देविंदर शर्मा
जब से कोविड की पहली लहर ने मुल्कों को लॉकडाउन करने को ढकेला है, केंद्रीय बैंकों ने, खासकर अमीर देशों के, कुल मिलाकर 9 ट्रिलियन डालर की अतिरिक्त करंसी छापी है। इनके पीछे मुख्य मंतव्य वैश्विक महामारी से ग्रस्त सांसें लेने को मजबूर हुई आर्थिकी को संबल देना है। फाइनेंशियल टाइम्स के 16 मई के अंक में मार्गन स्टेनली इंवेस्टमेंट मैनेजमेंट की मुख्य वैश्विक नीतिकार रुचिर शर्मा के अनुसार मौजूदा महामारी के दौरान दिए गए आर्थिक प्रोत्साहनों ने उलटे बड़े अमीरों को और ज्यादा अमीर किया है क्योंकि अधिकतर धन वित्तीय मंडियों में जाता है, जहां से यह अत्यंत धनाढ्य वर्ग के खजाने में पहुंच जाता है। अनुमान है कि इस अवधि में विश्व के चोटी के अमीरों की कुल धन-दौलत में 5 से 13000 करोड़ डॉलर के बीच इजाफा हुआ है। कोई हैरानी नहीं कि आज शेयर बाजार पैसे से पटे पड़े हैं, जबकि अधिकांश देश अपनी आर्थिकी को मंदी से बाहर निकालने को संघर्ष कर रहे हैं। पीड़ादायक विद्रूपता यह कि महामारी के चलते विश्वभऱ में लगभग 14.4 करोड़ और लोग गरीबी रेखा से नीचे धंस गए हैं। गरीबी पर विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़े बताते हैं कि 8.5 करोड़ के इजाफे के साथ भारत अब नाइजीरिया को पीछे छोड़कर विश्वभर में अत्यंत गरीबों की सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है। पहले ये लोग गरीबी रेखा के आसपास रहने के बावजूद किसी न किसी तरह अपना गुजर-बसर किए हुए थे। लेकिन कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद, जो और भी ज्यादा घातक है, इस संख्या में और तेजी से बढ़ोतरी होगी।
शायद हमें यह अहसास नहीं है कि विश्वभर में गरीबी रेखा से नीचे लोगों को उबारने में महज 100 अरब डॉलर की जरूरत है, जो महामारी के लिए जारी किए गए कुल वैश्विक आर्थिक प्रोत्साहन का अंश मात्र ही है, जबकि आर्थिकी को संबल देने के नाम पर दिया गया अधिकांश धन गरीबों के काम आने की बजाय खरबपतियों का खजाना भरने में ज्यादा सहायक हुआ है। यह पहली बार नहीं है कि हैरान करने वाली इतनी मात्रा में दिया गया अतिरिक्त धन अप्रत्यक्ष रूप से शीर्ष अमीरों की तिजोरी तक जा पहुंचा हो। इस हेतु पिछले कई सालों से संपन्न देशों के केंद्रीय बैंक अतिरिक्त करंसी छाप रहे हैं। लेकिन जो बात आज तक हमें समझाई नहीं गई कि अमीरों को देने के लिए तो सरकारों के पास तमाम पैसा और तरीका होता है, लेकिन गरीबी से लड़ने को दुनिया के पास यथेष्ठ धन कभी नहीं हुआ। वैश्विक महामारी से निपटने में जितना धन कुल मिलाकर जारी किया गया है, यदि उसका अंशमात्र भी वहां पहुंच जाए, जहां इसकी जरूरत है, यानी गरीबी हटाने को, तो दुनिया रहने लायक कहीं बेहतर हो जाए।
इसी बीच वैश्विक महामारी ने आय असमानता में और ज्यादा अंतर बनाकर निंदनीय स्तर पर पहुंचा दिया है। अमेरिका में नीति अध्ययन संस्थान ने बताया है कि महामारी के दौरान खरबपतियों की संयुक्त धन-दौलत में 44.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। जबकि इस अवधि में 8 करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं। जो भी हो, अमेरिका के चोटी के 50 अमीरों के पास 16.5 करोड़ गरीबों के बराबर धन है। भारत में भी आय असमानता कम चौंकाने वाली नहीं है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे विभाग (2013) की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश की लगभग आधी आबादी खेती पर निर्भर है और एक किसान की औसत मासिक आय महज 6,424 रुपये है जो कि गैर कृषि व्यवसाय में होने वाली आमदनी से लगभग आधी है। यही वजह है कि किसान अपने उत्पाद का न्यूनतम मूल्य तय कराकर एक निश्चित आय को सुनिश्चित बनाने के लिए आंदोलनरत है।
