शारा
मदर इंडिया फिल्म को मैं सभी फिल्मों की प्रतिनिधि रचना कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में ग्राम्य जीवन के दर्शन होते हैं। उसी तरह यह फिल्म भारतीय समाज की दुख-तकलीफें और उन्हीं दुख-तकलीफों में जिजीविषा के लिए जद्दोजहद करता ग्राम्य जीवन विकासशील समाज का हिस्सा बनने के लिए किन चुनौतियों से दो-चार होता है—यह फिल्म देखने के बाद ही पता चलता है। वैसे फ्लैशबैक के पाठकों ने तो यह फिल्म देखी ही होगी। मदर इंडिया महबूब खान की फिल्म थी। वह ऐसी फिल्म बनाने की लंबे समय से सोच रहे थे। 25 अक्तूबर, 1957 को रिलीज यह फिल्म महबूब खान की फिल्म ‘औरत’ पर आधारित थी जिसे वह अमरकृति बनाना चाहते थे। ऐसी कृति, जिसके किरदार कालजयी और एक समाज विशेष का प्रतिनिधित्व करें। उनका यह सपना ‘मदर इंडिया’ बनाकर साकार हुआ। नरगिस, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, कन्हैया लाल और राजकुमार उस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जो ताजा-ताजा हासिल आजादी में गुलामी की जिंदगी बिता रहे थे। ‘एनिमल फार्म’ उपन्यास के गधे की तरह जिनकी सारी ख्वाहिशें, सारी हसरतें यहां तक कि जीवट भी उस बनिए के पास गिरवी पड़ी हैं, जिन्हें छुड़ाने के लिए पुश्तें दर पुश्तें मेहनत करती हैं। फिल्म शुरू भी यहीं से होती है कि बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए सरकार द्वारा बनाई गई जिस नहर का राधा (वयोवृद्ध नरगिस) उद्घाटन करती है उसके जेहन में अपने जीवन की रील-दर-रील शुरू होती है। उसकी शादी राजकुमार से हुई थी। किशोरी से युवती बनी फिर बुढ़ापा आने तक उसे किन परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ा, जिसमें उसके जवान बेटे व सास की मौत हो चुकी है। पति बनिए के कर्ज से आजिज आकर दायित्व निर्वहन में स्वयं को असहाय जान घर छोड़ देता है। एक अन्य छोटे बच्चे की भी मृत्यु हो जाती है। यह है आजादी का प्रतिफल जो नेताओं को तो मिला, लेकिन आमजन आजादी के स्वाद को तरसता रहा। यह फिल्म महबूब प्रोडक्शन में बनी थी जिसे कलमबद्ध किया था वजाहत मिर्जा व एस. अली रजा ने और सहयोग दिया था स्वयं महबूब खान ने। क्योंकि यह फिल्म उनका सपना थी। उनके दिमाग में सपना तभी से हावी था जब से उन्होंने कैथरीन मायो का 1927 में लिखा उपन्यास ‘मदर इंडिया’ पढ़ा था। यह उपन्यास भारतीय संस्कृति पर प्रहार था। इसमें कैथरीन ने हिंदू मिथकों पर नारी को लेकर काफी उल्टी-सीधी बातें भी कहीं हैं, जिसके जवाब में महबूब खान ने मदर इंडिया फिल्म बनाई, जिसमें नरगिस को उन्होंने महिला सशक्तीकरण का रूपक बताया। हालांकि कुछ समीक्षकों ने इस फिल्म को स्टीरियो टाइप कहा था, लेकिन वह सागर में बूंद माफिक था। कैथरीन मायो ने अपनी पुस्तक में भारतीयों की आजादी की मांग को इस आधार पर खारिज किया था कि भारतीय समाज में औरतों को दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है। इसीलिए भारतीय समाज की पुस्तकों में रेप होमोसेक्सुअलटी तथा वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने जैसी बीमारियां पैदा होती हैं। इस किताब की महात्मा गांधी ने भी निंदा की तथा कई जगह इसी किताब को आग भी लगा दी गयी। फिर भी फिल्म की राह आसान नहीं थी। फिल्म बनाने से पूर्व देश के सूचना एवं विदेश मंत्रालय को इसकी मूल कृति दिखायी गयी। महबूब खान अमेरिकी लेखक पर्ल एस. बक की किताब ‘गुड अर्थ’ से भी प्रभावित थे।
