अभिषेक कुमार सिंह
शायर और गीतकार स्वर्गीय राहत इंदौरी के एक बेहद मशहूर शेर की चंद पंक्तियां हैं-
गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है/मैं आ गया हूं बता इंतज़ाम क्या-क्या हैं।
पिछले डेढ़ बरस से पूरी दुनिया को हलकान किए हुए कोरोना वायरस का हाल कुछ-कुछ ऐसा ही है। कोरोना संक्रमण के बारे में नयी जानकारी यह है कि हवा के जरिए उसके वायरस के फैलने की आशंका काफी ज्यादा है। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित एक अध्ययन में ऐसे दस कारण गिनाए गए, जिनकी वजह से कोरोना वायरस तेजी से फैलने लगता है। अध्ययन इस पर जोर देता है कि कोविड-19 का प्रसार (ट्रांसमिशन) किसी संक्रमित व्यक्ति की छींक या श्वास से निकलने वाले भारी कणों (ड्रॉपलेट्स) या बूंदों के बजाय एरोसोल यानी हवा के कणों के जरिए होना ज्यादा आसान है। इसकी पुष्टि क्वारंटीन सेंटर के रूप में इस्तेमाल में लाए जा रहे होटलों में एक-दूसरे से सटे कमरों में रह रहे लोगों के बीच कोरोना ट्रांसमिशन होने पर हुई। खास बात यह है कि संक्रमण की चपेट में आए लोग संक्रमित व्यक्ति के कमरे में गए ही नहीं थे।
इस अध्ययन में एक संक्रमित व्यक्ति को शामिल किया गया। वह सुपर स्प्रेडर साबित हुआ और उसने 53 लोगों को संक्रमित कर दिया। इनमें से कई लोग तो आपस में संपर्क में भी नहीं आए थे। ऐसे में माना जा रहा है कि यह हवा में मौजूद कोरोना वायरस से संक्रमित हुए। लैंसेट का यह निष्कर्ष असल में एक समीक्षा रिपोर्ट पर आधारित है, जिसे ब्रिटेन, अमेरिका व कनाडा के वैज्ञानिकों ने तैयार की है। समीक्षा रिपोर्ट की मुख्य लेखिका ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की त्रिश ग्रीनहाल हैं। ग्रीनहाल के मुताबिक कोरोना वायरस के हवा में फैलने की इस सूचना का सीधा अभिप्राय यह है कि अभी तक दुनिया मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे जिन उपायों के बल पर खुद को कोरोना से महफूज मान रही थी, वे उपाय हवा में कोरोना के संक्रमण की खबर के साथ बौने हो गए हैं। हालांकि हवा से वायरस फैलने का मतलब यह नहीं है कि हवा संक्रमित है। बल्कि इसका अर्थ है कि वायरस हवा में काफी समय तक मौजूद रह सकता है। खास तौर से बंद कमरों और इमारतों के अंदर ज्यादा खतरा पैदा कर सकता है। ऐसे में अस्पताल की इमारतें ज्यादा संक्रामक साबित हो सकती हैं, क्योंकि वहां यदि कोई ऐसा व्यक्ति आया जो इस संक्रमण की चपेट में है, तो वह अकेले ही दर्जनों या सैकड़ों लोगों को कोरोना का संक्रमण दे सकता है। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से कोरोना वायरस के संक्रमण की उस परिभाषा को बदलने की मांग की जा रही है, जो उसने पिछले साल जारी की थी।
खतरे का एरोसोल
संक्रामक बीमारी को फैलाने वाला एरोसोल तब बनता है, जब छींक या खांसी के जरिए श्वसन तंत्र से निकली छोटी-छोटी बूंदें थोड़ी देर के लिए हवा में तैरने लगती हैं। हालांकि अभी तक माना जाता था कि ये छोटी-छोटी बूंदें हवा के साथ यात्रा नहीं कर सकतीं और जल्दी ही खत्म हो जाती हैं। लेकिन अब मिले सबूतों के आधार पर अध्ययन कह रहे हैं कि कोरोना के मामले में ऐसा हो रहा है जो बेहद गंभीर बात है। कोरोना वायरस हवा में फैलता है, इसे लेकर 32 देशों के 200 वैज्ञानिकों ने पिछले साल जुलाई में भी डब्ल्यूएचओ को पत्र लिखा था। उन्होंने यह भी कहा था कि छोटे-छोटे ड्रापलेट्स (बूंदें) भी किसी को