सुरेश सेठ
देश में महामारी का दायरा बढ़ा हो गया है। चाहे अब इसे कोरोना की दूसरी लहर कहा जा रहा है, जिसने पिछले तीन माह से द्रुत गति से बढ़ते हुए संक्रमण के आंकड़ों से एक जीवन में एक हताशा का भाव भर दिया है। यह एक अकाट्य सत्य है कि पिछले चौदह महीने से इस महामारी ने इस देश के आम आदमी को सामान्य जिंदगी से वंचित कर दिया है। वैसे तो यह एक विश्वव्यापी महामारी है, लेकिन भारत के नागरिकों की तो सुबह, दोपहर और शाम के अर्थ ही इसने महामारी ने बदल दिये। जीवन में मनोरंजन से लेकर अध्ययन तक, चिंतन से लेकर लेखन तक, सब कुछ जैसे अर्थहीन जैसा लगने लगा है।
कोरोना की पहली लहर जब देश में आयी तो उसने करीब तेइस करोड़ लोगों की रोजी-रोटी का साधन छीनकर उन्हें गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिया था। सकल घरेलू उत्पादन में तरक्की की जगह करीब 23 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी थी। इससे पहले देश की आर्थिक विकास दर का दस प्रतिशत तक पहुंच स्वत: स्फूर्त हो जाने का सपना था। वह दर शून्य से भी सात प्रतिशत नीचे चली गयी थी। इसके अलावा देश में बेकारी की दर इतनी बढ़ी, जितनी पिछले पैंतालिस बरस में कभी न देखी गयी थी। दूसरी ओर, महंगाई नियंत्रण के सब दावे थोथे साबित हो गये और वह फिर मनमोहन काल की महंगाई की ऊंचाइयों को छूने लगी।
निश्चित रूप से यह देश के लिये एक अप्रत्याशित आपातकाल था, लेकिन इससे किसी नयी कार्य-संस्कृति का उदय नहीं हुआ। भ्रष्टाचार का सूचकांक फिर भारत की गणना दुनिया के महाभ्रष्ट देशों में करता रहा, और विश्व सूचकांकों के अनुसार भारत वहीं रहा, दुनिया के महारिश्वतखोर देशों में से एक जहां काम की गाड़ी केवल रिश्वत और सम्पर्क सूत्रों के आधार पर चलती है।
महामारी का पहला साल गुजरने के साथ जैसे ही देश में संक्रमण का दबाव कम होता नजर आने लगा, इस देश के लोगों ने तो महामारी को जैसे गयी बीती कहानी की तरह विदा कर दिया। व्यक्ति और शासन के स्तर पर संक्रमण से बचाव की सावधानी हटने लगी। ऊंचे दावे करने वाले दृश्यपटल पर उभर आये। शून्य से सात प्रतिशत नीचे चले जाने वाला देश अब विकास दर के उछलकर बारह प्रतिशत पर जाने की घोषणा करने लगा। शिक्षा की अव्यवस्था के देश में इंटरनेट क्रांति की घोषणा होने लगी। पुस्तक और कक्षाओं को त्याग कर डिजिटल और ऑनलाइन हो जाने, ऑफलाइन की जगह ऑनलाइन और सेमिनार की जगह वेबिनार से भी वही सार्थकता प्राप्त कर लेने का सब्जबाग दिखाने लगे। आजादी की पौन सदी में हम हर एक नौनिहाल के हाथ में पर्याप्त पुस्तकें तो दे नहीं सके, अब उनमें स्मार्टफोन बांटे जाने के सपने देखे जाने लगे, चाहे वे खैरात में ही क्यों न बांटे जायें।
नया बरस आया और दुनिया और भारत के चिकित्सा विशारदों की कृपा से जन-जन के लिए टीकाकरण अभियान सौगात ले आया। इसमें कोरोना उपचार नहीं, कोरोना से बचाव अर्थात प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देने का लासानी नुस्खा था। इसके चलते सोलह जनवरी से देश में टीकाकरण अभियान शुरू हुआ। टीके लगने लगे, पहले कोरोना योद्धाओं और वरिष्ठ नागरिकों के लिए, फिर पैंतालिस तक के आयु वर्ग से ऊपर वर्ग के लिए और फिर पहली मई से अट्ठारह से ऊपर की आयु के समस्त युवा वर्ग अर्थात जन-जन के लिए। देखते ही देखते अट्ठारह करोड़ से अधिक लोगों को देश में टीका लगा दिया गया। इस पर भारत ने अपनी पीठ थपथपाई कि वह दुनिया में सबसे तेज गति से टीका लगाने वाला देश बन गया है। देश की दस प्रतिशत आबादी को एक खुराक और तीन प्रतिशत आबादी को टीके की दोनों खुराकें लगी। फिर जब तक टीकाकरण की महत्ता पहचान लोगों ने टीका केंद्रों के बाहर कतारें लगानी शुरू कीं, तो टीका आपूर्ति केंद्रों ने मांग के मुकाबले उपलब्ध उत्पादन कम बता हाथ खड़े कर दिये।
जी हां, वादे अब भी हैं, इस बरस के अंत तक दो अरब टीका डोज दे देने के। तीन टीका कंपनियों की जगह आठ टीका कंपनियों द्वारा टीके की आपूर्ति के। वादा है अगले साल जरूरत से अधिक टीकों की आपूर्ति हो जायेगी। लेकिन अभी कतारों में खड़े हो निराश लौटते टीका लगवाने वालों से पूछो तो वे एक ही बात कहते मिलेंगे, ‘मांग के मुताबिक आपूर्ति का इंतजाम क्यों नहीं? धड़ाधड़ सब लोगों को टीका लगाने की इजाजत क्यों दे दी गयी?’
