शारा
कन्यादान बेशक आज के दर्शक को कमोबेश ज्यादा अच्छी मूवी न लगे, लेकिन जब यह रिलीज हुई थी तो कॉलेज के युवा वर्ग ने इसे हाथोंहाथ लिया था। कारण था शाशि कपूर के चेहरे की तरोताजगी और आशा पारेख के लटके-झटके। इस मूवी में दोनों की केमिस्ट्री खूब अच्छी बन पड़ी थी। जिन ख्यालों/सपनों को बुनकर किशोर वर्ग युवावस्था में पैर रखता है, निर्देशक मोहन सहगल ने इस कहानी के जरिये वह सब परोसा है, जिसकी उस वर्ग के दर्शक को दरकार थी। अगर आप पचासवें (उत्तरोत्तर) में पैदा हुए हैं तो आप भी इस गाने को गुनगुना के जवां हुए हैं ‘लिखे जो खत तुझे…’ क्योंकि उस जमाने में खत ही लिखे जाते थे और वह भी लुका-छिपाकर। कभी घरवालों से, कभी दोस्तों मित्रों से। यह फिल्म 1968 में रिलीज हुई थी। गाने ज्यादा नहीं थे, जो थे वे धुनों के कारण काफी लोकप्रिय हुए जिन्हें कलमबद्ध किया था हसरत जयपुरी व गोपाल दास नीरज ने। चूंकि संगीत शंकर जयकिशन का था, जाहिर है गाने हिट होने ही थे। गाने मशहूर होने का एक और कारण था उसकी पिक्चराइजेशन और कश्मीर की वादियों की लोकेशन। सिनेमैटोग्राफी भी कमाल की थी। चलते-चलते यह बात भी बता दूं कि यह मोहन सहगल वहीं हैं जिन्होंने रेखा को ब्रेक दिया था। रेखा को लेकर सावन-भादो उन्होंने ही बनायी थी। यह कहानी भी टिपिकल सोशल मुद्दों पर बनी है। भारत को आजाद हुए अभी कुछ ही समय हुआ था। अब तक गरीबी और भुखमरी पर तो काबू पा लिया था, लेकिन सामाजिक समस्याएं जन-जन में थीं। उनसे हम उबर नहीं पा रहे थे। उनमें से एक बाल विवाह की थी। अपनी शान या मजबूरी की खातिर माता-पिता बाल्यावस्था में बच्चों का विवाह करके उनके कोमल दिमाग पर ऐसी जिम्मेवारी को वहन करने का बोझ डाल देते थे, जिसका उनके जीवन से कुछ लेना-देना नहीं होता था। सही भी है बचपन में जो सिंदूर लगा दे, यह जरूरी नहीं कि उस दूल्हे से लड़की को प्यार हो। यही बात लड़के के पक्ष में भी कही जा सकती है। हो सकता है कि तब के हालात में यह फैसला ठीक हो, मगर बदले हालात में जब दूल्हे का कोई अतापता न हो तो लड़की तो न दुल्हन बनी न विधवा हुई। ऐसी कुछ विसंगतियां समाज में विद्यमान थीं जिन्हे दूर करने के लिए तब फिल्मोद्योग सामने आया, संस्थाएं तो काम कर ही रही थीं। कन्यादान की स्टोरी भी तत्कालीनता को लिए हुए थी इसलिए इसे बॉक्स ऑफिस पर खूब कामयाबी हासिल हुई। यह फिल्म 1968 में चौथी बड़ी कमाऊ फिल्म घोषित हुई। उस वक्त में ही इसने 3.2 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया था जो आज की तारीख में 133 करोड़ रुपये के बराबर है। इस फिल्म में ‘मेरा गांव मेरा देश’ की साइड हीरोइन लक्ष्मी छाया भी है, जिसने धर्मेंद्र के मुंह पर चाकू रखकर गीत गाया था ‘मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये’ या फिर ‘किस किस को सुनाऊं’ गीत पर ठुमकी थी। फिल्म कन्यादान में शशि कपूर अमर कुमार बने हैं और उनके दोस्त का नाम भी अमर है, वह दिलीप राय बने हैं। इससे गलत फहमी में लोग दिलीप को ही शशि समझ लेते हैं। फिल्म की कहानी भी हॉकी मैच से शुरू होती है जहां लड़कियां बुलबुल टीम के बैनर