शारा
बॉलीवुड में यह बात मशहूर है कि गुलज़ार रद्दी से रद्दी बंदे से एक्टिंग करवा लेते हैं और फिर उन्होंने फिल्म ‘किनारा’ में जितेंद्र जैसे व्यक्ति से एक्टिंग करवा ली तो फिर किसी से भी एक्टिंग करवा सकते हैं। जितेंद्र यानी बॉलीवुड के जम्पिंग जैक पर सबसे पहले संजीदा रोल देने का जुआ खेला वी. शांताराम ने। उन्होंने ही जितेंद्र को एक बुततराश का रोल देकर अपनी बेटी राजश्री को फिल्म की नायिका बना दिया। पाठक समझ ही गये होंगे कि यहां किस फिल्म की बात हो रही है? जी हां, सही समझे ‘गीत गाया पत्थरों ने’ फिल्म के हीरो जितेंद्र ही थे जिन्होंने किस संजीदगी से कलाकार का रोल निभाया है। उसके बाद उन पर परिपक्व रोल देने का जुआ गुलज़ार ने खेला ‘परिचय’ फिल्म बनाकर। हालांकि इस फिल्म में संजीव कुमार भी थे। मगर फिल्म का चेहरा मोहरा जितेंद्र के किरदार के कारण सजीव हुआ। फिर गुलज़ार ने उन्हें ‘खुशबू’ फिल्म में रोल दिया। वहां भी उन्होंने अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाया। ‘किनारा’ भी ऐसी ही फिल्म है जहां किरदार के साथ जरा ऊंच-नीच हो गयी तो फिल्म का कलेवर गुड़-गोबर बन सकता था लेकिन यहां भी जितेंद्र ने निर्देशक को निराश नहीं होने दिया। ‘किनारा’ दरअसल उदास लम्हों को रूमानियत देने की कहानी है। गुलज़ार की लगभग सारी फिल्में ऐसी ही होती हैं। इजाज़त फिल्म को ही ले लीजिए। उदासी को खुशी जीनेभर का प्रयास मात्र है जिसे किसी इबारत में कलमबद्ध करना आसान नहीं है। मगर गुलज़ार तो जाने ही इसीलिए जाते हैं और उनकी फिल्में चलती भी इसीलिए हैं क्योंकि वे संवादों में उलटवासियों का इस्तेमाल करते हैं। इस फिल्म के संगीत ने भी इसे लोकप्रिय बनाने का काम किया है। राहुल देव बर्मन गुलज़ार के दोस्त हैं तो जाहिर है इस फिल्म के गीतों को भी संगीत वही देंगे। फिर गुलज़ार के लिखे गीतों को राहुल देव बर्मन ही संगीत दे सकते हैं। ब्लैंक वर्स में लिखी उनकी कविताएं पद्य कम गद्य ज्यादा लगती हैं। और उस ब्लैंक वर्स में से अच्छी पोइट्री निकालकर उसे सुरबद्ध करना, सिर्फ राहुल देव बर्मन ही कर सकते हैं। चलते-चलते एक वाकया पाठकों से शेयर कर लूं कि ‘इजाज़त’ के गीतों को संगीत देने की गर्ज से जब गुलज़ार राहुल देव से मिले तो राहुल देव ने गीतों का पुलिंदा देखकर कहा था, ‘अमां यार यह गीत है या कहानी? गीत तो है ही नहीं।’ ‘इजाज़त’ के सभी गीत ब्लैंक वर्स में थे। ‘किनारा’ का मशहूर गाना तो सुना ही होगा ‘नाम गुम जायेगा’ खूब कर्णप्रिय है। इस फिल्म की हीरोइन हेमामालिनी हैं जो डांसर बनी हैं क्योंकि गुलज़ार अच्छी तरह जानते थे कि किसका टैलेंट कहां भुनाना है? इस फिल्म की शूटिंग मांडू (मध्यप्रदेश) में हुई है। यह मांडू वही है जो स्वदेश दीपक की कहानी के शीर्षक में है। ‘मैंने मांडू नहीं देखा।’ वैसे भी जिसने मांडू नहीं देखा, वह यह फिल्म देख ले। मांडू के महल की शिलाएं हैं या पत्थरों पर शायर की उकेरी कविताएं—यहां रानी रूपमती और बाज बहादुर की मुहब्बत सिसकती है। सचमुच अगर मांडू महल का शिल्प देख लें तो आगरा का ताज भी झूठा लगता है और जूठा भी। गुलजार ने जिस तरह से महल के सारे कोनों को अपने कैमरे में कैद किया है, उससे मांडू का स्थापत्य शिल्प पुनर्जीवित हो उठा है। उदास लम्हों का गीत कैसे गाया जाता है, कोई गुलज़ार से पूछे। यह उनकी आंख का ही कमाल था कि उन्होंने अपने कैमरे में हवा की सरसराहट को भी कैद कर लिया। महराबें, भीतें, खिड़कियां