मेजर जन. अशोक के. मेहता (अ.प्रा.)
म्यांमार, जो भारत की ‘पूरब से नाता जोड़ो’ नीति क्रियान्वन में पहला पड़ाव है और जिसके साथ हमारी सामरिक महत्व की सीमा साझा है, वहां पिछले माह तीसरा आम चुनाव संपन्न हुआ, जिस पर भारत का खासा ध्यान रहा है। यह चुनाव वर्ष 2008 में सेना द्वारा थोपे गए संविधान के तहत हुए हैं, इसे देश में पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था की वापसी का मानचित्र बताया जाता है। आंग सान सू-की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने एंटी-इनकम्बेंसी के बावजूद भारी बहुमत से जीत प्राप्त की। हालांकि, पिछले कार्यकाल में देश की आर्थिक कारगुजारी दोयम रहना, रोहिंग्या समस्या, सशस्त्र जातीय विद्रोहियों के साथ शांति वार्ताएं विफल रहना, राष्ट्रवादी बौद्ध भावना का उद्भव और कोविड महामारी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहीं।
म्यांमार की सिविल-मिलिटरी शक्ति बंटवारा वाली शासन प्रणाली विलक्ष्ाण है, जिसमें वरिष्ठ जनरल का फैसला अंतिम होता है किंतु सत्ता में दो शक्ति केंद्रों में आपसी टकराव से निर्णय लेने में जटिलताएं खड़ी हो जाती हैं।
राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा परिषद (एनडीएससी) सेना के तीनों अंगों और पुलिस पर नियंत्रण रखने को बनी सर्वोच्च संस्था है। सेना खुद को देश का संरक्षक बताते हुए अंदरूनी राजनीति में दखलंदाजी को जायज ठहराती है ताकि संविधान बचा रह सके। इस व्यवस्था के तहत केंद्र, प्रांतों और स्थानीय निकायों में 25 फीसदी सीटें सैन्य अधिकारियों के लिए आरक्षित हैं। संवैधानिक बदलाव के लिए दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत का प्रावधान है, जो इस स्थिति में असंभव भले ही न हो लेकिन मुश्किल बहुत है। अंदरूनी सुरक्षा और सीमा संबंधी विषय के मंत्रालय सैन्य पंचाट के लिए आरक्षित हैं। एक तरह से राजनीति, सुरक्षा, आर्थिकी, पैसा और बौद्ध भिक्षुओं पर सेना का नियंत्रण है।
एनएलडी और सेना के बीच रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं, हालांकि, सू-की को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में रोहिंग्या मुसलमानों पर कथित अत्याचारों के लिए अपनी सेना का बचाव करना पड़ा है, जिससे उनकी निजी अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार छवि को धब्बा लगा है, लेकिन देश के अंदर साख बढ़ी है।
सू-की उम्रदराज राजनीतिज्ञों की अगुवाई वाली पार्टी की चतुर मुखिया हैं, जिसमें दूसरे स्तर का नेतृत्व नदारद है। एनएलडी देश पर सेना की पकड़ को ढीली कर पाने में विफल रही है। वर्ष 2017 में रोहिंग्या मुसलमानों पर सेना की कार्रवाई के नतीजे में ‘राखिने रोहिंग्या सालवेशन आर्मी’ नामक नए राष्ट्र विरोधी सशस्त्र विद्रोही गुट का उद्भव हुआ है।
साल 2021 में सेना के मौजूदा सर्वेसर्वा वरिष्ठ जनरल मिन औंग ह्लैंग का कार्यकाल समाप्त हो जाएगा जो लगभग 10 साल का है, किंतु उन्होंने साफ कर दिया है कि वे किसी अन्य नागरिक या सैन्य पद पर बने रहेंगे। वे सू-की के विपक्षियों से सांठ-गांठ करते रहे हैं और उप-राष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह पहली मर्तबा होगा कि पूर्व कमांडर-इन-चीफ किसी ऐसे सरकारी पद पर विराजमान होगा, जो देश के सत्ता वरिष्ठता क्रम में पांचवें स्थान पर माना जाता है।
चीन के साथ म्यांमार की 2100 कि.मी. लंबी सीमारेखा साझी है। चीन म्यांमार के मामलों में ‘बड़े भाई’ वाली धौंस रखता आया है और अंदरूनी मामलों जैसे कि राजनीति, विकास एवं आर्थिकी, जातीय गुटों से शांति वार्ता में दखल करने के अलावा एनएलडी एवं सेना के साथ घनिष्ठता बनाए हुए है। हालांकि, यह दोनों पक्ष चीन की दखलंदाजी के बढ़ते दायरे से खुश नहीं हैं।
