गोविन्द सिंह
गए सप्ताह हमने 92 वर्ष के एक ऐसे व्यक्ति को खो दिया, जिन्हें इस उम्र में भी चलता-फिरता विश्वकोश कहा जा सकता है। अरविन्द कुमार एक श्रेष्ठ सम्पादक थे, हिन्दी में सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका माधुरी के संस्थापक सम्पादक रहे। 1945 में हाई स्कूल पास करने के बाद वे दिल्ली प्रेस में मामूली नौकरी करने लग गए। बावजूद इसके 1962 तक वे दिल्ली प्रेस की सभी पत्रिकाओं के कार्यकारी सम्पादक बन गए। फिर टाइम्स समूह ने फिल्म की नई पत्रिका माधुरी के लिए सम्पादक की खोज शुरू की तो अरविन्द कुमार पर आकर निगाह रुक गई। 1962 से 1978 तक वे इसके सम्पादक रहे। माधुरी को उन्होंने हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका बनाकर स्थापित किया। उसके बाद वे रीडर्स डायजेस्ट के हिन्दी संस्करण ‘सर्वोत्तम’ के पांच साल तक सम्पादक रहे। इस पत्रिका के भी हम चश्मदीद रहे हैं, यह भी हिन्दी में अपनी तरह की अद्भुत पत्रिका थी। उसके स्तंभों के नाम, उसकी भाषा और उसके विषय इतने अनूठे हुआ करते थे कि कहीं से भी अंग्रेज़ी की बू नहीं आती थी। शुरू से लेकर अंत तक अपनी तमाम खूबियों के साथ-साथ चलते हुए भी वे जिस एक खूबी को हमेशा अपने साथ रखते थे, वह था उनका भाषा ज्ञान। शब्दों की उनकी जानकारी। आज सचमुच हिन्दी का यह शब्दशिल्पी हमसे रुखसत हो गया है, तो शायद ही उनकी कमी को कोई कभी भर पाए।
थिसारस यानी समानान्तर कोश शब्द को 1996 से पहले हिन्दी वाले नहीं जानते थे। पांच हज़ार साल पहले संस्कृत में आचार्य कश्यप ने ‘निघंटु’ लिखा था, जिसको संसार का पहला शब्दकोश माना जाता है। उसमें वैदिक संस्कृत के 1800 शब्द संकलित थे। उसके बाद महर्षि यास्क ने ‘निरुक्त’ नाम का पहला शब्दार्थ कोश बनाया। उसके बाद छठी-सातवीं शताब्दी में अमर सिंह ने ‘अमरकोश’ की रचना की। लेकिन हिन्दी का दुर्भाग्य देखिए कि उसमें पिछले 1000 वर्षों में कोशों की वैसी उन्नति नहीं हो पायी, जैसी कि होनी चाहिए थी। ले-देकर हमारे पास फादर कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश है, या नागरी-प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हिन्दी शब्द सागर या ज्ञानमंडल के कुछ शब्द कोश।
लेकिन 1952 में दिल्ली प्रेस की ‘कारवां’ पत्रिका में काम करते हुए युवा अरविन्द कुमार की शब्दों की प्यास बुझाने के लिए ‘रोजेट्स थिसारस’ नाम की जो किताब उनके हाथ लगी, वह आजीवन उनका ध्येय बन गयी। हाई स्कूल के बाद निजी तौर पर एमए अंग्रेज़ी तक की पढ़ाई करने वाले अरविन्द कुमार को शब्दकोशों के सहारे की कितनी जरूरत पड़ी होगी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। लेकिन उनके मन में हमेशा के लिए यह मलाल था कि हिन्दी में इस तरह की कोई किताब क्यों नहीं है! 1962 में माधुरी के सम्पादक जरूर बने, जबकि फिल्म उनका ध्येय नहीं था। फिर भी उन्होंने उस पत्रिका को सर्वश्रेष्ठ बनाया। 1973 में उन्होंने अपनी पत्नी के सामने अपने अंतिम ध्येय की दिशा में बढ़ने का प्रस्ताव रखा कि ‘मैं हमेशा धर्मेन्द्र या हेमा मालिनी के बारे में ही लिखने के लिए नहीं बना हूं,’ तो उनकी पत्नी को एक बड़ा जोखिम दिखाई पड़ा। फिर भी उन्होंने 1978 में माधुरी की नौकरी छोड़ कर दिल्ली लौटने और अपने पैतृक घर पर रहकर थिसारस के काम को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। लेकिन परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया। बाढ़ के कारण घर बर्बाद हुआ। नया घर लेने, घर के खर्चों और बच्चों की पढ़ाई में ही सारी जमा पूंजी खर्च हो गयी। पैसों के लाले पड़ने लगे। संयोग से 1982 में उन्हें सर्वोत्तम की संपादकी मिल गयी, जिससे उनकी आर्थिक हालत ठीक हुई।
जैसे ही हालात सुधरे, वे फिर से थिसारस के काम में प्रवृत्त हो गए। वर्ष 1996 में जाकर समानान्तर कोश नाम से उनके सपनों की सृष्टि से साक्षात हुआ। नेशनल बुक ट्रस्ट ने इसे प्रकाशित किया। और इसके छपते ही हिन्दी की दुनिया में जैसे हंगामा मच गया। खुशवंत सिंह ने लिखा, ‘अरविंद कुमार ने हिंदी की भारी कमी पूरी कर के उसे इंग्लिश के समकक्ष खड़ा कर दिया है।’ भाषा विज्ञानी हरदेव बाहरी ने लिखा, ‘आपके संघर्षशील और प्रगतिशील जीवन वृत्त की जानकारी पाकर मन में धन्य-धन्य शब्द उभरते रहे।’ यह एक ऐसा काम था, जिसने सदा-सदा के लिए हिन्दी के मुकुट में एक नया हीरा जड़ दिया था। उसके बाद उन्होंने पेंगुइन के लिए बृहद हिन्दी समानान्तर कोश तैयार किया। यही नहीं, ‘द हिंदी-इंग्लिश/ इंग्लिश-हिंदी थिसारस एंड डिक्शनरी’ (2007) जैसे महाग्रंथ और ‘अरविंद लैक्सिकन’ (2011) के रूप में इंटरनेट पर विश्व को हिंदी-अंग्रेजी के शब्दों का सबसे बड़ा ऑनलाइन ख़ज़ाना देने वाले अरविंद कुमार पिछले कुछ समय से ‘शब्दों का विश्व बैंक’ बनाने की तैयारी में जुटे हुए थे। उनके शब्द भण्डार में दस लाख से अधिक शब्द हैं। 92 साल की उम्र में भी वे निरंतर शब्द साधना में लगे हुए थे।
हिन्दी को यदि उनके जैसे दो-चार शब्द-शिल्पी मिल जाएं तो हिंदी के माथे के सारे कलंक मिट जाएं। ऐसे महान शब्द-शिल्पी को नमन।