संक्रमित कर सकते हैं। लेकिन तब डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि वायरस के इन्फ्लूएंजा या खसरे की तरह हवा में फैलने में सक्षम होने के लायक पर्याप्त सबूत नहीं हैं। संगठन के मुताबिक हवा के जरिए फैलने वाली संक्रामक बूंदें बेहद नजदीकी और एक निश्चित दायरे के अंदर मौजूद लोगों को ही संक्रमित कर सकती हैं। पर इस बार 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों ने नए अध्ययनों से मिले सबूतों को रेखांकित किया है कि वायरस को ले जाने वाले हवा में तैरते छोटे कण भी लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। ये संक्रामक बूंदें और कण हवा में मौजूद रह सकते हैं और सांस के जरिए स्वस्थ व्यक्ति को संक्रमित कर सकते हैं। यह भी हो सकता है कि ये बूंदें और कण काफी देर तक ऐसे कमरे में तैरते रहें, जहां कोरोना से संक्रमित व्यक्ति कुछ देर के लिए आया हो।
मैं हवा से मिलकर आया हूं
एक दौर था जब डब्ल्यूएचओ बेहद घातक संक्रमण इबोला को लेकर भी कोरोना जैसी राय रखता था। उसे इबोला में इन्फ्लूएंजा या खसरे की तरह हवा के जरिए फैलने की थ्योरी में यकीन नहीं था। विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय थी कि इंसानों में यह संक्रमण यानी इबोला चिंपांजी, गोरिल्ला और जंगली हिरणों जैसे कई जीवों के खून, स्राव, विभिन्न अंगों और शरीर से निकलने वाले द्रवों के नजदीकी संपर्क में आने से होता है। लेकिन वर्ष 2012 में ‘साइंटिफिक रिपोर्ट्स’ में छपी रिपोर्ट में कनाडा के वैज्ञानिकों ने साबित कर दिया कि इबोला का वायरस बिना किसी प्रत्यक्ष संपर्क के ही सूअरों से बंदरों में फैल गया। इसकी वजह संक्रमण का हवा में फैल जाना और वहां बने रहना था। उल्लेखनीय है कि इबोला वायरस की वजह से इंसानों और नर वानरों में वायरल हेमरैजिक फीवर होता है, जो बेहद घातक माना जाता है। इबोला से संबंधित शोध के दौरान संक्रमित सूअरों को एक बाड़े में मैकाक्यू बंदरों के साथ रखा गया, लेकिन उनके बीच में तारों का एक अवरोध भी खड़ा किया गया। व्यवस्था की गई कि बंदर किसी भी सूरत में संक्रमित सूअरों के नजदीकी संपर्क में न आ सकें। लेकिन आठ दिन बाद कुछ बंदरों में इबोला के लक्षण दिखाई दिए। ऐसे में यह सोचा गया कि मुमकिम है कि श्वसन प्रक्रिया के तहत सूअरों द्वारा छोड़ी गई छोटी-छोटी बूंदें हवा के माध्यम से बंदरों के सांस लेते समय उनके अंदर चली गई हों। लेकिन इस शोध से जुड़े वैज्ञानिक डॉ. गैरी कॉबिंगर ने स्पष्ट किया कि इसमें पर्याप्त संदेह है कि बड़ी संख्या में ये बूंदें हवा में अपने मूल स्वरूप में रही हों। ये बूंदें कुछ देर तक ही हवा में रह सकती हैं। ऐसे में ज्यादा आशंका यही है कि हवा ने संक्रामक बूंदों को अपने भीतर सोख लिया था और इस तरह ये संक्रमण हवा के साथ फैलना शुरू हो गया। डॉ. गैरी कॉबिंगर के मुताबिक उनकी टीम महज आठ दिनों के अंदर सूअरों से अलग बाड़े में बंद बहुत से नर वानरों के फेंफड़ों में इबोला वायरस को मौजूद पाकर दंग रह गई थीं।
बीमारियों के वेक्टर्स