और महल की अंदरूनी गलियां तो उनकी आंख को धोखा ही नहीं दे सकतीं। फुल मार्क्स सिनेमैटोग्राफी को। हेमामालिनी (आरती) हो और धर्मेंद्र न हों, यह कैसे हो सकता है? सत्यकाम और अनुपमा फिल्मों से भी ज्यादा सुंदर दिखे हैं धर्मेंद्र इसमें। शायद हेमामालिनी की उपस्थिति जिम्मेदाार हो। लब्बोलुआब यह कि फिल्म देखने के काबिल है। अब चलते हैं कहानी की ओर। किनारा फिल्म उस व्यक्ति की कहानी है जो उस लड़की के जीवन में उजास भरना चाहता है, जिसका जीवन एक त्रासदी के कारण बुझ चुका है। और इसकी शुरुआत होती है जब इंद्र (जितेंद्र) मांडू की उन्नींदे, फोटो खिंचवाने के केंद्र बने खंडहरों में आता है। वह वास्तुविद है। तभी हवा की सरसराहट इंद्र के आगे अधखुले पन्ने बिखेर देती है। जैसे ही वह उन कागजों को उठाने को होता है, उसे लगता है कि आरती (हेमा) की उदास आंखें उसे घूर रही हैं। आरती जानी-मानी कथक डांसर हैं जो चंदन (धर्मेंद्र) से प्यार करती थी। धर्मेंद्र इतिहास का प्रोफेसर था और रानी रूपमती व बाज बहादुर के रोमांस पर एक किताब लिख रहा था। लेकिन इससे पहले कि किताब छपवाता, उसकी कार दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। आरती मांडू की तस्वीरें लेने आयी है ताकि किताब छपवा सके। आरती के निकट आने पर इंद्र को पता लगा कि इंद्र की कार, जिससे टकरायी, वह चंदन की ही कार थी, जिस हादसे में वह बाल-बाल बच गया। जब उसने इस बात का जिक्र आरती से किया तो वह उससे लड़ पड़ी। इस लड़ाई में वह सीढ़ियों से गिर पड़ी और उसकी आंखों की रोशनी जाती रही। अभी वह चंदन की मौत का जिम्मेदाार ही खुद को ठहरा रहा था और आरती के सामने सफाई देने की कोशिश भी बेकार गयी। अब वह प्रकाश बनकर डांस मास्टर बनकर आने लगा। आरती इस बात से अनभिज्ञ थी कि जिस प्रकाश को वह दोस्त समझती है, वह कोई और नहीं बल्कि इंद्र है। प्रकाश की बदौलत आरती दोबारा नृत्य सीख पाती है लेकिन जिस ग्रंथि का शिकार इंद्र था, वह ग्रंथि भावों के जरिये अभिनय में उतारनी मुश्किल थी, जिसे कर पाने में जितेंद्र खूब सफल रहे। ‘कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा’ हर फिल्म में संवाद अदायगी के लिए मशहूर धर्मेंद्र इस फिल्म में संजीदा किस्म के व्यक्ति लगे हैं। जैसे ही आरती ने कुछ होश संभाला तो एक दिन प्रकाश चंदन की पुण्यतिथि पर आरती को चंदन द्वारा लिखी वही किताब प्रकाशित करवा कर भेंट करता है तो आरती को पता चल जाता है कि वह प्रकाश न होकर इंद्र ही है क्योंकि उसके सिवाय चंदन की पुण्यतिथि के बारे में कोई नहीं जानता। आरती इंद्र को घर से बाहर निकाल देती है। वह इंद्र को कहती है कि उसने उससे चंदन समेत सब कुछ छीन लिया। यहां तक कि चंदन की किताब प्रकाशित करने का हक भी। कुछ दिन बाद आरती की इंद्र से मुलाकात एक चर्च में होती है, जहां वह अपने किये पर खेद प्रकट करती है और मानती है कि वह अतीत में जी रही थी और अब इंद्र के साथ वर्तमान में जीना चाहती है। दोनों के मन का मैल उतर जाता है।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : प्राण लाल मेहता
निर्देशक : गुलजार
पटकथा व गीत : गुलजार
संगीत : राहुल देव बर्मन
सितारे : धर्मेंद्र, जितेंद्र, हेमामालिनी व श्रीराम लागू आदि
गीत
एक ही ख्वाब : भूपेंद्र, हेमामालिनी
मीठे बोल बोले : लता मंगेशकर, भूपेंद्र
जाने क्या सोचकर : किशोर कुमार
कोई नहीं है कहीं : भूपेंद्र
अबके न सावन बरसे : लता
नाम गुम जाएगा : भूपेंद्र, लता