इंसान का किरदार निभाते हैं, तो अच्छाई खुद-ब-खुद झलकने लगती है। चूंकि हर डॉक्टर, हर इंजीनियर, हर विद्यार्थी, हर नेता, हर कारोबारी पहले एक इंसान है। अत: उसकी पहली अहमियत, पहला धर्म और पहला कर्तव्य काबिल इंसान बनना ही होनी चाहिए।
विख्यात कवि गोपालदास नीरज के शब्द हैं, ‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए, जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए।’ वाकई इंसानियत जैसी कोई लियाक़त नहीं है, न ही कोई धर्म है। देश की पहली महिला आईपीएस अफसर रहीं किरण बेदी कई बार बताती रही हैं, ‘1971 में, यूपीएससी के फ़ॉर्म भरते हुए मैंने धर्म कॉलम के सामने लिख दिया था- मानवता। मेरा मानना है कि मानवता या इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है।’ इसीलिए जब कभी किसी की प्रशंसा में दो शब्द कहे जाते हैं, तो उसके कद और काबिलियत से ऊपर अच्छा इंसान होने के गुण को भरपूर अहमियत दी जाती है।
तो क्या कद और काबिलियत से वाकई बड़ी है इंसानियत? लोग बाग बचपन से ही उछलते हैं, लटकते हैं और जिम में न जाने कैसी-कैसी कसरतें करते हैं काठी सुडौल करने और कद बढ़ाने के लिए। कई किताबें रटते हैं, अव्वल नंबर लाते हैं। ऊंची काबिलियत हासिल करने में दिन-रात एक कर देते हैं। जबकि साइकेट्रिक और सोशियोलॉजिकल रिसर्च बताती रही हैं कि ऊंचा कद हमेशा कमाल नहीं दिखाता। हालांकि पुरुषों के ऊंचे कद से उनकी आमदनी और कारोबारी सम्भावनाएं जरूर बढ़ती हैं। अमेरिका में तो कद्दावर उम्मीदवार की राष्ट्रपति चुनाव जीतने की सम्भावना दुगुनी बढ़ जाती है। क्योंकि पुरुषों का ऊंचा कद प्रधानता, श्रेष्ठता, विशिष्टता, सुरक्षा, बेख़ौफ़, बलवान, नेतृत्व और सामाजिक शक्ति से जुड़ा है। बावजूद इसके कद और काबिलियत दोनों से कहीं ऊपर है इंसानियत। भ्रम तब टूटता है, जब कसरत और पढ़ाई लियाकत और इंसानियत से वंचित रखती है। बंगाल के विख्यात दार्शनिक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की राय में, ‘जो व्यक्ति दूसरों के काम न आए, वास्तव में वह इंसान ही नहीं है।’ दूसरों के कल्याण से बढ़ कर, दूसरा कोई नेक काम और धर्म नहीं होता। इसीलिए कहते हैं कि इंसान का सबसे बड़ा कर्म दूसरों की भलाई और सहयोग होना चाहिए। नागरिकों के यही गुण एक संपन्न राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
हॉवर्ड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डेनियल गोलमैन के मुताबिक, आईक्यू टेस्ट (इंटेलिजेंस कोशंट कहें या बौद्धिक योग्यता) में कम आंका गया इंसान भी आगे चल कर ईक्यू पैमाने (इमोशनल कोशंट या भावनात्मक योग्यता) के सहारे ऊंचाइयों को छूता है। बीते एक-डेढ़ दशक के दौरान ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने एसक्यू यानी स्पिरिचुअल कोशंट के ज़रिए बुद्धिमत्ता आंकने की पहल की थी। इसके अंतर्गत जीवन के मूल्य और अर्थ को समझने की बुद्धिमत्ता का विकास किया जाता है। इससे संपन्न इंसान अपने कामकाज को बेहतर और अर्थपूर्ण बना सकता है। एसक्यू से परिपूर्ण इंसान आत्मिक और आध्यात्मिक तौर पर ज्यादा जागरूक होता है। इसकी बुनियाद हर इंसान के भीतर जन्म से ही होती है, जिसे संवार और समृद्ध बना सकते हैं। आंतरिक कौशल को संवार कर, नम्र, प्रेरक, जागरूक होकर, भावनाओं को जुबान दे कर, कला और कुदरत का प्रेमी बन कर, नेकी के रास्ते पर चल सकते हैं।
एक फकीर किसी सुंदर स्थल पर पहुंचा। लोगों ने कहा, ‘यही स्वर्ग है।’ उसने पूछा, ‘सुकरात कहां है?’ काफी खोजबीन की, कहीं पता नहीं लगा। फकीर नरक की ओर चल पड़ा। वहां जा कर पूछताछ की तो लोगों ने बताया कि सुकरात यहीं कहीं है। एक व्यक्ति उसे सुकरात के पास ले गया। वे एक खेत में गड्ढा खोद रहे थे। फ़क़ीर ने सुकरात से सवाल किया, ‘आप जैसा अच्छा इंसान नरक में?’ सुकरात मुस्कुराए और बोले, ‘संसार में गलत व्याख्याएं प्रचलित हैं। तुम कहते हो कि अच्छा इंसान स्वर्ग में जाता है। हम कहते हैं कि अच्छा इंसान जहां जाता है, वहां स्वर्ग अपने आप चला आता है। और बुरा इंसान जहां जाता है, वहां नरक आता है।’ सुकरात ने आगे समझाया, ‘स्वर्ग कोई बना- बनाया स्थान नहीं है। स्वर्ग अच्छे इंसान का निर्माण ही है। अपने भीतर जब अच्छा निर्मित हो जाता है, तो बाहर अच्छा फैल जाता है। स्वर्ग अच्छे इंसान के निर्माण की छाया है, ख़ुशबू है। जबकि नरक भी कोई स्थान नहीं, वह बुरे इंसान की बुराई का बाहर तक छा जाना है।’ सद्गुरु जग्गी वासुदेव का भी मानना है, ‘सुंदरता का संबंध आप के नैन-नक़्श और कद-काठी से नहीं है। आपके संस्कारों से जो झलकता है, उससे तय होता है।’ सचमुच सुंदरता और कुरूपता इंसान के भीतर से निकल कर बाहर तक फैलती है, न कि ऊपरी रूप-रंग से।
मनोविज्ञान भी साबित करता है कि अगर खुशी, समृद्धि और संतोष जैसे गुणों को जीवन में लाना है, तो अच्छाई को अपने जीवन में जोड़ना लाज़िमी है।