रतन सिंह शेखावत
राजस्थान में प्राचीनकाल से ही पानी की कमी रही है। चूंकि राजस्थान के ज्यादातर किले ऊंची पहाड़ियों पर बने हैं, ऐसे में सोचिये इन किलों में पानी की कैसी समस्या रही होगी। प्रदेश के ऐसे बहुत से किले हैं जो विशाल हैं जैसे कुम्भलगढ़, चित्तौड़गढ़, रणथम्भोर, जालौर आदि। चित्तौड़गढ़ में तो गौमुख से लगातार बारह महीने पानी निकलकर जलाशय में गिरता रहता है, पर कई छोटे किले ऐसे हैं जो पहाड़ियों की चोटियों पर बने हैं और उनमें प्राकृतिक जलाशय नहीं के बराबर हैं। इन किलों में पानी की आपूर्ति एक बड़ी चुनौती थी। खासकर युद्ध के समय में। कहा जाता है ना कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है, इन किलों में भी पानी की आपूर्ति की समस्या को दूर करने के लिए तत्कालीन कारीगरों व विशेषज्ञों ने तकनीक खोजी और इस समस्या से निजात पायी। यहां के शासकों ने किले में जल आपूर्ति के लिए वर्षा जल को संचय करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया और किलों में बड़े-बड़े हौज बनवाये, जिनमें किले की छतों, दालानों में बहने वाले वर्षा जल को संचय कर पानी की आपूर्ति की जा सके। किले के सबसे ऊपरी भाग में आप यह बंद हौज देख सकते हैं, इसे अंधेरिया हौज कहते हैं। इस हौज में छत व आंगन में बहने वाला वर्षा जल सहेजा जाता था।
आंगन में बनी नालियां आंगन में बहने वाले पानी को इस हौज में पहुंचा देती हैं। राजस्थान में घरों में भी इसी तरह छत का पानी सहेजने की परम्परा रही है, लेकिन आज ये परम्परा प्रदेशवासी अब भूल चुके हैं। किले में बनी इमारतों के मध्य बनी जगह को बावड़ी व कुएं जैसा रूप देकर इसमें में भी अथाह जलराशि का संग्रह किया जाता था। किले के हर कोने में जहां वर्षा जल संग्रह किया जा सकता है वहां छोटे-मोटे हौज बने हैं। एक किले में एक विशाल तरणताल बना है, इसमें कभी अथाह जल संरक्षित किया जाता था, जिसे वर्तमान में होटल में आने वाले पर्यटकों के लिए तरणताल का रूप दे दिया गया है। आज बेशक यह टैंक तरणताल में तबदील हो गया, पर कभी यह किले की सुरक्षा में तैनात योद्धाओं के लिए जलापूर्ति किया करता था। कुला मिलाकर हमारे पूर्वज वर्षा जल को संरक्षित कर वर्षभर के लिए जरूरी पानी का जुगाड़ कर लिया करते थे। आज हम निर्मल व स्वच्छ वर्षा जल को संग्रह करने के बजाय देश के दूसरे भागों में बह रही नदियों का पानी नहरों द्वारा अपने क्षेत्र में लाने के लिए आन्दोलन करते हैं।
साभार : ज्ञानदर्पण डॉट कॉम