रतन चंद ‘रत्नेश’
पांच वर्ष की छीनू की मांगें दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही हैं। कभी कुछ तो कभी कुछ। यों उसकी मांगें भी बड़ी नहीं होतीं परंतु जहां अभाव ने पहले से ही अपना शिकंजा कस रखा हो, वहां छोटी-सी वस्तु भी बहुत बड़ी बन जाती है। उसका चौदह वर्ष का बड़ा भाई राजू कभी-कभी खीझ उठता परंतु अपने आप को संयत कर वह अपनी छोटी बहन को बहलाने-फुसलाने का उपक्रम करने लग जाता। छीनू के जन्म के कुछ दिनों बाद ही उसके रिक्शा चलाने वाले पिता की किसी अज्ञात बीमारी से मृत्यु हो गई थी। मां एक-दो घरों में झाड़ू-पोछा करके किसी तरह गुजारा कर रही थी। मां को आर्थिक संबल देने के लिए ही राजू अब फुटपाथ पर छोटी-मोटी चीजें बेचने लगा था।
‘फ्री…फ्री…फ्री… दो लेने पर एक फ्री। बस कुछ ही बचे हैं। सस्ते में ले जाइए।’
व्यस्त सड़क के किनारे एक पुराने कपड़े पर बिछी हुई थीं राजू की चीजें। कुछ रंगे-िबरंगे प्लास्टिक के खिलौने, छोटी-बड़ी गेंदें और घर की सजावट में काम आनेवाले तरह-तरह के चमचमाते कागज। बड़े दिनों के लिए भी वह सांता क्लाज़ की टोपियां, क्रिसमस-ट्री आदि लाया था परंतु उन दिनों ज्वर के कारण वह उन्हें बेच न सका था। तीन दिनों तक मां ने उसे घर से बाहर नहीं निकलने दिया था। आज उन्हें भी उसने साथ ही बेचने के लिए रखा हुआ है परंतु कोई भी ग्राहक अब उन पर ध्यान नहीं दे रहा। क्रिसमस को बीते आज छः दिन हो चुके हैं। कल से स्वास्थ्य में सुधार होने पर वह अपनी चीजों के साथ सड़क किनारे आ बैठा है।
साल के अंतिम दिनों में इस सड़क के दोनों किनारों पर कुछ न कुछ बेचने वालों की भीड़ जुट जाती है। रंग-बिरंगी चीजों से पट जाती है शहर की ओर जाती यह सड़क। नये वर्ष का स्वागत सभी धर्म के लोगों के लिए एक-सा होता है। उत्सव के इन दिनों आलोक-सज्जा से छोटी-बड़ी सभी दुकानें, बाजार और मॉल चमचमा उठते हैं। भीड़ भरे चौराहों पर भीख मांगनेवालों के हाथों में भी इन दिनों बेचनेवाली चीजें आ जाती हैं।
राजू ने भी सड़क के किनारे थोड़ी-सी जगह बना ली है। अन्य विक्रेताओं ने यहां के सभी हिस्सों पर अपना कब्जा जमा रखा है परंतु वह भी हार मानने वालों में नहीं। अपने लिए थोड़ी-सी जगह किसी तरह बना ली है राजू ने। वह भी अपनी क्षमता और कौशल के अनुसार लोगों को चीजें खरीदने के लिए आमंत्रित करने में लगा हुआ है। दो के साथ एक का फ्री मंत्र भी उसने बाजार से ही सीखा है। इसी बीच कुछ ग्राहक उसके पास आए भी परंतु मोलभाव कर आगे खिसक लिए। बहुत समय बीत जाने पर भी जब उसका एक भी सामान नहीं बिका तो उसने मन ही मन अपने आप से कहा, ‘किस्मत ही खराब है। ग्राहक आ रहे हैं पर खरीद कोई नहीं रहा। लगता है आज कुछ भी नहीं बिकने वाला।’
तभी उसकी कानों में कुछ लोगों की आवाजें आईं- ‘ओय छोटे, यह गेंद कितने की है और ये क्रिसमस-ट्री?
