रोहित महाजन
परिस्थितियां अलग हैं, तस्वीरें अलग हैं। एक तरफ हो सकता है कुछ लोगों के बच्चे किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए फॉर्म भर रहे हों। या यह भी हो सकता है कि वे कनाडा में पीआर के लिए आवेदन कर रहे हों, लेकिन वहीं एक दूसरी तस्वीर भी है जब बेरोजगारों, निर्माण मजदूरों या गरीब किसान के बच्चे पनियल दूध और दाल रोटी के आहार के बाद कोई हॉकी स्टिक या पैरों से गेंद खेलकर कड़ी मेहनत कर रहा हो। या फिर कुश्ती अखाड़े में एक पेड़ पर रस्सी बांधकर उस पर चढ़ता, उतरता हो, या एक झोपड़ी में कुछ वजन उठाते हुए कसरत करता हो। यही सब तो गरीबों के लिए जिम की तरह हैं। ऐसी ही कठिन परिस्थितियों से निकले लोग मैरी कॉम, मीराबाई चानू, रानी रामपाल और सलीमा टेटे, रमेश जाधव और सुमित कुमार, विजेंद्र सिंह और डिंग्को सिंह बनते हैं। वे अंग्रेजी बोलते या लिखते हैं तो हंसी के पात्र बन जाते हैं। वे सांवले होते हैं, चमड़ी में झुर्रियां दिखती हैं, ऐसे माहौल से आए पहलवानों के कान बेहद सूजे हुए होते हैं जिन्हें वे बेतरतीब हेयरस्टाइल से छिपाने की कोशिश करते हैं। बचपन में कुपोषित ये बच्चे बेशक मरियल से होते हैं, लेकिन तेज़-तर्रार होते हैं। उनके पास ऐसा कुछ नहीं होता जिसके चलते उनसे ईर्ष्या की जाये, लेकिन वे सोना जीतते हैं। ये वे बच्चे हैं जो एशियन गेम्स और कॉमनवेल्थ गेम्स में और कभी कभार ओलंपिक गेम्स में भी मेडल जीतकर आपका सीना गर्व से चौड़ा कर देते हैं।
मिलिये भारत के स्पोर्ट्स चैंपियंस से
भारतीय खेल गरीबों द्वारा संचालित (पावर्ड) हैं। वे शौकिया या मनोरंजन के लिए खेलने वाले नहीं हैं। खेल के मैदान में वह विलासिता के लिए समय नहीं बिताते, उनके परिवार उनके लिए तभी कुछ आर्थिक खर्च उठा पाने की स्थिति में होते हैं जब वे खेत में, निर्माण स्थल या ढाबे पर काम कर उनकी वित्तीय मदद करते हैं। जो चीज उन्हें पेशेवर खिलाड़ी बनाती है, वह है बेहतर जीवन का लालच-एक सरकारी नौकरी, नकद पुरस्कार, जिसके चलते वे सबसे पहले अपने परिवार के लिए एक घर खरीदते हैं।
मणिपुर के नोंगपोक काकचिंग गांव में अपने घर में फर्श पर बैठकर जब मीराबाई ने भोजन करते हुए अपनी एक तस्वीर पोस्ट की, तो लोग यह देखकर हैरान रह गए कि एक ओलंपिक रजत पदक विजेता, एक पूर्व विश्व चैंपियन इतनी मामूली परिस्थितियों में रह रही थीं। जी हां, यह बात सच है कि ऐसी रानियां महलों में नहीं रहती। हमारी खेल रानियां और राजा वास्तव में गरीब हैं, जो अपना खून-पसीना बहाकर चैंपियन बने हैं। उन्होंने जो हासिल किया है उस पर गर्व करने का उनके पास हर दृष्टिकोण से कारण है और हमारे अभिजात्य और कुलीन वर्ग के कुछ लोगों का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने तो हमेशा अपनी सुख-सुविधाओं का उपयोग किया। लेकिन गरीबों और वंचितों के लिए सामाजिक सुधार के अन्य सभी रास्ते बंद कर दिए।
