तर्कसंगत नीति बने
अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धा में स्वर्ण रजत, कांस्य, पदक जीतने वाले खिलाड़ी देश का गौरव बढ़ाते हैं। ओलंपिक खेल में प्रत्येक प्रतिभागी जीतने का हरसंभव प्रयास करता है। विजेता होने पर केंद्र अथवा राज्य सरकारें उचित पुरस्कार, नौकरी प्रदान कर खिलाड़ी का उत्साहवर्धन करती हैं। लेकिन सम्मान पुरस्कार निधि में एकरूपता का अभाव पदक विजेता खिलाड़ियों में हीन भावना को जन्म देती है। केंद्र सरकार को कोई ठोस तर्कसंगत पुरस्कार नीति अपनाकर खिलाड़ियों को उनके योगदान के लिए समान सम्मान राशि प्रदान करनी चाहिए ताकि खिलाड़ियों में कोई कमी न खले।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल
नीतिगत फैसला हो
इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि विजेता पुरस्कार का हक़दार ही नहीं होता अपितु पुरस्कार उस का अपने खेल में नये कीर्तिमान स्थापित करने के लिये उत्साहित करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि जो खिलाड़ी प्रतियोगिता में नहीं जीत पाया उसका परिश्रम भी किसी प्रकार से कम था। अत: पुरस्कार वितरण में संतुलन अत्यधिक आवश्यक है। विजेताओं के साथ-साथ उन सभी खिलाडि़यों को भी पुरस्कार मिलना चाहिए जिन्होंने ओलिम्पक में जाने का अवसर पाया ताकि वे भविष्य में विजयी होने के लिये प्रोत्साहित हो सकें।
अनिल शर्मा, चंडीगढ़
एकरूपता हो
अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में एक पदक लाने में खिलाड़ी तथा परिवार वालों का त्याग और तपस्या भी होती है। कई सालों की मेहनत के बाद एक खिलाड़ी इस मुकाम पर पहुंचते हैं। मगर स्वदेश लौटने पर इन खिलाड़ियों को अपने अपने प्रदेश के हिसाब से अलग-अलग धनराशि से पुरस्कृत किया जाता है। इन खिलाड़ियों को मिलने वाली राशि में एकरूपता होनी चाहिए। एक राष्ट्रीय नीति के तहत इन खिलाड़ियों को राजनीति से ऊपर उठकर एक समान धनराशि देकर सम्मानित किया जाए तो वे और भी ज्यादा गौरवान्वित महसूस करेंगे।
पूनम कश्यप, बहादुरगढ़
केंद्र ही दे पुरस्कार
अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में देश का मान बढ़ाकर पदक लाने वाले खिलाड़ियों को बड़े पुरस्कार देकर उनका सम्मान करना हम सब देशवासियों का कर्तव्य है। लेकिन इस में एकरूपता भी होनी चाहिए। भारतीय ओलम्पिक संघ की सिफारिश के अनुसार स्वर्ण पदक के लिए 75 लाख, रजत के लिए 40 लाख व कांस्य पदक के लिए 25 लाख रुपये की धनराशि पुरस्कार स्वरूप दी जानी चाहिए। इस प्रकार अलग-अलग प्रदेशों में पुरस्कार राशि भी अलग-अलग है। ऐसे में कम पुरस्कार राशि मिलने वाले खिलाड़ी का उत्साह कम होना स्वाभाविक है। खिलाड़ी किसी प्रदेश का हो वह प्रतिस्पर्धा में अपने देश भारत का प्रतिनिधित्व करता है। अतः ये पुरस्कार भी उन्हें भारत सरकार की ओर से मिलने चाहिए।
शेर सिंह, हिसार
मनोबल न गिरे
प्रत्येक खेल का खिलाड़ी अपनी तरफ से पूरी मेहनत करता है कि वह खेल में शानदार जीत हासिल करे। इसलिए पदक विजेताओं की पुरस्कार नीति ऐसी होनी चाहिए कि हर खेल के खिलाड़ियों के हर पदक, चाहे वो सोने का हो, चांदी, कांस्य या फिर अन्य कोई भी, सभी को एक जैसे पुरस्कार दिए जाने चाहिए, ताकि किसी भी खिलाड़ी का मनोबल कम न हो। अक्सर देखा गया है कि जब कोई खिलाड़ी किसी खेल प्रतियोगिता में जीतता है तो उस पर पुरस्कारों की बौछार की जाती है, लेकिन बाद में उसका हाल तक सरकारें नहीं पूछतीं।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
समान राशि मिले
देश की खेल नीति तब बेमानी-सी लगती है कि जब एक ही खेल के दो खिलाड़ियों को राज्य सरकारों द्वारा अलग-अलग नकद पुरस्कार दिए जाते हैं। कई राज्यों में तो खेलों के सम्बन्ध में कोई नीति ही नहीं है इसलिए मेडल लाने वाले खिलाड़ियों को उचित प्रोत्साहन नहीं मिलता। इस बार छह खेलों में सात मेडल देश की झोली में आए हैं परन्तु मेडल लाने वाली खिलाड़ियों को पुरस्कार राशि समान रूप से नहीं मिलेगी क्योंकि खेल नीति में कोई एकरूपता नहीं है। नकद राशि सभी खिलाड़ियों को समान रूप से मिलनी चाहिए अन्य सुविधाएं राज्य सरकारें अपने हिसाब से दे सकती हैं।
जगदीश श्योराण, हिसार
पुरस्कृत पत्र
खेल कोष बने
खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में राष्ट्र के लिए पदक जीतते हैं, मगर प्रांतीय आधार पर पुरस्कृत होते ही राष्ट्रीयता गौण हो जाती है। राष्ट्रीयता को क़ायम रखने और पुरस्कार राशि में एकरूपता लाने के लिए भारत सरकार के युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय के राष्ट्रीय खेल विकास कोष का उपयोग किया जा सकता है। राज्य और केंद्र सरकार पदक विजेताओं के लिए प्रतियोगिता से पहले ही इनाम की राशि घोषित करे। फिर जितने खिलाड़ी पदक जीतें उस हिसाब से कोष में राशि जमा करा दें। इस तरह से जमा राशि को पूल करके विजेता खिलाड़ियों में, जीते हुए पदक के अनुसार, बराबर रूप से बांट दिया जाये।
बृजेश माथुर, गाज़ियाबाद
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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