अशोक गुलाटी
वर्ष 1960 के मध्य से 80 के दशक के बीच चली हरित क्रांति को सफल बनाने में पंजाब के किसानों की महती भूमिका पर देश को गर्व है। उस वक्त भारत में खाद्यान्न की भारी किल्लत थी, ऊपर से वैश्विक बाजार से अन्न खरीदने को जरूरी विदेशी मुद्रा की भारी कमी थी। उक्त परिदृश्य के आलोक में वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने रोजमर्रा की खुराक के खाद्यान्नों के न्यूनतम खरीद मूल्य तय करने में सुझाव देने हेतु ‘कृषि मूल्य निर्धारण आयोग’ बनाया था। साथ ही, अगर बाजार भाव से न्यूनतम समर्थन मूल्य कम रहता हो तो फसल खरीदने के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की स्थापना की गई थी।
यदि नये कृषि-कानून को लेकर हो रहे मौजूदा विरोध को समझना है तो उपरोक्त वर्णित परिदृश्य को ज़हन में रखना होगा। आज किसानों में यह डर है कि न्यूनतम खरीद मूल्य वाली पद्धति और प्रतिबद्ध खरीदी व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है, जिससे आगे कृषि उत्पाद विपणन कमेटी (एपीएमसी) मंडी प्रणाली, आढ़ती और राज्यों को करों से मिलने वाली आमदनी समाप्त हो जाएगी। हालांकि प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री लगातार भरोसा दे रहे हैं कि यह केवल भ्रांति है। उनका कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, जिस पर खरीद की जाती है, मंडियां और बाकी सब तंत्र पहले की तरह बना रहेगा, सिवाय इसके कि अब किसान के पास अपना उत्पाद स्थानीय मंडी से बाहर ले जाकर कहीं भी बेचने का विकल्प अलग से बनाया गया है। तो फिर नये कृषि कानूनों को लेकर विवाद क्यों है?
नि:संदेह जैसे-जैसे हालात बदलते हैं, वैसे-वैसे नीतियों और लोगों को नयी वास्तविकता के मुताबिक ढलना होता है। जो लोग बदलते वक्त के साथ बदलाव लाना नहीं चाहते, तो जड़ता चुनने की वजह से पीछे छूट जाते हैं। यह बात 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के एकदम बाद स्पष्ट देखने को मिली थी। याद रहे कि सितंबर माह के अंत तक एफसीआई के गोदामों में लगभग 7.5 करोड़ मीट्रिक टन अनाज और पंहुच जाएगा, जबकि नियमन 1 अक्तूबर तक वहां आपातकालीन स्टॉक के रूप में 3.8 मीट्रिक टन अन्न होना चाहिए। पिछले जून माह में यह मात्रा अभूतपूर्व 9.8 करोड़ मीट्रिक टन को छू गई थी, जो एफसीआई की भंडारण क्षमता के कहीं ज्यादा है। फटने के कगार पर आए अन्न गोदामों के अलावा देश का विदेशी मुद्रा भंडार फिलवक्त 540 खरब डॉलर को छू गया है, जबकि जून, 1991 में यह महज 1.1 खरब रह गया था। इसलिए समयानुसार अपनी नीतियों का पुनर्निधारण करने में ही समझदारी है और इसीलिए कृषि क्षेत्र में निजी व्यापार को बड़ी भूमिका देने की सोची गई है। लिहाजा तीन नए कृषि कानून बनाए गए हैंः
कृषि उत्पाद एवं व्यापार (उन्नति एवं सुविधाएं) कानून-2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं हेतु किसान (सशक्तीकरण एवं सुरक्षा) समझौता कानून- 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून-2020, ताकि कृषि में सटीकता से ध्येयों की प्राप्ति हो सके। इनका उद्देश्य है कि मौजूदा स्थानीय मंडी तंत्र को समाप्त किए बिना निजी भागीदारों को शामिल कर समानांतर प्रतिस्पर्धा बनाना। इससे बिचौलियों की जेब में जाने वाला किसानों का खर्च बचेगा। हालांकि जो कृषक उलीकी गई इस वैकल्िपक व्यवस्था को नहीं अपनाना चाहते, उनके लिए पुरानी मंडियों में जाकर अपनी चावल-गेहूं बेचने का अधिकार पहले की तरह रहेगा।