तले लड़कों की टीम हीरोज को ताल ठोकती हैं, लड़कियां लड़कों को 2 गोल के अंतर से हरा देती हैं। लेकिन सौभाग्य से अमर (दिलीप) जो लड़कों की टीम का नेतृत्व कर रहा है, लड़कियों की टीम बुलबुल की कप्तान लता पर मर-मिटता है। यह सब शशि (अमर) की देखरेख में होता है जो उस दिन अपने दोस्त अमर का मैच देखने आया है। दोनों को गठबंधन में बांधने के बाद शशिकपूर कार में वापस घर को लौट रहा था कि रास्ते में उसकी कार खराब हो जाती है। जहां कार खराब होती है, वहां दूर-दूर तक कोई मैकेनिक की दुकान नहीं, ऊपर से पहाड़ी रास्ता। यहीं पर उसकी मुलाकात पहाड़ी लड़की रेखा (आशा पारेख) से होती है जो भदेस छोरी लगती है। रात को ठिकाना वह रेखा के घर ही बनाता है जहां उसकी मां उसके साथ रहती है। आगे भी अमर उस रास्ते से गुजरता है तो रेखा के घर जरूर रुकता है जहां उसे बातों-बातों में रेखा की मां से रेखा के बचपन में ब्याह के बारे में पता चलता है और रेखा की मां अमर से उसका खोया दूल्हा ढूंढ़ने की गुहार करती है क्योंकि शहर में उसका बड़ा रसूख है। लेकिन तब तक अमर और रेखा आकंठ प्यार में डूब चुके होते हैं और कई प्रेम के तराने भी गा चुके होते हैं, जिनमें ‘लिखे जो खत तुझे’ भी शामिल है। जब रेखा को यह बात पता चलती है, वह भी दुखी व हैरान हो जाती है। लेकिन रेखा के पास अनाम दूल्हे की प्रतीक्षा करने के अलावा चारा न था। अमर निराश होकर वहां से चला जाता है। हालांकि वह शादी का प्रस्ताव लेकर आया था, लेकिन जब अगली बार अमर रेखा की मां के पास आता है तो अपने बचपन की फोटो लेकर आता है। फोटो में उसके माता-पिता को रेखा की मां पहचान लेती है और अमर के रूप में रेखा का खोया दूल्हा पाकर धन्य हो जाती है। दोनों की शादी हो जाती है, मगर एक बात बताना नहीं भूलता कि असली अमर की लता नामक लड़की से शादी हो चुकी है। इसलिए उसे ही रेखा दूल्हा समझे। क्योंकि वह उसको बहुत प्यार करता है। हालांकि यह बात रेखा को नागवार गुजरती है और वह स्वयं को खत्म करने के लिए बाहर निकल जाती है जो हीरो भला कहां ऐसा होने देगा? जब वह उस व्यक्ति को विवाहित देखती है जो बच्चे का बाप भी है तो मां आकर रेखा को समझाती है कि जो शादी उनकी मर्जी के बगैर उनके बचपन में कर दी गयी, वह शादी हरगिज शादी नहीं है। कन्यादान वही होता है जो मां-बाप युवा बेटी की मर्जी से उसकी पसंद के लड़के से विवाह तय करके करते हैं। अंत में रेखा मान जाती है। हमें भी पता था कि हसीना मान जायेगी। कहानी खत्म।
निर्माण टीम
निर्देशक : मोहन सहगल
प्रोड्यूसर : राजेंद्र भाटिया
मूल व पटकथा : भाखड़ी
संवाद : एस. सैलानी
गीत : गोपाल दास नीरज, हसरत जयपुरी
संगीत : शंकर जयकिशन
सिनेमैटोग्राफी : केएच कपाड़िया
सितारे : शशि कपूर, आशा पारेख, ओमप्रकाश, दिलीप, अचला सचदेव आदि
गीत
लिखे जो खत तुझे : मोहम्मद रफी
मिल गये आज मेरे सनम : लता मंगेशकर
संडे को प्यार हुआ : आशा भोसले, महेंद्र कपूर
परायी हूं परायी मेरी आरजू न कर : लता मंगेशकर
फूलों की महक लहरों की लचक : महेंद्र कपूर
तुम नहीं भूलते जहां जाऊं : मोहम्मद रफी
मेरी जिंदगी में आते : मोहम्मद रफी