कामले हबीबी महरी
मुझे अच्छी तरह याद है। साल भर पहले मैं आज के ही दिन दुर्घटना का शिकार हुई थी। टूटी हड्डियों को लेकर मैं बेटे को देख रही थी जो खून से लथपथ सामने पड़ा था। उसके गर्म खून में डूबे हाथों से कभी मैं सर पीट रही थी, कभी छाती, फिर पागलों की तरह गर्म खून को सर और चेहरे पर मलती मदद… मदद पुकार रही थी।
अचानक महसूस हुआ मेरे गले में मेरी आवाज़ अटक गई। सूरज की रोशनी ग़ायब हो गई और दुनिया के सारे चश्मे सूख गए और फिर मुझे कुछ याद नहीं रहा। जब होश में आई तो मेरी गोद उजड़ चुकी थी। मैं बात नहीं कर सकती थी। कई जगह प्लास्टर चढ़ा था, जिसकी वजह से दूसरे बच्चों का ध्यान नहीं रख पा रही थी।
शौहर का बर्ताव हमदर्दी से भरा था। मेरा इलाज कराया, घर संभाला और प्यार से मुझे उम्मीद दिलाई, मैं भी क्या करती, जिंदगी से समझौता कर लिया। इशारे से जितना कह सकती थी, बात करती थी। जो भी कोशिश थी, वह सब डॉक्टर के एक वाक्य पर समाप्त होती कि अब कोई चमत्कार ही इनकी आवाज़ को दोबारा ला सकता है।
वह बहार की सुबह थी। बारिश बूंद-बूंद टपक रही थी। शौहर काम पर गए थे। मैं घर के काम में व्यस्त थी कि बाबा एकाएक आ गए और घर चलने को कहने लगे। मैंने उनसे इनकार करते हुए कहा कि मैं नहीं जा सकती, क्योंकि इनसे इजाज़त नहीं ली है, मगर वह इसरार करते रहे। मजबूरन तय हुआ कि हम पहले शौहर के ऑफ़िस चलें। उनको इत्तला देकर बाबा के घर चली जाऊंगी।
जब हम शौहर के ऑफ़िस पहुंचे तो वहां चपरासी सो रहा था। इनकी इत्तला देने वाला कोई नहीं था। हम कुछ देर वहां बैठ गए। मगर शौहर का कहीं पता न था। जो लोग दूसरे कमरों में थे, हमारी तरफ़ कोई ध्यान नहीं दे रहे थे। आपस में खा-पी रहे थे। शोर कर रहे थे। बाबा भी ख़ामोश रहे। इंतज़ार के अलावा चारा भी क्या था। एक हमारी तरफ़ देखकर बोला, ‘सारी जिंदगी जवानी में बर्बाद हो गई, आख़िर कहां तक आदमी सहन करे, फिर पानी पीकर बोला, ‘पिछले साल बेटा मोटर से टकराकर मर गया। बीवी अलग मर गई।’ यह सुनकर मैं चौंकी कि मैं तो जिंदा हूं?
‘क्या करें? पांच बच्चों की अकेले परवरिश करना ख़ासकर उनकी, जिनकी मां उन्हें छोड़ गई हो, आसान नहीं। औरत भी ग़जब की लड़ाका थी। पड़ोसियों को बीच में पड़ना पड़ता था। कहां तक सहता भला? चार माह हुए। उसने मंगनी एक जवान लड़की से कर ली है जो विदेश से डिग्री लेकर आई है। अब कल रात उसकी शादी है।’
मैं अब सह नहीं पाई और खड़ी हुई, मेरे साथ मेरे बाबा भी उठ गए। चलते हुए उन्होंने कमरे की तरफ़ मुंह कर पूछा, ‘आख़िर शरीफ़ कब लौटेंगे?’
इतना सुनकर सब हंसने लगे। ‘हम एक घंटे से उसी शरीफ़ के बारे में बात कर रहे हैं और तुम पूछ रहे हो कब आएगा?’
मेरा गला भर आया। ग़म और गुस्से का तूफ़ान ज़बान से निकलने को बेचैन था। मैं घुटकर रह गई। आंसू उबल पड़े। मैंने दरवाज़ा खोला जाने के लिए तो शौहर को सामने खड़ा पाया। मैंने उनका कालर अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया और जो ज़बान से नहीं कह सकती थी, वह आंखों से कहने लगी। वह सारी नफ़रत उसके चेहरे पर उड़ेल दी। उसने अपना कालर छुड़ाते हुए उदासी से कहा, ‘नहीं चाहता, हरगिज़ ऐसा नहीं करना चाहता था, मगर क्या करूं, तुम जैसी औरत के साथ ज़िंदगी गुज़ारना मुश्किल है, जो न बोल सकती है, न…’
मैंने बेयक़ीनी से देखा। दिल टुकड़े हुआ। अपमान से खून रगों में दौड़ने लगा। बेबसी ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया। तूफ़ान को संभालना मुश्किल था। लग रहा था सर फट जाएगा। मैं तेज़ी से आगे बढ़ी और पूरी ताकत से चीख़ी… बाबा! इसके बाद मुझे कुछ याद नहीं रहा।
उस हादसे को गुज़रे कई माह गुज़र गए हैं। मेरी आवाज़ मुझे वापस मिल गई है। यह तो मेरे शौहर, बाबा और ऑफ़िस वालों का सहयोग था, जिन्होंने डॉक्टर की बात सुनकर यह तय किया था कि एक आख़िरी कोशिश आवाज़ की वापसी के लिए कर लेनी चाहिए और उस गहरे सदमे ने मेरे हलक में फंसी आवाज़ को आज़ाद कर दिया।
मेरे शौहर पहले से ज़्यादा मेहरबान और प्यार करने वाले साबित हुए।
औरत की पुतली से दुनिया
यहां अफ़ग़ानिस्तान की उभरती लेखिका की एक छोटी कहानी दी जा रही है। ये कहानी ‘जामे शीरीन’ अफ़ग़ानिस्तान की पत्रिका ‘ज़नाने अफ़ग़ानिस्तान’ (अफ़ग़ानिस्तान औरतें) नामक पत्रिका में 1983 में छपी थी। इस पत्रिका की संपादिका ‘लैला कावियान’ थीं। अफ़ग़ानिस्तान में सबसे बड़ी परेशानी पुस्तक के प्रकाशन की थी। इसलिए अधिकतर ध्यान सृजनकर्ताओं का शे’रो-शायरी की तरफ़ रहा। अफ़ग़ानिस्तान में साम्यवादी सरकार के दौर में छपने की सहूलियतें बढ़ीं और पत्रिकाएं शुरू हुईं।
पाठकों को इस लघु कथा से अफ़ग़ानिस्तान के जीवन का अंदाज़ा लग सकेगा।
अनुवाद : नासिरा शर्मा