योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
जाने क्यों, आज हर आदमी अपने आप को अफलातून मानने लगा है और अपने सामने किसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करना चाहता। कल का भरोसा नहीं और आदमी है कि हर किसी को देख लेने और सबक सिखाने की धौंस देने से बाज़ नहीं आता। तत्वदर्शी फकीर कबीर ने तो कहा है :-
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात।
कवि का कहने का अभिप्राय यही है कि आदमी का अस्तित्व तो पानी के बुलबुले की तरह है। वह तो कालांतर उसी तरह अस्तित्वहीन हो जाता है, जैसे सुबह का तारा देखते ही देखते छिप जाता है।
दूसरे शब्दों में कहूं तो क्षणभंगुर जीवन लेकर आदमी संसार की निस्सारता को भूल कर जाने क्यों मिथ्याभिमान के झूले पर झूलता हुआ अपने आपको अमर मान बैठता है। इतना ही नहीं, वह हर बात में अपनी ही प्रभुता चाहता है। यह चिंता की बात है कि न जाने क्यों, आदमी की विनम्रता समाप्त होती जा रही है और स्वयं को ‘सबसे बड़ा और शक्तिशाली’ मानने की ज़िद बढ़ती जा रही है। जाने क्यों, हर कोई अपने को ही सही और प्रामाणिक सिद्ध करने पर तुला हुआ दिखाई देता है और अपनी बात पर अड़ा रहता है। सही मायनों में यह व्यक्ति की सरलता सहजता का ही परित्याग करने जैसा है।
कल इसी वैचारिक उलझन के दौरान एक बोधकथा अनायास पढ़ने को मिली, जिसने वाकई अन्तर्मन को बहुत शान्ति दी है। वह बोधकथा इस प्रकार है—दो भाई थे और आपस में बड़े ही प्यार से रहते थे। कालांतर किसी बात पर एक दिन उनमें कहा-सुनी हो गई। इसके उपरांत छोटे भाई ने कोई कड़वी बात बड़े भाई को कह दी, तो नाराज़ होकर बड़े भाई ने छोटे को घर से अलग कर दिया। कई वर्ष बीत गए, लेकिन दोनों भाइयों में कोई मेल-मिलाप नहीं हुआ। कोई गंभीर प्रयास भी नहीं हुआ।
इस बीच छोटे भाई की बेटी जवान हो गई तो उसने बेटी की शादी तय कर दी। इसी बीच छोटे भाई के मन में विचार आया कि बारात घर पर आए और पितृ तुल्य बड़ा भाई खुशी के इस मौके पर साथ न हो, तो समाज में कई तरह की बातें होंगी। इसी चिंता में डूबने के बाद आखिरकार छोटा भाई बड़े भाई के पास गया। अपनी गलती की क्षमा मांगते हुए उन्हें बेटी की शादी का निमंत्रण देकर आशीर्वाद देने के लिए आने को कहा। लेकिन इसके बावजूद अपमान को याद करके बड़े भाई ने उसकी बात ठुकरा दी। छोटे भाई को बहुत दुख हुआ। लेकिन उसने हार नहीं मानी। उसने दूसरा रास्ता सोचा और वह बड़े भाई के उन गुरु के पास पहुंचा, जिनकी कोई बात बड़ा भाई टालता ही नहीं था। गुरुजी ने छोटे की बात सुनी और उसे आश्वासन दिया। और कहा कि तुम घर जाओ, बड़ा भाई भी शादी में जरूर आएगा।
गुरुजी ने बड़े भाई को बुलाकर पूछा कि जब तुम्हारा छोटा भाई अपनी बेटी की शादी में तुम्हें सम्मानपूर्वक बुलाने आया था, तो तुमने मना क्यों किया? बड़े भाई ने कहा—गुरुजी, आज से दस साल पहले छोटे भाई ने मेरा अपमान किया था, मैं उसे कैसे भूल जाऊं? बड़े ही शान्त भाव से गुरुजी ने बड़े भाई से पूछा—क्या तुम ठीक-ठीक यह बता सकते हो कि पिछले सप्ताह मैंने अपने प्रवचन में क्या कहा था?
बड़ा भाई सोचने लगा। वह कुछ देर विचार करने के बाद बोला कि गुरुजी, याद नहीं आ रहा है कि आपने पिछले सप्ताह क्या उपदेश दिया था। अब गुरुजी ने डांटते हुए कहा—तुम्हें पिछले सप्ताह की मेरी अच्छी बात तो याद नहीं रही और अपने छोटे भाई की दस साल पुरानी बात आज तक याद है? जीवन को सकारात्मकता के साथ देखने की जरूरत है। तुम उठो, और छोटे भाई की बेटी के विवाह में जाकर अपना कर्तव्य पूरा करो। यहां ध्यान देने योग्य बात यह कि छोटे भाई ने तुमसे क्षमा मांगी और तुम क्षमा नहीं कर पाए? गुरुजी की बात सुनकर बड़े भाई की आंखें खुल गईं और वह छोटे की बेटी के विवाह में सम्मिलित हुआ। इतना ही नहीं, उसने छोटे भाई को क्षमा भी कर दिया। इस तरह हम देखते हैं कि वर्षों की दुश्मनी क्षमा ने खत्म करवा दी।
दरअसल, हम भी मिथ्याभिमान और निरर्थक ज़िद में डूबे कड़वी बातों को मन में बसा कर अनावश्यक रूप से तनाव झेलते रहते हैं। जिस दिन हम क्षमा करने का यह मंत्र अपना लेंगे, समझिए कि उसी दिन से हमारे मन में आनन्द का सागर लहराने लगेगा और कालांतर में हम जीवन के सभी तनावों से मुक्त हो जाएंगे। सही मायनों में क्षमा अमृततुल्य है।
क्षमा तो अमृत है सखे,
भरती गहरे घाव।
मन तनाव से मुक्त हो,
होता शांत स्वभाव।
तो फिर आइए, हम भी संकल्प लें कि किसी की कड़वी बात को मन में रखने के बजाय उस व्यक्ति को क्षमा करके अपने मन को तनाव से मुक्त रखेंगे।