लेकिन केवल टीके ही क्यों, इस बार कोरोना की दूसरी लहर का बहुरूपिया वायरस एक अधिक द्रुत गति से फैलने वाला रोग भी साथ लाया है। पहले के मुकाबले अधिक मौत की दर लाया है। गंभीर तीसरे चरण के लिए अधिक ऑक्सीजन के सिलेंडर, वेंटिलेटर और रेमडेसिविर जैसे टीके चाहिए जो पिछले दिनों सभी मार्किट से गायब हो गये थे। इस भयावह संकट के बीच देश की मूलभूत कमजोरियां भी सामने आने लगीं। इसमें दो राय नहीं कि पहले से ही सरकारी चिकित्सा क्षेत्र में जो वेंटिलेटर उपलब्ध रहे हैं, इन्हें चलाने वाले प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं हैं, आक्सीजन की आपूर्ति मांग की तुलना में काफी कम है। गाहे-बगाहे बड़े अस्पतालों को ऑक्सीजन प्लांट लगाने के लिये कहा गया था। विडंबना यही है कि किसी ने कागजी कार्रवाई से आगे जाने का प्रयास ही नहीं किया। दुखद पहलू यह है कि रेमडेसिविर जैसे प्राणरक्षक टीके कालाबाजारी में बिकने लगे, नकली दवा बेचने वाले भी मौके का फायदा उठाने के लिये आगे बढ़ आये। ऐसी तमाम विसंगतियों के बीच अब मृत्यु दर न बढ़ती तो और क्या होता?
सरकारी आंकड़ा शास्त्री कहते हैं, ‘लो अब संक्रमण के आंकड़े कम होने लगे, ठीक होकर छुट्टी पाने वाले रोगियों की संख्या लगातार बढ़ी।’ लेकिन इस बार एक्टिव रोगियों में कुल मौतों की संख्या अधिक क्यों है? पंजाब में हिमाचल, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर से सबसे अधिक मौतों का आंकड़ा क्यों है? याद रखा जाये कि पूरे कोरोना काल में पंजाब की औसत मृत्यु दर अपने पड़ोसी राज्यों से अधिक रही। क्या इसलिए कि यहां का मूलभूत चिकित्सा ढांचा सबसे फिसड्डी है? इसकी मरम्मत की घोषणायें हुईं तो सही, लेकिन वे वायवीय क्यों रही?
इस समय यह बात महत्व नहीं रखती कि कोरोना का यह मारक रूप विकराल क्यों हुआ? कुम्भ की वजह से या किसान मोर्चे के जमावड़े के कारण। इस समय जरूरत है इसके मृत्यु संदेश को थामने की। यह समय मौतों की संख्या पर दलगत राजनीति करने का नहीं या घटते आंकड़ों की लीपापोती से कोरोना लहर में गिरावट के सुखद संदेशों का नहीं है।
बल्कि जरूरत है स्वार्थपरक राजनीति या वोटों के लोभलुभावन सत्यों की आकर्षक बिसात बिछाने को छोड़ने का। उस सामूहिक प्रयास का, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र मानवीयता की भावना से प्रेरित होकर एक साथ आगे बढ़ें। मौत का चीत्कार भयानक है, अभी यह हमारे गांवों की ओर बढ़ा है। तीसरी लहर में हमारे नौनिहालों को खतरा होने की चेतावनी है। ऐसे आपातकाल के तकाजे अलग होते हैं, क्यों न इसे तुच्छ स्वार्थ की लक्ष्मण रेखाओं में कैद करने के स्थान पर मानव धर्म की ऊंचाइयों पर खड़ा करने का प्रयास किया जाये? समय की विभीषिका इनसानियत के एक स्वर से यही उम्मीद रखती है, इस पर पूरा उतरें।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।