महामारी विज्ञान में दी गई परिभाषाओं के मुताबिक दुनिया में करीब 17 फीसदी बीमारियां वेक्टर्स यानी संवाहक द्वारा फैलाई जाती है। वेक्टर असल में एक किस्म का एजेंट होता है, जो एक संक्रामक बीमारी के सूक्ष्मजीवों या कीटाणुओं या रोगजनक कारकों को दूसरे जीव या इंसान तक ले जाता है या कहें कि स्थानांतरित करता है। मच्छर, चमगादड़, पिस्सू ये सभी डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, निपाह वायरस संक्रमण, जापानी इंसेफेलाइटिस, स्क्रब टाइफस, लेप्टोपायरोसिस, लाइम बीमारी और कांगो बुखार जैसी बीमारियों को इंसान तक पहुंचाने वाला कोई न कोई संवाहक (वेक्टर) होता है। कोरोना के दौर से पहले का आकलन है कि हर साल संवाहकों के जरिये होने वाली बीमारियां (वेक्टर बॉर्न डिसीज) करीबन सात लाख लोगों की मौत का कारण बनती हैं। यूं हवा में किसी संक्रामक बीमारी के सूक्ष्मजीव मिलें या नहीं, पर यदि किसी कारणवश हवा ही प्रदूषित हो गई है तो वह भी कम खतरनाक नहीं है। अस्थमा, निमोनिया, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) जैसी अनगिनत बीमारियों की वजह प्रदूषित हवा यानी वायु प्रदूषण बन गया है। शेष दुनिया का जो हाल है, सो है, पर आंकड़े बताते हैं कि भारत में सालाना दस लाख से ज्यादा लोगों की जान प्रदूषित हवा में सांस लेने से जा रही है। देश की राजधानी दिल्ली का तो हाल यह है कि यहां की हवा में एक दिन सांस लेने का मतलब करीब चार दर्जन सिगरेट पीने के बराबर माना जाता है। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनसे पता चला है कि लंग कैंसर से मरने वाला व्यक्ति धूम्रपान से कोसों दूर था, लेकिन रोजाना के वायु प्रदूषण ने उसके फेफड़ों में कैंसर भर दिया।
कैसे बचें हवाई कोरोना से :
स्वास्थ्य विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों की ताकीद है कि अगर वेंटिलेशन, एयर फिल्टर, भीड़ कम करने, खुले में लोगों को कम रहने देने जैसे उपायों को आजमाया जाए तो हवा में फैल रहे कोरोना वायरस से काफी हद तक खुद को बचाया जा सकता है। सलाह यह है कि संवेदनशील जगहों पर अगर बंद कमरे में रहने की नौबत आती है, तो भी मास्क पहनें और कार्यस्थल पर पीपीई किट पहनी जाए। एक विशेषज्ञ मैरीलैंड स्कूल ऑफ मेडिसिन के डॉ. फहीम यूनुस का कहना है कि लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि पूरी दुनिया यह पहले से जानती है कि यह महामारी ड्रॉपलेट्स से लेकर हवा तक से फैलती है। इसलिए उनकी सलाह है कि लोगों को कपड़े से बने आम मास्क के बजाय वायु प्रदूषण से बचाव में कारगर माने जा रहे एन95 या केएन95 मास्क का प्रयोग करना चाहिए। अच्छा होगा कि हरेक व्यक्ति एक मास्क का इस्तेमाल एक दिन करे। इस्तेमाल करने के बाद उसे पेपर बैग में रख दे और दूसरे मास्क का इस्तेमाल करें। हर 24 घंटे पर ऐसे ही मास्क अदल-बदल कर पहने जाएं। अगर इन्हें कोई नुकसान न पहुंचे तो हफ्तों तक इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके साथ ही कुछ अन्य उपायों को अपनाकर भी कोरोना से हम खुद की रक्षा कर सकते हैं। जैसे, हल्के संक्रमण का खतरा महसूस होने पर भी हर दिन व्यक्ति अपना तापमान, सांस की गति, पल्स रेट और बीपी नापे। यदि घर में किसी सदस्य में कोरोना के बेहद लक्षण हैं तो भी बेहतर होगा कि वह व्यक्ति खुद को 14 दिन के लिए शेष परिवार से अलग कर ले। संभव हो तो अलग बाथरूम का इस्तेमाल करे। अगर अलग कमरे की व्यवस्था करना मुश्किल हो, तो एक ही कमरे में मोटा पर्दा या कोई स्क्रीन लगाकर खुद को दूसरे हिस्से में क्वारंटीन कर लें। साथ ही, 14 दिनों पर कोरोना की सामान्य दवाओं के साथ-साथ भाप (स्टीम) लेने के प्रबंध भी करे। सबसे जरूरी है कि घर में भी इस दौरान मरीज और बाकी सदस्य मास्क पहने रहें।
वायुमंडल में कितनी ऑक्सीजन?