भारत की हॉकी कप्तान रानी रामपाल का जन्म गरीबी में हुआ। पिता रामपाल ने निर्माण स्थलों पर सामान ढोने का काम किया और मां राममूर्ति लोगों के घरों में काम करतीं। रानी जब प्रसिद्ध हुईं और पत्रकार हरियाणा के शाहबाद मारकंडा में उनके उस घर में गये जो अब तक अनाम सा था, तो उसके आसपास का माहौल भले ही बेहद साधारण सा लग रहा था, लेकिन अपने खेल के बारे में वह पूरी तरह से आश्वस्त थीं। आर्थिक रूप से मजबूत होने के बाद सबसे पहले रानी ने अपने माता-पिता के लिए एक घर खरीदा और अपने पिता को उस काम से मुक्त होने के लिए तैयार किया जो वह जीवनभर सामान ढोने के तौर पर करते आ रहे थे।
टीम में रानी की भरोसेमंद सहयोगी सलीमा टेटे झारखंड के एक छोटे से किसान की बेटी है, जहां परिवार अभी भी मिट्टी के घर में रहता है। 20 वर्षीय सलीमा अपने गांव के आसपास के टूर्नामेंटों में, विशेष रूप से बड़े और पुराने खिलाड़ियों के खिलाफ जोरदार डिफेंडर के साथ उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाली खिलाड़ी रही हैं। टोक्यो में कांस्य पदक के प्लेऑफ़ में ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ, सलीमा ने अथक परिश्रम के साथ जो धैर्य और गति की लौ बनाये रखी, उससे वह चमक उठीं। उन्होंने अपने परिश्रम का लोहा मनवाया। असल में यह सब इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि बचपन में उन्होंने हॉकी में बहुत कठिन तपस्या की है। उन्हें हॉकी के मैदान पर मजबूत खिलाड़ियों के खिलाफ खड़ा किया गया था और वह उन टीमों में स्टार खिलाड़ी थी जिन्हें पुरस्कार के रूप में मुर्गियों और बकरियों से सम्मानित किया जाता था।
दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ हैट्रिक बनाने और ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ गोल दागने वाली वंदना कटारिया को उनके पिता का भरपूर साथ मिला हालांकि पिता की पीएसयू में मामूली नौकरी थी और घर में पैसे की तंगी थी। वंदना के जीवन का सबसे गौरवपूर्ण क्षण तब आया, जब जूनियर टीम में उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया। एक समय खेल में निराशा ने वंदना को आत्महत्या के कगार पर धकेल दिया था। अच्छी बात रही कि उन्होंने खुद को मजबूत बनाये रखा और किस्मत से उन्हें भारतीय रेलवे में टिकट चेकर की नौकरी मिल गई। वह 2016 में रियो ओलंपिक में खेलने वाली भारतीय टीम में शामिल हो गईं। पत्रकार जब उनके पिता का इंटरव्यू करने के लिए उनके घर आए तो उनके पिता की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा कि देश के लिए सबसे शर्मनाक क्षण तब आया जब कुछ लोग उसके घर के बाहर जमा हो गए और जातिवादी गालियां देते हुए कहने लगे, ‘भारत सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से इसलिए हार गया क्योंकि राष्ट्रीय टीम में बहुत सारे दलित खिलाड़ी थे।’ उनका कहना था कि सुविधासंपन्न लोग यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं-समाज के जिन लोगों ने हमेशा उन्हें हाशिये पर रखा वे क्यों अचानक समानता की बात करते हैं यहां तक कि वरिष्ठों की तरह व्यवहार करना शुरू कर देते हैं? खुद से पूछें क्या हम वंदना के लायक हैं?