ऑक्सफैम की ‘इन्क्युवैलिटी वायरस रिपोर्ट’ का खुलासा है कि महामारी के दौरान भारत के खरबपतियों की दौलत में 35 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। आसान भाषा में, चोटी के 11 खरबपतियों के पास आया यह धन मनरेगा के अंतर्गत होने वाले कामों का अगले 10 साल तक भुगतान कर सकता है। दूसरे शब्दों में, आबादी के शीर्ष 1 प्रतिशत भाग के पास निचले स्तर पर आने वाले 95.3 करोड़ लोगों के धन के बराबर है।
यह समझने के लिए कि आय में बढ़ोतरी किस प्रकार गरीब के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं तो वैश्विक प्राथमिक आय बनाने की व्यवहार्यता वाले प्रयोग को देखना होगा। कोविड महामारी से पहले, वर्ष 2018 में, कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने फाउंडेशन फॉर सोशल चेंज नामक परमार्थ संस्थान के साथ मिलकर वैंकूवर इलाके के 50 बेघर लोगों को 7000 डॉलर (6,206 अमेरिकी डॉलर) दिए। इस दौरान संस्थान के लोग निगरानी करते रहे कि वे इस पैसे का इस्तेमाल कैसे कर रहे हैं। परिणाम न केवल चौंकाने वाले अपितु उत्साहवर्धक भी रहे। बाकी जगहों पर भी किए गए इस प्रकार के अध्ययनों में, प्रत्येक में नतीजा कमोबेश मिलता-जुलता था।
गरीब को पैसे का इस्तेमाल सही ढंग से करना नहीं आता, इस आम धारणा के विपरीत परिणामों ने स्पष्ट बता दिया कि इन लोगों ने कितनी समझदारी से उपलब्ध सीमित आर्थिक मदद का उपयोग किया है। इस पैसे का उपयोग उन्होंने जरूरत की वस्तुएं जैसे कि भोजन, कपड़े, घर और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं पाने के लिए किया। समाचार पत्र की रिपोर्ट बताती है कि जहां इन गरीबों की भोजन जरूरतों में 37 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई वहीं नशे अथवा शराब पर 39 फीसदी की कटौती कर भरपाई की। इन बेघर लोगों ने अपने सिर पर छत का इंतजाम सबसे पहले चुना। इसलिए इस अध्ययन ने पक्के तौर पर यह सिद्ध कर दिया है कि दुनिया भर में गरीब के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की अहमियत क्या है और इसकी प्राप्ति को किस कदर संघर्ष करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, हाथ में इतना कम धन मुहैया करवाने पर भी यह राशि अत्यंत गरीबी की चंगुल से उबारने में मददगार है।
इसकी बजाय हम देखते हैं कि सरकारें विकास को गति देने के नाम पर कॉर्पोरेट जगत का मुनाफा बढ़ाने को कर रियायतें, आर्थिकी प्रोत्साहन पैकेज, कर्ज माफी, मदद और भारी भरकम सब्सिडी जैसी गलत नीतियों के माध्यम से पैसा खरबपतियों के खजाने में यह कहकर पहुंचा देती हैं कि काम-धंधे में इजाफा होने से यह अंततः गरीब और जरूरतमंदों के पास पहुंचेगा। जब बात गरीब को हिस्सा देने की आए तो यह तर्क दिया जाता है कि सीधा फालतू पैसा देने पर हर किसी के पास ज्यादा खरीदारी करने को धन हो जाएगा, जिससे मुद्रास्फीति में इजाफा होगा।
अतः आर्थिक विकास का मॉडल बहुत चतुराई से आय असमानता बढ़ाने के लिए तैयार किया गया है और यह अमीरों को और अमीर बनाने के लिए है, जबकि गरीबों से अपना गुजर-बसर खुद चलाने की उम्मीद की जाती है।
लेखक खाद्य एवं कृषि विशेषज्ञ हैं।