भारतीय जीवन दर्शन में मनु्ष्य के मोक्ष को लेकर विशद् वर्णन मिलता है जिसे व्यापक श्रद्धा व कर्मकांड से अंतिम रूप देने पर बल दिया जाता है। इन मुद्दों को लेकर व्यक्ति बेहद संवेदनशील होता है। अमीर हो या गरीब, सबकी कोशिश होती है कि उसके अपने की अंतिम विदाई गरिमामय व पूरे रीति-रिवाज के अनुरूप हो। भारतीय चिंतन मनुष्य के पंचतत्व में विलीन होने की बात करता है। इसके चलते निर्जीव देह को अग्नि देने की परंपरा रही है। वक्त बदला है, देश की आबादी दुनिया मेंे शिखर पर है। वन संपदा का दायरा सिमटा है। कोरोना काल की विभीषिका व शव की बेकद्री ने भी अंतिम संस्कार के तौर-तरीकों को लेकर हर संवेदनशील व्यक्ति का ध्यान खींचा। खुले स्थानों पर जलते सैकड़ों शवों ने विचलित किया। विचलित उन सैकड़ों शवों ने भी किया जो जलाने की लकड़ी उपलब्ध न करा पाने के कारण गंगा आदि नदियों में बहा दिये गये और बनारस व प्रयागराज में गंगा के किनारे दबा दिये। खुले स्थलों में जलते व दफनाए गये शव भारतीय व विदेशी मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित होते रहे। हाल ही में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण यानी एनजीटी ने गाजियाबाद की एक कालोनी के निकट संचालित श्मशान घाट में दाह संस्कार के दौरान उठने वाले धुएं व धूल के उत्सर्जन से होने वाले प्रदूषण के बाबत दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को अंतिम संस्कार के लिये पर्यावरण अनुकूल तरीके अपनाने पर बल दिया। साथ ही वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने हेतु लकड़ी के साथ-साथ बिजली व प्राकृतिक गैस यानी पीएनजी का विकल्प अपनाने की सलाह दी है। एनजीटी अध्यक्ष न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस दिशा में प्रगतिशील सोच अपनाने के लिये लोगों को जागरूक करने पर बल दिया। हालांकि देश का बड़ा वर्ग इस पर तर्क करने से बचता है और इसकी संवेदनशीलता से इतर नहीं सोचता।
दरअसल, न्यायाधिकरण भी स्वीकारता है कि सनातन धार्मिक मान्यता के अनुसार आग से दाह संस्कार की पद्धति को पवित्र माना जाता है। लेकिन रोज सैकड़ों कुंतल लकड़ी खुले में जलाने के चलते उपचारात्मक उपायों पर बल दिया जा रहा है। एक संवेदनशील विषय होने के कारण लोगों को जागरूक करने व पर्यावरण अनुकूल तरीका अपनाने के लिये प्रेरित करना चाहिए।। निस्संदेह कोरोना संकट ने हमें मोक्षस्थलों में व्यापक सुधारों की आवश्यकता का अहसास कराया। बढ़ती आबादी के चलते भी इन मोक्ष स्थलों को अपग्रेड करने और आधुनिक बनाये जाने की मांग हो रही है। लोग आबादी के नजदीक श्मशान घाट बनाये जाने का विरोध करते रहे हैं। शव दहन से होने वाला धुंआ आबादी वाले इलाकों में परेशानी का सबब बनता है। भूमाफियाओं द्वारा भूमि पर अवैध कब्जे भी एक बड़ी समस्या रही है। निस्संदेह, यहां आने वाले हर अमीर व गरीब मृतक के परिजन बेहद दुखी होते हैं। जरूरी है कि वैकल्पिक शवदाह प्रक्रिया के लिये बिजली आपूर्ति निर्बाध और एलपीजी की सुचारु व्यवस्था हो। लावारिस शवों के अंतिम संस्कार की भी व्यवस्था होनी चाहिए। प्रबंध समितियों का कहना है कि विद्युत शवदाह गृहों में बिजली का बिल भारी भरकम आता है। दान-चंदे से चलने वाली संस्थाओं को व्यावसायिक मूल्य पर बिजली दी जा रही है। जबकि समितियां समाज के कल्याण के लिये काम कर रही हैं। महंगी बिजली की दर के कारण प्रबंधन समितियां नये विद्युत शवदाह गृह नहीं बनवा पा रही हैं। श्मशान प्रबंधन समितियों के अन्य विकल्प एलपीजी या सीएनजी आधारित शवदाह गृह हैं। यदि समय रहते सरकार कोई नीतिगत फैसला नहीं करती तो आने वाले दिनों में स्थिति विकट हो सकती है। एक एलपीजी शवदाह प्लांट में एक साथ रसोई गैस के बीस सिलेंडर लगते हैं। जिसमें एक देह पर दो सिलेंडर लगते हैं। ये सिलेंडर भी कामर्शियल रेट पर मिलते हैं। सरकारों को सोलर पैनल से चलने वाले शवदाह गृहों के विकल्प पर भी विचार करना चाहिए। आने वाले समय में बढ़ती आबादी के दबाव व हर साल इस पर पचास से साठ मिलियन पेड़ों की लकड़ी लगने के मद्देनजर सरकार को इस जरूरी समस्या के निदान के लिये गंभीरता से विचार करना चाहिए।