सुषमा जुगरान ध्यानी
‘माता शत्रुः पिता बैरी येन बालो न पाठिताः
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बकोयथा’
अर्थात वह माता-पिता अपने बच्चे के शत्रु हैं जो उसे शिक्षित नहीं करते हैं क्योंकि अशिक्षित मनुष्य सभ्य और विद्वानों की सभा के बीच उसी तरह सुशोभित नहीं होता है जिस तरह हंसों के समूह में बगुला। संस्कृत के इस सुभाषित का भावार्थ यही है कि किसी भी सभ्य और सुसंस्कृत समाज के निर्माण के लिए मनुष्य का शिक्षित होना अनिवार्य शर्त है और बच्चे को शिक्षित करने का पहला दायित्व उसके माता-पिता का है।
विराट विचार
शिक्षा के संदर्भ में सबसे पहले यह समझ लेना जरूरी है कि शिक्षा एक विराट विचार और भाव है। इसका फलक बहुत व्यापक है। स्कूलों में दी जाने वाली औपचारिक शिक्षा या अक्षर ज्ञान शिक्षा के उस विराट विचार या भाव का एक महत्वपूर्ण बिंदु मात्र है। निःसंदेह समाज और राष्ट्र के विकास में औपचारिक शिक्षा का महत्व सर्वोपरि है क्योंकि अधिकाधिक लोग विविध क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद ही देश-समाज को प्रगति की राह पर आगे बढ़ाने का माध्यम बनते हैं लेकिन इसके साथ-साथ व्यावहारिक और नैतिक शिक्षा के महत्व को भी किसी कीमत पर कम करके नहीं आंका जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसे समाज का निर्माण करती जाती है। विषय विशेष की औपचारिक शिक्षा भी तभी सार्थक मानी जाती है जब समाज के नैतिक मूल्यों में भी बराबर बढ़ोतरी होती रहे। नैतिक मूल्यों के क्षरण के मौजूदा समय में इस पर विचार करना और भी जरूरी हो जाता है।
शिक्षित होना साक्षरता ही नहीं
यहां शिक्षित और साक्षर होने के बीच की विभाजक रेखा काे समझना भी बहुत जरूरी है। शिक्षित होने का मापदंड साक्षर होना कतई नहीं है। कोई निरक्षर व्यक्ति भी घर-परिवार और समाज को शिक्षा देने वाला महत्वपूर्ण स्तंभ हो सकता है जबकि कई बार औपचारिक शिक्षा पाया हुआ कोई साक्षर व्यक्ति घर-परिवार और समाज के पतन का बड़ा कारक बन जाता है। समाज में सदियों से ऐसे अनेक उदाहरण मिलते रहे हैं जहां औपचारिक शिक्षा पाये हुए अनेक विशेषज्ञ साक्षरों ने समाज सेवा का दायित्व निभाने के बजाय व्यक्तिगत स्वार्थों के निमित्त उसे पीछे धकेलने में किसी तरह की ग्लानि, झिझक महसूस नहीं की जबकि अनेकानेक निरक्षर लोगों ने समाज से सामने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जो युग-युगांतर तक नैतिक शिक्षा के संवाहक बन देश समाज को राह दिखाने का दायित्व निभाते चले गये।
समाज में विरोधाभास
शिक्षित और साक्षर होने का यह अंतर शुरू में लिखे गये संस्कृत के सुभाषित में साफ देखा जा सकता है जहां बच्चे को शिक्षित करने का दायित्व हर माता-पिता का बताया गया है लेकिन जरूरी नहीं कि हर माता-पिता साक्षर हो। मेहनत-मजदूरी करने वाले निरक्षर माता-पिता भी अपने बच्चे को एक अच्छा इंसान बनने की शिक्षा देते हुए उसकी योग्यता के हिसाब से स्कूली शिक्षा दिलाकर उसे आदर्श नागरिक के रूप समाज को सौंप सकते हैं जबकि उच्च औपचारिक शिक्षा प्राप्त कोई अहंकारी व्यक्ति अपने बच्चे को नैतिक और व्यावहारिक शिक्षा के प्रति लापरवाह रखते हुए केवल व्यावसायिक शिक्षा के प्रति प्रेरित कर एक स्वार्थी मनुष्य के रूप में समाज का हिस्सा बना जाता है।
आदर्श नागरिक बनाना प्रथम कर्तव्य
आज बच्चों की औपचारिक शिक्षा के प्रति घर परिवार से लेकर सरकार तक हर कोई बहुत जागरूक है। गरीब से गरीब माता-पिता भी अपनी जरूरतें कम कर बच्चों को स्कूली शिक्षा देना जरूरी समझते हैं और आजादी के बाद से ही तमाम सरकारें भी समाज को शिक्षित करने के लिए सजग हैं, जिसके सुपरिणाम भी मिलते रहे हैं लेकिन उपभोक्तावादी दौर में आज नैतिक मूल्यों का जो क्षरण हो रहा है, उसे देखते हुए बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने का भी बड़ा दायित्व घर-परिवार और देश-समाज का हो जाता है। सच पूछें तो शिक्षा का पहला दायित्व व्यक्ति को एक आदर्श नागरिक बनाना ही है। शिक्षित और साक्षर होने का अंतर समझते हुए घर-परिवार से लेकर देश-समाज तक हर माता-पिता और सरकार का दायित्व है कि समाज में हर व्यक्ति शिक्षित हो और समय की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए हर बच्चा स्कूली शिक्षा के लिए भी प्रेरित होता रहे।