शमीम शर्मा
जो प्रियतम कहा करता कि मैं तुम्हारे लिये सब कुछ कर सकता हूं, वह आज गेहूं कटाई की वेला में फोन ही नहीं उठा रहा। आजकल हरियाणा-पंजाब के किसी भी छोर से गुजरो तो चारों ओर गेहूं की कटाई या ढुहाई होती नजर आयेगी। बिहार या यूपी के श्रमिक दिहाड़ी पर गेहूं की कटाई-गहाई करने में रात-दिन एक किये हुये हैं। दूसरी ओर, यहां के तमाम लोग कनाडा-अमेरिका में ड्राइवरी कर रहे हैं, मेक्डोनल्ड या केएफसी में वेटरी कर रहे हैं, वहां के बागों में फलों को तोड़ पैकिंग करने में जुटे हैं या पेट्रोल पंप पर तैनात हैं। कमाल के लोग हैं ये। ये अपने घर पर अथवा अपने खेतों में काम नहीं कर सकते। यहां इनका सारा काम यूपी-बिहार के श्रमिक करते हैं और हमारे नौजवान विदेशों में जाकर श्रमिक बन बैठे हैं। वाह, रामजी की कुदरत भी निराली है। यहां इन हट्टे-कट्टों को काम करता कोई न देख ले और वहां खराब मिट्टी होते हुये चाहे सारा जहां देख ले।
विदेशों में जाने और जमने के लिये युवाओं को परिवार की सपोर्ट चाहिये। पर युवा इस बात की ज्यादा चिंता नहीं करते कि कभी वे भी परिवार की सपोर्ट बनेंगे। एक बार एक छोटा बच्चा बोला- पापा, सपोर्ट हटा दो, साइकिल तेज चलेगी। जवाब मिला- गिर जायेगा और हाड़-गोड्डे चूर हो जायेंगे। सच तो यह है कि हम अपनी संततियों को सारी उम्र सपोर्ट सिस्टम पर ही रखना चाहते हैं। और तो और अपने मरने के बाद भी ऐसा सिस्टम रचकर जाना चाहते हैं कि हमारी संतानों को हमारे नाम और धन-दौलत की सपोर्ट मिलती ही रहे।
हमारी एक-दूसरे पर निर्भरता को विज्ञान खत्म करता जा रहा है। दरअसल तो अब हमें विज्ञान के अलावा और किसी की जरूरत ही नहीं रही। और न ही हम किसी से कोई मदद लेना चाहते हैं। रास्ता बताने के लिये भी अब हमें किसी से पूछना नहीं पड़ता। खाने के लिये जमेटो हाजिर है, कपड़ों-जूतों के लिये अमेजोन हाजिर है। बस कमाना सीखना है। कमाई करते हुये इज्जत अर्जित करने के ख्याल भी धीरे-धीरे नदारद हो रहे हैं।
एक ग्रुप में संदेश मिला—
छम-छम करती चांदनी है, टिम-टिम करते तारे
कोई संदेश नहीं भेज रहा, क्या गेहूं काट रहे सारे?
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एक बर की बात है अक नत्थू भगवान जी के दरबार मैं ग्या अर जाकै बोल्या—प्रभु जी न्यूं बताओ अक थम के-के देंवै हो? रामजी का जवाब था—जो भी थम चाहो, सब किमें। नत्थू चहकता सा बोल्या—मैं खुशी अर सफलता लेण खात्तर आड़ै आया हूं। भगवान जी बोल्ले—भाई! मैं तो बीज दिया करूं, फल नहीं।