निराशाजनक स्थिति
गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले युवा खेलों से क्यों जुड़ते हैं? साथ ही यह भी कि क्यों युवा सेना में बतौर जवान भर्ती होते हैं? क्या वे आपसे या मुझसे ज्यादा देशभक्त हैं? सेना में सेवारत पंजाब के एक स्पोर्ट्स शूटर से हमने यही पूछा। उन्होंने कहा,‘कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मेरे गांव में स्कूल बहुत बुरी हालत में है, टीचर कई दिनों तक नहीं आते, हमारे पास जमीन थोड़ी सी है। सेना में भर्ती होने के बाद मेरा जीवन सुरक्षित हो गया- मैं जानता हूं कि अगर सैन्य सेवा करते मैं मर भी जाऊं तो मेरे परिवार का ख्याल रखा जाएगा।’
ऐसी ही हताशा के कारण गरीब किसानों, भूमिहीनों या निर्माण स्थल के श्रमिकों के परिवार अपने बच्चों को खेलों में भेजते हैं। 2018 एशियाई खेलों में दो रजत पदक जीतने वाली भारत की सर्वश्रेष्ठ धावक दुती चंद के पास अब लग्जरी कारें हैं। असल में वह बुनकरों के परिवार से ताल्लुक रखती हैं, जिनके पास मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता था। उनकी बड़ी बहन राष्ट्रीय स्तर की धाविका बन गई तो उन्होंने दुती को दौड़ने के लिए प्रेरित किया। नीरस और बोझिल जीवन से बाहर निकलने का यही उनका एकमात्र तरीका था। असल में कम उम्र में शादी, बच्चों की देखभाल, करघे या खेत में मेहनत मजदूरी जैसी ही जिंदगी उनकी पीढ़ियों से चली आ रही थी। दुती निराश थी। उसी हताशा, दृढ़ इच्छाशक्ति और कड़ी मेहनत ने उन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ धावक बना दिया। बेशक वह टोक्यो में नहीं चमक पाईं। ऐसे कई लोग हैं जो कभी एक दौड़ भी नहीं जीत सकते, और जो अपने बच्चों को डॉक्टर बनाने के लिए कड़ी मेहनत करने के लिए मजबूर करते हैं, शायद ऐसे लोगों ने कहा होगा, ‘ये बेकार एथलीट कौन हैं जिन्हें हम ओलंपिक में भेजते हैं?’ लेकिन याद रखें, दुती भारत की सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं। एशियाई खेलों में दो बार की पदक विजेता केरल मैराथन की ओपी जैशा का बचपन बहुत ही भयानक था- पिता की मृत्यु, फिर परिवार की आय का स्रोत तीन गायों का नुकसान। खाना कम था, और जैशा को याद है कि उन्होंने पेट भरने के लिए मिट्टी तक खाई थी।
बैडमिंटन खिलाड़ी और कोच पी गोपीचंद की मां 2 रुपये बचाने के लिए धूप में मीलों पैदल चलकर जाती थीं ताकि उनका बेटा अभ्यास के लिए शटल खरीद सके।
रानी की मां आधी रात को जाग जाती थीं ताकि उनकी बिटिया सुबह जल्दी हॉकी अकादमी पहुंच सके-उनके घर में कोई घड़ी नहीं थी। रानी के कोच कहते थे कि प्रत्येक बच्चा प्रशिक्षण के बाद पीने के लिए अकादमी में 500 मिली दूध साथ लेकर लाए – रानी को दूध की मात्रा 500 मिली बनाने के लिए पानी मिलाना पड़ता था।
सोनीपत के एक कारखाने में दिहाड़ी मजदूर की बेटी नेहा गोयल को घर में बमुश्किल पेटभर खाना मिल पाता था। मुफ्त भोजन की संभावना से वह भारत की पूर्व कप्तान प्रीतम रानी सिवाच की अकादमी की ओर आकर्षित हुईं।
आखिर कैसे मिली सफलता
दुती भारत की सर्वश्रेष्ठ बन गईं क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प था ही नहीं- दुती के पेट में वैसी ही आग थी जैसी भारोत्तोलक मीराबाई चानू या मुक्केबाज सरिता देवी या रोवर दत्तू भोकानल या मुक्केबाज सिमरनजीत कौर या रेस-वॉकर खुशबीर कौर के। वे सभी भारत, बल्कि कुछ मामलों में एशिया और दुनिया की चैंपियन बनने के लिए गरीबी और सभी बाधाओं से लड़े और आगे बढ़े।