मदर इंडिया अभी तक हर साल बॉक्स ऑफिस हिट ही रही। यह एक साथ कई जगह रिलीज हुई वह भी फिल्म हॉलों की जगह हाईप्रोफाइल लोगों में। 1957 में ही इसे राष्ट्रपति भवन में रिलीज किया गया। इस फिल्म ने उस समय ही 80 मिलियन की विशुद्ध कमाई की थी, जबकि इसके बनने पर खर्च आया था 8 मिलियन जो कि उस वक्त के लिहाज से बहुत बड़ा था। इसकी अधिकांश शूटिंग, महबूब स्टूडियो तथा उत्तर प्रदेश के कई गांवों में हुई थी। तब पहली बार इसके संगीत निर्देशक नौशाद ने हिंदी सिनेमा के लिए पाश्चात्य संगीत इस्तेमाल किया था। हिंदी फिल्मों में आर्केस्ट्रा का चयन पहली बार इसी फिल्म से शुरू हुआ था। महबूब खान ने इससे पूर्व नौशाद के साथ आठ फिल्मों में काम किया था। इसीलिए उनकी नौशाद से खूब पटती थी। सारे गीत शकील ने लिखे थे और जिन्हें गाया था मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर, शमशाद बेगम तथा मन्ना डे ने। संगीत इतना उच्च कोटि का था कि इसने 100 उन गीतों के बीच में लोकप्रियता की जगह बनाई जो अभी तक गाए जाते हैं। याद कीजिए वह गीत जो राधा (नरगिस) ने बिरजू को घर लौटने के लिए गाया था। ‘होली आई रे कन्हाई’ जो शमशाद बेगम ने गाया था। इस गाने पर सितारा देवी का डांस विशुद्ध भारतीयता का कैसा प्रतीक था? उन्हीं के ही द्वारा गाया गीत ‘ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे-धीरे खींच रे’ को फिल्माने के लिए 200 बैल गाड़ियों, 100 ट्रैक्टरों और 200 लोगों की व्यवस्था की थी। एक किसान की कई एकड़ उपजाऊ जमीन को बैल गाड़ियों के लिए बंजर किया गया था। बताया जाता है इसके लिए उस किसान ने महबूब खान से पैसे नहीं लिए थे। राधा के रोल में महबूब खान ने नरगिस का ही चयन किया था। हालांकि उनकी उम्र तब महज 26 वर्ष की थी। लेकिन वह महबूब खान निर्देशित तकदीर (1943), हुमायूं (1945), अंदाज (1949) में काम कर चुकी थी, लेकिन सबसे धांसू रोल उनका मदर इंडिया में ही था जो फिल्मों से संन्यास तथा शादी के बाद रिलीज हुई क्योंकि फिल्म की शूटिंग के दौरान लगी एक आग में नरगिस सचमुच आग की लपटों में घिर गई थीं जिन्हें फिल्म में उनके पुत्र बने बिरजू अथवा रीयल लाइफ में उनके पति बने सुनील दत्त ने बचाया था। इस दुर्घटना के बाद दोनों में प्यार हुआ लेकिन शादी उन्होंने फिल्म की रिलीज के बाद ही की थी क्योंकि इससे फिल्म पर गलत प्रभाव पड़ने की आशंका थी। इसी आशंका के डर से बिरजू का रोल जो पहले दिलीप कुमार को दिया जाने वाला था, नहीं दिया गया और भारतीय मूल के साबू दस्तागीर को इस रोल के लिए चुना गया था। साबू तब हॉलीवुड फिल्मों का जाना माना नाम था। वह लास एंजेलिस से मुंबई के होटल में तीन दिन रुके रहे, लेकिन शूटिंग में होती देरी की वजह से तथा हॉलीवुड फिल्मों में तारीखों की एडजस्टमेंट के कारण साबू दस्तागीर को अपनी रिटेनरशिप बीच में ही छोड़ कर जाना पड़ा। उसके बाद इस रोल के लिए दिलीप कुमार की दिलचस्पी थी, लेकिन उन्हें इस आधार पर रिजेक्ट कर दिया था कि बहुत सी फिल्मों में नरगिस दिलीप कुमार की हीरोइन बनी थीं। तब सुनील दत्त के पास एक ही फिल्म थी। तब