अलका ‘सोनी’
‘धर्म’ एक ऐसा शब्द है जिससे हम सभी परिचित हैं। प्रायः दैनिक जीवन में हम सभी इस शब्द का प्रयोग भी करते हैं। इसके नाम पर तो सदियों से तलवारें खिंचती और बजती भी आई हैं। लेकिन क्या हम ‘धर्म’ शब्द के वास्तविक अर्थ और मर्म से वाकिफ हैं? क्या कभी हमने इसकी जड़ों तक जाने की कोशिश की है? शायद नहीं।
प्रायः हम सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास कर अपनी भी सोच वैसी ही बना लेते हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि हर बात की और धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे की जड़ों तक हमें जाना चाहिए। ताकि अपनी स्वतंत्र विचारधारा हम स्वयं ही बना सके। धर्म की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि ‘धारयति इति धर्म:’, अर्थात् धर्म का अर्थ है धारण करना। लेकिन यह धारण करना क्या है? क्या यह कोई वस्त्र है? नहीं, यह कोई वस्त्र नहीं, जिसे आज धारण कर अगले दिन उतार कर रख दिया जाए। वस्तुतः धर्म एक प्रकार की जीवन पद्धति है। जिसे अपनाने और पूरी तरह स्वीकार करने की आवश्यकता है। इसे अपने जीवन में अक्षरशः उतारने की जरूरत है।
हम सभी मनुष्य हैं और एक मनुष्य के गुण होते हैं सत्य, क्षमा, विद्या, दया, दान इत्यादि। ये सभी गुण मानव जाति को उच्चता और दिव्यता की ओर ले जाते हैं। ये सार्वभौमिक गुण हैं। धारण करने योग्य हैं। अपने कर्म में सतत लगे रहना, उदारता, सत्य और दान ही सही मायने में धर्म कहलाता है।
लेकिन प्रायः लोग धर्म का अर्थ व्यर्थ के कर्मकांड, दिखावे या फिर कट्टरता से लगा लेते हैं। धर्म में कट्टरता या मतांधता के लिए कोई स्थान नहीं। हमारे मन में यह प्रश्न भी उठ सकता है कि हम सत्य, क्षमा, करुणा या विद्या को धर्म क्यों मानें? इनको धारण क्यों करें? इसका सीधा सा उत्तर यही है कि ये मानवीय मूल्य ही सभी संप्रदायों के मूल हैं। अगर हम गीता, कुरान, बाइबल या गुरु ग्रंथ साहिब का गहराई से अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि उनमें भी इन्हें ही धर्म का मूल बताया गया है। अगर हम असत्य, क्रोध, अविद्या और क्रूरता को धर्म मान कर धारण कर लें तो क्या होगा? क्या हम ऐसे समाज में रह सकते हैं जहां हर व्यक्ति केवल झूठ बोलता हो! क्रोध में पागल हो रहा हो या फिर हर तरफ नृशंसता और मारकाट हो रही हो। चारों तरफ लूटपाट मची हो। अमर्यादित व्यवहार हो रहा हो। हर दिशा में हाहाकार मची हो। नहीं ना।…… इन परिस्थितियों की कल्पना मात्र से ही आत्मा कांप उठती है। केवल कुछ महत्वाकांक्षाओं के बढ़ जाने मात्र से ही महाभारत हो गया था। इस दुनिया ने दो-दो विश्वयुद्ध भी देख लिए हैं। परमाणु बम की विध्वंसात्मक शक्ति तो हम सभी जानते हैं। कहीं ना कहीं महामारी कोरोना भी मनुष्य की अतिशय महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है। हमारे धर्म ग्रंथों ने इसलिए ऐसे उच्च मानवीय गुणों को धर्म का नाम दिया है, जो हर युग में प्रासंगिक हैं। जिनसे व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति हो सकती है। धर्म का अर्थ है आत्मा को उसकी दिव्यता में देखना, ना कि किसी जड़ पदार्थ के रूप में। इसका मूल उद्देश्य प्रेम की स्थापना करना है, नफरत की नहीं। स्वयं का स्वयं से साक्षात्कार होना ही धर्म है। धर्म वह है जो व्यक्ति की चेतना जगाए। अज्ञानता से मुक्ति दिलाए। जीवन का अंतिम लक्ष्य पाने में मदद करे।