यह पेट की आग है – जीवित रहने की जरूरत है, और जरूरी नहीं कि खेल के लिए प्यार हो। 2016 में सेवानिवृत्त होने से पहले भारत के राष्ट्रीय मुक्केबाजी कोच के रूप में लंबे समय तक सेवा करने वाले गुरबक्श सिंह कहते हैं, ‘हमारे अधिकांश मुक्केबाज ग्रामीण भारत से आते हैं, निम्न या मध्यम वर्ग की पृष्ठभूमि से। उनकी पहली चिंता रोटी और नौकरी है। वे हताश हैं। इसीलिए खेल के माध्यम से सफल और सुरक्षित होने को जी-जान लगा देते हैं।’
भारतीय राज्य सरकारी नौकरियों में खिलाड़ियों के लिए एक कोटा प्रदान करते हैं हालांकि, पेशेवर खिलाड़ियों को किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के आधार पर नौकरी नहीं मिलती है- उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने के बाद नौकरी मिलती है।
अन्य राज्यों के मुकाबले हरियाणा में सबसे अच्छी व्यवस्था है। यही कारण है कि टोक्यो में भारत के लगभग 24 प्रतिशत एथलीट हरियाणा से थे, जबकि यहां की आबादी भारत की आबादी का लगभग 2.1 प्रतिशत है।
हरियाणा के युवा पहलवान दीपक पुनिया, टोक्यो में कांस्य पदक की लड़ाई लड़ रहे थे। वह 2.5 करोड़ रुपये से महज 10-सेकेंड दूर रह गये। असल में हरियाणा में कांस्य पदक पर यही राशि मिलती है। पुनिया ने अंक गंवाए और हार गए। वह सरकारी नौकरी पाने का मौका भी गंवा बैठे। बेशक सरकारें अपने होनहार खिलाड़ियों को ऑफर कर रही हैं। रवि दहिया को पैसा और नौकरी दोनों मिलने की घोषणा हो गयी। कुल 4 करोड़ रुपये और हरियाणा सिविल सेवा या पुलिस सेवा में प्रतिष्ठित पद मिलेगा।
हरियाणा टीम की नौ महिलाओं को भी यूनाइटेड किंगडम के खिलाफ कांस्य पदक मैच में हारने पर 2.5 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। राज्य की नीति के अनुसार, प्रत्येक 15 लाख रुपये के हकदार थे – हालांकि, राज्य सरकार ने इस राशि को बढ़ाकर 50 लाख रुपये कर दिया। जो पिछले दिनों एक सम्मान समारोह में खिलाड़ियों को दिया भी गया।
यह पैसा यूं तो अच्छा लगता है, लेकिन याद रखें, खेल में करिअर कम है और जब आप राष्ट्रीय टीम से बाहर होते हैं तो पैसा बहुत जल्दी खत्म होने लगता है। कुछ खिलाड़ियों के लिए, यह उन्हें मिलने वाला एकमात्र वास्तविक मौद्रिक पुरस्कार हो सकता है।
नौकरियों का मिलना निश्चित नहीं है – टोक्यो में अपने शानदार काम के बाद एक नायिका के रूप में उभरीं गोलकीपर सविता पुनिया को सिर्फ वजीफा मिलता है और वह वर्षों से राज्य सरकार से नौकरी के लिए याचना कर रही हैं।
हमारे खिलाड़ियों के लिए और अधिक नकद पुरस्कार होंगे-शायद एक कार या दो भी हो सकती हैं, और आवासीय प्लॉट। आखिर जीवन भर जो दर्द इन्होंने सहा और जो महत्वाकांक्षाएं रही हैं, उसके बदले कुछ तो मिले। असल में, यही सब चीजें हैं जिनके लिए खिलाड़ी खेल के मैदान में उतरते हैं। खेलों में आने का कारण आजीविका, मेज पर सजी भोजन की थाली, नौकरी, अपने और अपने परिवार के जीवन को सुरक्षित करने के लिए वे जी-जान लगा देते हैं। ये खिलाड़ी भारत का गौरव हैं-अपनी उपलब्धियों से उन्हें गर्व होना ही चाहिए। हमें उन्हें सम्मान देना चाहिए, हमारी सरकार को, समाज को और राष्ट्र को भी यह सब देना चाहिए। इन सब पर तो विचार किया ही जाना चाहिए। आखिर हम उन्हें चार साल में एक बार याद करते हैं। इन खिलाड़ियों का जीवन प्रेरक तो है ही, विचारणीय भी है।
(साथ में करम प्रकाश और गौरव कंठवाल)