चीन की ‘वन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (बीआरआई) नामक महत्वाकांक्षी परियोजना, जिसके तहत 1700 कि.मी. लंबा चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा (सीएमईसी) उलीका गया है, इस हेतु बनने वाली कुल 38 परियोजनाओं में 9 को म्यांमार ने हरी झंडी दे दी है। इसके अंतर्गत चीन के युन्नान प्रांत को म्यांमार के राखिने प्रांत में सामरिक महत्व के क्याकफ्यू बंदरगाह तक सड़क मार्ग से जोड़ना है। एक समय पर भारत भी यही करना चाहता था ताकि हमारे उत्तरी-पूरबी राज्यों की पहुंच बंगाल की खाड़ी तक बन पाती। हालांकि, युन्नान और म्यांमार का मैंडले शहर पहले ही सड़क मार्ग से जुड़े हुए हैं। कुल 100 खरब डॉलर लागत वाली सीएमईसी परियोजना, जिसके अंतर्गत 80 लाख डॉलर से एक नया येन्गोन शहर भी बनना है, इसकी उपयोगिता दीर्घकाल में पाकिस्तान के साथ बनने वाले आर्थिक गलियारे को पछाड़ देगी।
म्यांमार पहले से ही चीन के भारी कर्ज तले दबा है। देश में होने वाले कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 70 प्रतिशत केवल ऊर्जा क्षेत्र में लगा हुआ है। म्यांमार पर कुल 5-10 खरब डॉलर कर्ज में लगभग 40 फीसदी ऋण अकेले चीन का दिया है। हाल ही में पहली बार दोनों देशों में शिखर वार्ता के जरिए बृहद सामरिक पारस्परिक संधि हुई है।
इसके बावजूद म्यांमार में चीन को लेकर अविश्वास की भावना में इजाफा हुआ है, जिसके चिढ़कर चीन ने म्यांमार विरोधी विद्रोही गुटों को हथियार मुहैया करवाए हैं, इसमें राखिने एवं चिन प्रांत से संबंधित अराकान आर्मी नामक ताकतवर गुट भी शामिल है। वरिष्ठ जनरल थान श्वे चीन की सहायता को देश के लिए जरूरी किंतु परेशान करने वाली मानते थे, इसलिए वर्ष 2011 में उन्होंने चीन पर निर्भरता कम करने की खातिर भारत की ओर रुख किया था।
दो माह पहले, अक्तूबर में, भारत ने विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला की अगुवाई में पहली बार संयुक्त सिविल-मिलिटरी प्रतिनिधिमंडल म्यांमार भेजा था, इसमें सेनाध्यक्ष जनरल नरवाणे भी शामिल थे। यह एक तरह से म्यांमार में सेना-सिविल संयुक्त शक्ति साझेदारी को मान्यता देने का महीन संकेत है।
म्यांमार के रास्ते दक्षिण एशियाई पूरबी देशों तक संपर्क मार्ग बनाना भारत की ‘पूरब से नाता जोड़ो’ नीति का एक मुख्य केंद्र बिंदु है, लेकिन दोनों देशों के सशस्त्र विद्रोहियों की गतिविधियों और धीमी निर्णय गति से यह अधर में लटका हुआ है। भारत-म्यांमार-थाईलैंड राजमार्ग कछुए की चाल से आगे बढ़ रहा है और इसके लिए मिजोरम से होकर लूप लाइन बनाने की जरूरत पड़ेगी ताकि नागालैंड और मणिपुर के विद्रोहियों से दूर रहा जा सके। बहु-स्तरीय कालादान परियोजना, जिसके तहत म्यांमार के सित्वे बंदरगाह को मिजोरम से जोड़ना है और जो राखिने और चिन सूबों से गुजरेगी, उसका काम अराकान आर्मी के हमलों की वजह से रुका पड़ा है, इसके पीछे चीन की शह बताई जा रही है जो सित्वे समेते कुछ परियोजनाएं अपने हाथ से निकलने की वजह से तिलमिलाया हुआ है।
इस साल अप्रैल माह में इम्फाल और मैंडले की बीच बस सर्विस शुरू की गई है। भारत ने म्यांमार की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु तेल परिशोधन कारखाने में 60 लाख डॉलर का निवेश करने की पेशकश की है। हालांकि, वहां भारत के सहयोग से 140 बुनियादी ढांचा परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं। परंतु भारत द्वारा दी जाने वाली 1.4 खरब डॉलर की सहायता चीन के 3.5 खरब डॉलर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती। हालांकि, चीन की मदद ज्यादातर सूद वाले ऋण के रूप में है। कालांतर में भारत म्यांमार को दिए गए कर्ज में कुल मिलाकर 10 खरब डॉलर की छूट दे चुका है। नि:संदेह म्यांमार की सेना के पास सैन्य उपकरणों का 80 फीसदी चीन निर्मित है। दोनों के बीच रक्षा और सुरक्षा सहयोग में काफी बढ़ोतरी हुई है।
म्यांमार में रह रहे लगभग 20 लाख भारतीय अनिवासी उसके लिए मानव संसाधन सरमाया हैं, आगे लोगों के बीच आपसी मेलजोल और बौद्ध धर्म से संबंधित रिश्तों को बढ़ाना देने की जरूरत है। चीन के साथ होड़ करना हालांकि हमारे लिए मुश्किल है तथापि म्यांमार के शिक्षा और कृषि क्षेत्रों में निवेश करना लाभप्रद होगा।
भारत की ‘पूरब से नाता जोड़ो’ नीति में चीन एक कांटा है, वह भारत के लिए दो मोर्चों पर एक साथ सैन्य मुश्किलें खड़ी करने को ‘ढाई मोर्चों में तब्दील’ करने की क्षमता भी रखता है। बहरहाल, भारत के लिए रक्षा-कूटनीति बरतना ही सबसे बढ़िया उपाय है।
लेखक रक्षा मामलों के विशेषज्ञ टिप्पणीकार हैं।