इंसान को जीवित रहने के लिए जरूरत है सांसों की और सांस की जरूरत है ऑक्सीजन। अगर हमारे फेफड़ों तक वायरस की मार या किसी भी अन्य कारण से ऑक्सीजन की सप्लाई पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाती है, तो क्या होता है इसका नज़ारा आज बेहद आम है। प्राणवायु के रूप में ऑक्सीजन की महत्ता का अंदाजा सभी को है, लेकिन यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर हमारे वायुमंडल में कितनी ऑक्सीजन है और क्या ऐसे उपाय हैं जो इस जीवनदायी गैस के भंडार को बढ़ा सकते हैं। हम जिस हवा में सांस लेते हैं उसमें मोटे तौर पर 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन के अलावा शेष 1 प्रतिशत में आर्गन, कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प तथा अन्य गैसें पाई जाती हैं। एक तत्व के रूप में ऑक्सीजन पृथ्वी के वायुमंडल में 2.4 अरब वर्ष पहले प्रकट हुई थी। इसे महाऑक्सीकरण के नाम से जाना गया। तब ऑक्सीजन की मात्रा बेहद कम थी। बाद में वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा तभी बढ़ी थी जब करीब 47 करोड़ वर्ष पहले पानी से बाहर जमीन पर वनस्पतियों यानी पेड़-पौधों ने जड़ें जमाना शुरू किया। यानी पेड़-पौधे ही हमारी प्राणवायु का अहम आधार हैं। इनमें भी पीपल, बांस, बरगद जैसे तमाम वृक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं जो कार्बन डाई-ऑक्साइड सोखकर वायुमंडल में ऑक्सीजन घोलते रहते हैं। जीवन के लिए यह गैसें इतनी जरूरी है कि पृथ्वी के बाहर जब वैज्ञानिक जीवन के संकेतों की तलाश करते हैं तो वे वहां के वायुमंडल में ऑक्सीजन की उपस्थिति का पता लगाते हैं। मंगल जैसे ग्रहों को भविष्य में इंसानी बस्तियों या सुदूर अंतरिक्ष यात्राओं के लिए मंगल को पड़ाव बनाने के उद्देश्य से वहां ऑक्सीजन निर्माण के रास्ते खोजे जा रहे हैं। हाल में नासा के रोवर पर्सवियरन्स में लगे एक उपकरण ने पहली बार मंगल पर 5 ग्राम ऑक्सीजन बनाई है, जिसे एक बेहद महत्वपूर्ण उपलब्धि मान सकते हैं। बहरहाल, पृथ्वी की संरचना, वायुमंडल में ही नहीं बल्कि इंसानी शरीर के दो-तिहाई हिस्से में ऑक्सीजन रहती है। पर जब बात आती है चिकित्सा उपयोग के लिए ऑक्सीजन के निर्माण की, तो यह काम आसान नहीं है। इसे जटिल वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से हासिल किया जाता है। सरल शब्दों में कहें तो दबाव डालकर हवा को तरल बनाया जाता है और फिर तरल हवा के कई घटकों को अलग करते हुए नीली रंगत वाली तरल ऑक्सीजन प्राप्त की जाती है। यह ऑक्सीन बेहद ठंडी होती है, इसका तापमान शून्य से 183 डिग्री सेल्सियस