लेकिन पंजाब में सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों को इस पर यकीन नहीं है। सबसे पहले तो उन्हें डर है कि पंजाब सरकार को मंडी फीस और करों से मिलने वाला पैसा धीरे-धीरे कम होता जाएगा, जो कृषि उत्पाद की मंडी में लगी कीमत का 6 प्रतिशत होता है (फिलवक्त पंजाब सरकार को इस मद में लगभग 3,500 करोड़ सालाना कर मिलता है) यह फीस एफसीआई के नाम पर सरकारी एजेंसियां इकट्ठा करती हैं। दूसरा, आढ़तियों को डर है कि मंडी से बाहर बनी समानांतर नयी व्यवस्था से पैदा हुई प्रतिस्पर्धा के चलते उनकी 2.5 प्रतिशत आढ़त कमीशन में कमी होगी या हाथ से निकल जाएगी। आज किसान को आढ़त एवं मंडी फीस के रूप में कुल मिलाकर 8.5 प्रतिशत कर चुकाना पड़ता है, हालांकि जीएसटी सुधार लागू होने से पहले यह दर 14.5 फीसदी थी। समूचे देश में किसानों पर सबसे ज्यादा लेवी पंजाब में लगाई जाती है और एफसीआई के नाम पर एजेंसियां और बिचौलिये बीच में फायदा ले रहे हैं। इस तरह इकट्ठा हुई इस फीस और कमीशन को महालेखाकार ऑडिट नहीं कर पाता क्योंकि यह सामान्य बजट का हिस्सा नहीं है, इसलिए यह वक्त के हुक्मरान राजनेताओं का सर्वाधिकार है कि इसको जैसे चाहे इस्तेमाल करें। इसमें कोई शक नहीं कि इस धनराशि का बड़ा हिस्सा मंडियों को जोड़ने वाली ग्रामीण सड़कें बनाने में लगाया जाता है, लेकिन आज की तारीख में पंजाब में मंडियों तक पहुंचने के लिए जो सड़क तंत्र जरूरी है, वह पहले से ही मौजूद है।
जरूरी है कि खाद्य प्रसंस्करण और निर्यात के लिए जरूरी माल की आपूर्ति कड़ी बनाने में प्रतिस्पर्धा बने और कृषि क्षेत्र में और ज्यादा निवेश आकर्षित किया जाए। लेकिन यदि निजी व्यापारी को, मसलन किसी प्रसंस्करणकर्ता या निर्यातक को गेहूं की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करने के अलावा आढ़त एवं फीस के रूप में 8.5 प्रतिशत अतिरिक्त चुकाना पड़े तो वह आगे बाजार में अपने उत्पाद का प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य पेश करने से पहले ही बाहर हो जाएगा। इसके चलते जिन निवेशकों ने पंजाब में कृषि संबंधित उद्योगों में पैसा लगाना होगा, वे उन राज्यों का रुख कर लेंगे जहां नये कानूनों के मुताबिक उन्हें माकूल हालात मिलेंगे, उदाहरणार्थ उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश। तब पंजाब को खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र से पैदा होने वाली रोजगार संभावनाओं और संभावित जीएसटी कर से महरूम रहना पड़ेगा। इसलिए पंजाब को अपने विकल्प बहुत सोच समझकर तोलने होंगे, क्या गेहूं-चावल के फसल चक्र और न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था में फंसकर यहीं रहना है या फिर उच्च-मूल्यीय फसलों एवं खाद्य प्रसंस्करण वाली विविधता अपनानी है।
यहां मैं प्रो. एसएस जोहल द्वारा 1980 के दशक में उठाई आवाज फिर से याद दिलवाना चाहूंगा, जब उन्होंने कहा था कि समय आ गया है कि पंजाब अपनी खेती को उच्च-मूल्यीय कृषि एवं उत्पादों की ओर मोड़े। परंतु पंजाब ने इस नेक सलाह को नहीं माना। आज गेहूं-चावल चक्रीय कृषि किसानों और पंजाब पर कहर बरपा रही है। एक तो भूमिगत पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है, तिस पर मुफ्त बिजली और चावल की मुक्त बाजार खरीद अतिरिक्त बोझ डाल रही है। धान की फसल के अवशेष जलाने वाली प्रथा अलग से चिंतायोग्य कारण है।
एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक समूचे देश के परिप्रेक्ष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था से केवल 6 प्रतिशत किसान लाभार्थी हैं। जाहिर है इसमें ज्यादातर कृषक पंजाब से हैं परंतु इस सहूलियत का दुष्प्रभाव यह भी है कि इसने पंजाब को उच्च-मूल्यीय खेती उत्पादों वाली विविधता अपनाने से रोक रखा है। यह ठीक है कि बाकी राज्यों के मुकाबले आज पंजाब के किसानों की औसत आमदनी ज्यादा दिखाई देती है, लेकिन मुख्यतः यह इसलिए भी है कि पंजाब के किसान के पास औसतन 3.62 हेक्टेयर भूमि है जबकि राष्ट्रीय औसत 1.08 हेक्टेयर है। लेकिन किसी राज्य के समूचे बुवाई क्षेत्र के मुताबिक प्रति हेक्यटेर-प्रति व्यक्ति कृषि आय में पंजाब का स्थान काफी नीचे है। यह वक्त सचमुच पंजाब के जागने का है!
लेखक आईसीआरआईईआर में इन्फोसिस कृषि-पीठ में प्रोफेसर हैं।