रूस और यूक्रेन के बीच आज जो कुछ हो रहा है वह आने वाले कल की भयावह आशंकाओं की भी एक तस्वीर है। यह पहली बार नहीं जब दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के कगार पर खड़ी दिखाई दे रही है और यह आखिरी बार नहीं है जब दुनिया ऐसे किसी भी युद्ध से मनुष्यता को बचाने के लिए प्रार्थना में रत है। आज सारा भारत भगवान शिव से मनुष्यता के कल्याण की पुकार कर रहा है। यूक्रेन के भारत स्थित राजदूत ने भी भारतवासियों से आग्रह किया कि वह यूक्रेन पर रूसी हमले से उत्पन्न वैश्विक खतरों से बचाने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करें। इसी बीच यूक्रेन के राष्ट्रपति ने रूस की जनता के नाम एक अपील जारी की कि वह रूसी राष्ट्रपति पर ‘मनुष्यता-विरोधी’ अभियान को तत्काल रोकने के लिए दबाव डालें। किसकी प्रार्थना और किसका आग्रह युद्ध की विभीषिका को रोकने में सहायक होगा, कहा नहीं जा सकता, पर यह कहना जरूरी है कि किसी की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा मनुष्यता के सुरक्षित भविष्य से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकती। वह हर व्यक्ति, और हर आशंका, मनुष्यता की अपराधी है जो दो विश्व युद्ध के परिणामों से परिचित होने के बावजूद युद्ध का पक्ष लेती है। युद्ध तो अपने आप में एक समस्या है, वह किसी समस्या का समाधान कैसे हो सकता है?
लगभग तीन दशक पहले हुए खाड़ी-युद्ध के बाद एक बार फिर युद्ध ने हमारे घरों में प्रवेश किया है। खाड़ी-युद्ध के दौरान पहली बार युद्ध का आंखों देखा हाल टेलीविजन के पर्दे पर प्रसारित हुआ था। तब, दुर्भाग्य से युद्ध की विभीषिका से कहीं अधिक हमलावर मिसाइलों के दृश्यों ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। इस बार भी यूक्रेन पर रूसी हमले के दृश्य टेलीविजन पर छाए हुए हैं। निस्संदेह युद्ध की विभीषिका का एक पक्ष यह भी है। इन दृश्यों को दिखाए जाने के औचित्य-अनौचित्य को लेकर तब भी सवाल उठे थे, अब भी उठ रहे हैं। सबसे पहले कोई दृश्य दिखाने के लिए लगी होड़ जारी है। इस होड़ के लिए, और इस युद्ध के लिए भी, दोषी कौन है, यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह सवाल कि युद्ध की विभीषिका से आदमी को डर क्यों नहीं लगता? रोज नये से नये और घातक से घातक हथियार क्यों बन रहे हैं? शांति की महत्ता समझने के दावे करने वाले अशांति का बाजार सजा कर क्यों बैठे हैं? बंदूक की ताकत पर अपना आज संवारने का दावा करने वालों के मन में कवि नीरज की तरह यह सवाल क्यों नहीं उठता कि ‘अगर… तीसरा युद्ध हुआ तो नयी सुबह की नयी फसल का क्या होगा?’ उम्मीद की जानी चाहिए कि स्थितियां सुधरेंगी, युद्ध की आग और नहीं फैलेगी। पागलपन का शिकार होने से बच जायेगा आदमी।
बहरहाल, यह सब लिखते समय दो दृश्य लगातार मुझे परेशान करते रहे हैं। सबसे पहले युद्ध का कोई दृश्य दिखाने का दावा करने वाले चैनलों पर ही, शायद संयोग से ही, ये दृश्य देखे थे मैंने। पहला दृश्य यूक्रेन के उस नागरिक का है जो अपनी पत्नी और बेटी को किसी ‘सुरक्षित स्थान’ पर पहुंचाने के लिए विदा कर रहा है। वह स्वयं ‘असुरक्षित स्थान’ पर ही रहने वाला था- मैं अपने देश के लिए ,अपनी जमीन के लिए लड़ूंगा उसने कहा था। वह रो भी रहा था। बेटी भी बिलख रही थी, पत्नी भी। और यह दृश्य देखकर लगभग 75 साल पहले के एक दृश्य की कल्पना करने लगा था