राजू ने देखा कि युवक-युवतियों का एक दल शोर मचाता हुआ उससे चीजों की कीमतें पूछ रहा है। कुल मिलाकर वे सात जन थे। सबकी पीठों पर थैला लटक रहा था। शायद स्कूल या कॉलेज के छात्र थे। जब वे आपस में बातें कर रहे थे तब राजू के कान में उनमें से कुछ लोगों के नाम पड़े।
इतने लोगों को एक साथ देखकर राजू उत्साहित हो उठा। वह प्रसन्न होकर चहचहाने लगा – ‘छोटी गेंद दस की और बड़ी बीस की। दो लेने पर दस वाली एक फ्री और ट्री की कीमत तीस रुपए से शुरू होती है। सबसे बड़े की कीमत सौ रुपए है।’
उन युवकों में से एक ने कहा, ‘अब भी इतना महंगा? क्रिसमस तो कब का बीत चुका है।’
‘सर, साल के ये अंतिम दिन उत्सव के होते हैं। कुछ ही घंटों में नया साल शुरू हो जाएगा। ले जाइए, घर को अच्छे ढंग से सजाइए।’
‘घर के लिए नहीं चाहिए हमें। हमारी एक न्यू इयर पार्टी है। डेकोरेशन के लिए चाहिए।’
राजू के पल्ले कुछ नहीं पड़ा और उसने पार्टी के बारे में जानने की रुचि भी नहीं दिखाई। उसे क्या, उसे तो माल बेचने से मतलब है।
‘आप लोग क्या-क्या लेंगे, बतला दीजिए। सब मिलाकर कुछ कम कर लूंगा। असल में 25 दिसंबर के लिए मैंने यह सामान खरीदा था परंतु उन दिनों बुखार के कारण मैं इन्हें बेच नहीं पाया। आपको जो उचित लगे, दे दीजिएगा।’
उनमें से एक सुंदर दिखनेवाली युवती अचानक बोल पड़ी, ‘मैं पहले ही कह रही थी कि मॉल से खरीद लेते हैं परंतु तुम लोग नहीं माने। फुटपाथ पर बिकनेवाली इन चीजों की कोई क्वालिटी नहीं होती। घटिया माल बेचते हैं ये। डिसगस्टिंग।’
‘प्लीज अदिति, तुम चुप ही रहो तो अच्छा है। सब जगह क्वालिटी मत देखा करो। पार्टी के बाद ये चीजें किसी काम की नहीं रह जाएंगी। समझी… बेकार में मॉल में महंगे दाम देकर पैसे बर्बाद करने का क्या फायदा? हम कोई धन्ना सेठ तो हैं नहीं।’
सोमा नाम की युवती बोल पड़ी, ‘मेरे दिमाग में एक आइडिया आया है।’
अदिति को चुप कराने वाले लड़के ने पूछा, ‘कैसा आइडिया?’
‘क्यों न हम इस लड़के की सारी चीजें खरीद लेते हैं। सजावट के काम आ ही जाएंगी, इस छोटे से लड़के का भी भला हो जाएगा। उम्र ही कितनी है बेचारे की। नये साल के अवसर पर हम इसके चेहरे पर मुस्कान ला सकें तो इससे भला हमारे लिए आनंद की बात क्या होगी? पार्टी भी सज जाएगी और इस लड़के के चेहरे पर मुस्कान भी।’
‘ग्रेट आइडिया सोमा। यू आर जीनियस।’ दीपक नाम के युवक ने कहा।
‘वाकई आइडिया बुरा नहीं।’ अदिति भी चहक उठी। उसने लड़के से उसका नाम पूछा और कहा, ‘अच्छा राजू, मान लो हम तुम्हारा सारा सामान खरीद लेते हैं तो उसकी कीमत क्या होगी?’
सुनकर राजू को विश्वास नहीं हुआ। उसकी खुशी चेहरे से साफ झलक रही थी। उसने वाजिब कीमत बतायी तो वे युवक-युवती उसी समय तैयार हो गए और उसे पैक करने के लिए कह दिया। राजू उन चीजों को सावधानी से अपने साथ लाए गत्ते के बक्सों और लिफाफों में समेटने लगा। उसी समय उसकी नज़रों के सामने छोटी बहन छीनू का मासूम चेहरा घूम गया। आज बेचारी एक सस्ते से केक के लिए जिद करने लगी थी और उसने उसे चुप करा दिया था। उसका मन द्रवित हो उठा। बड़ी मुश्किल से उनकी रोजी-रोटी चलती थी। केक जैसी चीजों पर पैसा खर्च करने का सामर्थ्य नहीं था उनमें। आज की कमाई से उनके तीन-चार दिन आराम से गुजर जाएंगे। घर में खाने-पीने की चिंता नहीं रहेगी। यह सोचता-सोचता उसने सारा सामान उन युवक-युवतियों के हवाले कर दिया। लड़कियों के बाल कसने के क्लिप जैसी कुछ छोटी-मोटी चीजें रह गई थीं। उन्हें एक थैले में डालकर वह घर की तरफ चल पड़ा।
रास्ते में एक चमचमाती दुकान के पारदर्शी कांच के शो-केस में उसे रंग-बिरंगे केक नज़र आए। बिना अधिक सोच-विचार किए वह उस दुकान के दरवाजे को ठेलकर अंदर चला गया। भीड़ भरी उस दुकान में कुछ लोगों ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा परंतु वह बिना किसी की परवाह किए शो-केस में रखे नाना प्रकार के केकों को जायजा लेने लगा। जेब में पैसे हों तो फकीर भी अपने आप को राजा से कम नहीं समझता। उसे काजू, किसमिस से सजा एक प्लम-केक पसंद आया। निर्धारित तीन सौ रुपए चुकाकर वह उस केक के पैकेट के साथ अपनी झोपड़ी की ओर रवाना हुआ।
रात के बारह बजकर पांच मिनट हो चुके थे। पटाखों की आवाजें इधर-उधर से आ रही थीं और उसके साथ ही रंग-बिरंगी आतिशों से आसमान रह-रहकर चमक उठता। पूरा शहर आनंद के उल्लास में डूबा हुआ था और ठीक उसी समय झोपड़ी में एक फटी चादर बिछाकर भाई-बहन स्वादिष्ट केक के साथ अपना जश्न मना रहे थे।