नीचे होता है। ऑक्सीजन को द्रव रूप में कायम रखने के लिए इस तापमान को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण होता है। ध्यान रहे कि भंडारण और आसानी से ढोने के उद्देश्य से गैसों को तरल रूप में ही रखा जाता है। वर्ष 1774 में जब ब्रिटिश साइंटिस्ट जोसेफ प्रिस्टले ने ऑक्सीजन को एक अलग तत्व के रूप में पहचाना और 1895 में कार्ल पॉल गॉटफ्रायड व विलियम हैंपसन ने इसे द्रवीभूत करने का तरीका खोजा तो इसके औद्योगिक और चिकित्सकीय इस्तेमाल का रास्ता खुला। इन वैज्ञानिकों ने हवा को क्रायोजेनिक डिस्टिलेशन प्रोसेस के जरिए फिल्टर करने और उसमें मौजूद पानी, कार्बन डाई-ऑक्साइड व हाइड्रोकार्बन को अलग करते हुए उसे भारी दबाव के साथ कंप्रेस व कंडेंस करते हुए द्रव (लिक्विड) ऑक्सीजन प्राप्त करने की विधि विकसित की। उल्लेखनीय है कि कंप्रेस की हुई ऑक्सीजन का सबसे पहला औद्योगिक इस्तेमाल 1901 में सामने आया था, जब ऑक्सीजन को एसिटिलीन गैस के साथ जलाते हुए उसे धातुओं की वेल्डिंग और कटाई के काम में लाया गया। बाद में कई वैज्ञानिक, वाणिज्यिक और औद्योगिक कार्यों में इस ऑक्सीजन के इस्तेमाल का रास्ता खुला। खास तौर से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तकनीकी तरक्की के चलते हवा से ऑक्सीजन को पृथक कर उसका भारी मात्रा में उत्पादन करना संभव होने लगा। एक आंकड़े के मुताबिक करीब चालीस साल पहले वर्ष 1991 में अकेले अमेरिका में 470 अरब क्यूबिक फीट (13.4 अरब क्यूबिक मीटर) ऑक्सीजन का उत्पादन हुआ था, जिसे औद्योगिक इस्तेमाल में लाया गया। आज ऑक्सीजन का प्रयोग धातु (खास तौर से स्टील) इंडस्ट्री और निर्माण क्षेत्र के अलावा केमिकल फार्मा, पेट्रोलियम, कार, ग्लास व सेरेमिक तथा पल्प और पेपर मैन्युफैक्चरिंग आदि उद्योगों में काफी ज्यादा मात्रा में होता है। चूंकि चिकित्सा से ज्यादा इसकी खपत उद्योग जगत में है, इसीलिए अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई बढ़ाने का फैसला लेने से पहले हाल में केंद्र सरकार ने उद्योग जगत के प्रतिनिधियों संग बैठक की और उन्हें वक्त की जरूरत को देखते हुए अपनी मांग कम करने के लिए राजी किया। चिकित्सा के क्षेत्र में ऑक्सीजन के प्रयोग और जरूरत का सवाल है, तो वहां इसके द्रवित (लिक्विड) रूप का इस्तेमाल होता है। सर्जरी में, इंटेंसिव केयर ट्रीटमेंट में और श्वसन संबंधी इलाज (इनहेलेशन थेरेपी) में 90 से 93 फीसदी शुद्ध ऑक्सीजन को प्रयोग में लाया जाता है। यह ऑक्सीजन नॉन-क्रायोजनिक सिलेंडरों में भरी जाती है, ताकि उसे जरूरत के वक्त आसानी से अस्पतालों और घरों में पहुंचाया जा सके।