मैं। समय भारत के विभाजन का था और हमारा परिवार तब पाकिस्तान के एक छोर क्वेटा में रहता था। पाकिस्तान की सरकार ने मेरे पिता को देश छोड़ने की इजाज़त नहीं दी थी और उन्होंने अपने परिवार को ‘सुरक्षित स्थान’ पर भेजने का निर्णय किया था। यूक्रेन की उस बिलखती बच्ची को देखकर मैं कल्पना करने लगा था, मैं भी तब ऐसे ही रो रहा होऊंगा जैसे यह बच्ची रो रही है और मेरे पिता भी तब ऐसे ही आंसू बहा रहे होंगे जैसे इस बच्ची का पिता बहा रहा था। यूक्रेन के इस दृश्य और मेरी कल्पना में एक बड़ा अंतर भी है- मेरे पिता को तब क्वेटा छोड़ने की अनुमति नहीं मिली थी और यूक्रेन के इस व्यक्ति ने स्वयं यह निर्णय लेकर बंदूक हाथ में उठायी थी कि वह ‘सुरक्षित स्थान’ पर जाने के बजाय रूसी खतरे का मुकाबला करेगा। बहुत बड़ा फर्क है दोनों स्थितियों में। जमीन-आसमान का फर्क। पर हकीकत यह भी है कि मानवीय संवेदना दोनों जगह पर एक जैसी थी। वहां भी एक परिवार था, यहां भी। इस एक भाव ने मुझे यूक्रेन के उस सिपाही से जोड़ दिया। फिर मैं स्वयं को उस बच्ची की जगह देखने लगा। फिर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। असहाय होने की भावना की एक पीड़ा थी इन आंसुओं में। 75 साल पहले का वह विभाजन भी अमानवीय था और आज की यह लड़ाई भी मनुष्य की अमानवीय आकांक्षाओं का ही एक उदाहरण है।
अब दूसरे चित्र की बात।
यह चित्र भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ है। इस दृश्य में पांच-सात साल की एक बच्ची एक सिपाही को बुरी तरह दुत्कार रही है। सिपाही के हाथ में बंदूक है, पर उसके चेहरे पर असहाय होने का एक भाव भी है। पता नहीं यह चित्र यूक्रेन में हो रही इस लड़ाई का है अथवा किसी और लड़ाई का। यह भी नहीं पता कि वह बच्ची किस भाषा में चिल्ला-चिल्ला कर उस सिपाही के प्रति अपना गुस्सा निकाल रही थी। पर इतना स्पष्ट समझ आ रहा था उसके हाव-भाव से कि वह सिपाही से चले जाने के लिए कह रही है। मैंने अनुमान लगाया कि वह बच्ची यूक्रेन की है और सिपाही रूसी है। हमलावर। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किसी भी मनुष्य को दूसरे मनुष्य पर हमला करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई विवाद है तो उसे सुलझाने के और रास्ते हो सकते हैं। युद्ध किसी विवाद को सुलझाने का कोई रास्ता नहीं है। और सच तो यह है कि लड़ाई का कोई भी मैदान धर्मक्षेत्र नहीं होता, कुरुक्षेत्र ही होता है। युद्ध में कोई जीतता नहीं, अंततः सब हारते हैं-जीतने वाला भी।
यूक्रेन और रूस के बीच लड़ा जा रहा यह युद्ध कल क्या रूप लेता है, कहा नहीं जा सकता। उम्मीद ही की जा सकती है कि युद्ध फैलेगा नहीं, सिमट जायेगा। दूसरा विश्व-युद्ध हिरोशिमा और नागासाकी की विभीषिका के साथ समाप्त हुआ था। और इस माने में स्थितियां आज और भयावह हैं कि विनाश के हथियार पहले से कहीं अधिक भयानक हो गये हैं। ऐसे में कोई भी चिंगारी भीषण आग लगा सकती है। यह बात दुनिया के हर देश को समझनी होगी कि उस आग में कोई दूसरा ही नहीं जलेगा, वह भी जल सकता है। इसलिए युद्ध की हर संभावना को समाप्त करना ही एकमात्र विकल्प बचता है। उस पहले चित्र वाली बच्ची की आंख के आंसू और दूसरे चित्र वाली बच्ची का गुस्सा, अपने आप में एक सबक है, समूची मानवता के लिए। सवाल यह है कि हम कब इस सबक को समझेंगे?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।