कॉमेडी कलाकार मुकरी ने उन्हें साजिद खान से परिचित कराया जो कि फिल्म में बिरजू के बचपन का रोल निभा रहे थे और बाम्बे की झुग्गी झोपड़ी में रहते थे और उस समय पूरे रोल के लिए उन्हें 750 रुपये दिए गए थे, सुनील दत्त को महबूब खान के पास ले गए थे। इस तरह बिरजू का रोल उन्हें मिला जो कि सुनील दत्त के जीवन का टर्निंग प्वाइंट सिद्ध दुआ। फिल्म में फाइनल शूटिंग से पूर्व बाकायदा शामू (राजकुमार) और राधा (नरगिस) ने सचमुच ही मुंबई के एक गांव में हल चलाने तथा कपास बीनने की ट्रेनिंग ली थी। इसी शूटिंग स्थल पर उन्होंने स्थानीय कलाकारों से लोकनृत्य के स्टेप सीखे थे। जब 1955 में लगभग आधे उत्तर प्रदेश में बाढ़ का पानी भर गया था तो सिनेमैटोग्राफर फरेदूं ईरानी इस समय इसी बाढ़ का सीन खींचने के लिए उत्तर प्रदेश गए। आग की लपटों का सीन गुजरात के उमरा गांव में शूट किया गया था। फिल्म का थीम हिंदू मिथकों से प्रभावित था। समाज की धुरी बनी औरत प्रेयसी के रूप में राधा है। पति के प्रति प्रतिबद्ध नारी द्रोपदी है। उच्च आदर्श नारी सीता है। दायित्वों का वहन करने वाली लक्ष्मी है। लेकिन कन्हैया लाल की ज्यादतियों का जवाब देने वाली काली बनी दुर्गा है। ये सारे रूप अकेली राधा (नरगिस) में समाहित किए गए थे। यह फिल्म 15 अगस्त, 1957 को भारत की आजादी की दसवीं वर्षगांठ को रिलीज की जानी थी, लेकिन इसे पोस्ट प्रोडक्शन कराने से दो माह बाद रिलीज किया गया। सबसे पहले इसे राष्ट्रपति भवन में 23 अक्तूबर, 1957 को दिखाया गया और दर्शकों में शामिल थे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उनकी पुत्री इंदिरा गांधी आदि। बाम्बे स्टेट के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने अपने राज्य में इसे कर-मुक्त किया था। फिल्म ने अब तक सिनेमा हालों के जरिए कुल 100 मिलियन की कमाई जुटा ली जो कि अब तक की सबसे ज्यादा कमाई है। इससे उत्साहित होकर महबूब खान ने ‘सन ऑफ इंडिया’ फिल्म भी बनाई परंतु वह फ्लाप रही। इस फिल्म के प्रोडक्शन की इतनी कहानियां हैं कि फ्लैशबैक में समा नहीं पाएगी। नरगिस का हल चलाना और बैलों की जगह अपने दोनों बेटों को जोतना भी एक कहानी है। इसे कई पुरस्कार तो मिले ही, कई महत्वपूर्ण श्रेणियों में इसका नामांकन भी हुआ।
निर्माण टीम
निर्देशक, प्रोड्यूसर : महबूब खान
पटकथा : महबूत खान, वजाहत मिर्जा, एस. अली रजा
मूलकथा : महबूब खान की फिल्म ‘औरत’
सिनेमैटोग्राफी : फरेदूं ए. ईरानी
गीत : शकील बदायूंनी
संगीत : नौशाद
सितारे : नरगिस, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, कन्हैया लाल
गीत
चुन्दरिया कटती जाये : मन्ना डे
नगरी नगरी द्वारे द्वारे : लता
दुनिया में हम आये हैं : लता मंगेशकर, मीना मंगेशकर, उषा मंगेशकर
ओ गाड़ी वाले : शमशाद बेगम, मोहम्मद रफ़ी
मतवाला जिया डोले पिया : लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी
दुःख भरे दिन बीते रे : शमशाद बेगम, मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, आशा भोसले
होली आई रे कन्हाई : शमशाद बेगम
पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली : शमशाद बेगम
घूंघट नहीं खोलूंगी सैयां : लता
ओ मेरे लाल आजा : लता
ओ जाने वालो जाओ ना : लता
ना मैं भगवन हूं : मोहम्मद रफ़ी