अविजीत पाठक
वैश्विक महामारी वाले माहौल में, जहां हमारे चारों ओर निराशा का अंधकार व्याप्त है, उसके बावजूद जिंदगी को पटरी पर लाने और पुनः भय मुक्त जिंदगानी पाने की जिजीविषा कायम है। यह मई का ही महीना था जब भारत भूमि पर दो महान आत्माओं का अवतरण हुआ था–रबीन्द्रनाथ टैगोर (7 मई, 1861) और जी. कृष्णमूर्ति (11 मई, 1895)। आज साल 2021 का मई माह चल रहा है, हालांकि, हम सब अंदर से बिखरे और आहत हैं, फिर भी हमें अपने भीतर रोशनी की अनुभूति रखनी होगी और विचार करना होगा कि जिसे हम मुख्यधारा एवं मानक शिक्षा पद्धति कह रहे हैं, उसके नाम पर क्या चल रहा है। इस भ्रष्टाचार भरे युग में जहां बाजारोन्मुख उत्पादकता, उपयोगिता, दक्षता बनाने का सिद्धांत हावी है, बहुत से लोग कवि हृदय या यायावरी वाली बात करने को इच्छुक नहीं होंगे। तथापि, वे लोग जो मौजूदा शिक्षा नीति के स्वरूप से नाखुश हैं, जिसके अंतर्गत अनिवार्य रूप से स्कूल जाना, कोचिंग सेंटरों का उपयोग, रट्टा मारना, परीक्षाएं लेने पर जोर, बच्चों के बीच उच्च प्रतिस्पर्धा बनाने पर ही ध्यान केंद्रित रहे किंतु आध्यात्मिक पहलू नदारद हैं। जबकि होना यह चाहिए कि बच्चों को टैगौर या कृष्णमूर्ति के विचारों वाली शिक्षा मिले, मुक्त माहौल वाली शिक्षा बनाना और मतभेद का स्वर उठाना सिखाया जाए, भले ही संस्थान के ‘मशीनी-प्रबंधक’ इस विचार को कोरी कल्पना बताकर इसका मोल न समझें।
आइए पहले जानें कि कवायद और अनुशासनात्मक तौर-तरीके, निगरानी वाली इस आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने हमारे बच्चों को क्या बना डाला है। इसने छात्रों के चारों ओर नकली आवरण पैदा कर दिया है, उनकी स्वच्छंदता के पर कतर दिए और रचनात्मक जीवन के प्रवाह को बाधित कर दिया है, उनके वजूद को अप्राकृतिक बना डाला है। शिक्षा संस्थानों की ऊंची दीवारें, सीसीटीवी निगरानी और घड़ी से बंधे हुए विभिन्न पीरियडों का आतंक, जिनमें तथाकथित ज्ञान दिया जाता है और विद्यार्थी पर लगातार बढ़िया करने का दबाव है, मानो स्कूल न होकर कोई जेल है। क्या इसी को स्कूली पढ़ाई कहेंगे जो बच्चे को अंततः समाज से कटा हुआ कार्मिक या अनियंत्रित उपभोक्ता बना डाले?
अब देखते हैं टैगौर कैसी शिक्षा प्रणाली बनाना चाहते हैं। यानी एक काव्यात्मक बुद्धिमत्ता। वे कवायदों में बंधी शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध थे, उनकी इच्छा जेल सरीखे स्कूली ढांचे हटाकर आधुनिक तपोवन बनाने की थी, सीखने की सतत इच्छा रखने वाले ऐसे समुदाय का निर्माण, जहां बच्चे और उनके मार्गदर्शक प्रकृति-प्रचुर परिवेश में गहरी एकात्मकता बनाते हुए मिलकर विकास करें। जहां प्रकृति सुकून देती है, परिदृश्य को निहारना और वृक्षों की फुसफुसाहट से जुड़ाव, बारिश के मौसम में बादलों की अठखेलियों का रोमांच और चमकते चांद की चांदनी में नहाने से बनाया नाता शिक्षा को नये अर्थ दे सकता है। उम्र का यह पड़ाव कक्षा की चारदीवारी में कैद होकर, समयबद्ध पीरियड में कीट्स की कविताएं यंत्रवत पढ़ने-पढ़ाने के लिए नहीं है, यह तो खुद एक कविता बन जाने जैसा है। दूसरे शब्दों में, यह सौंदर्यबोध से परिपूर्ण और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नजरिया रखने वाला इनसान बनाने की जमीन तैयार करना है। यह, गुरुदेव की कामना वाला शिक्षा का असली तत्व है। अफसोस कि स्कूल की नीरस दुनिया में शायद ही हमारे किसी प्राध्यापक ने इंगिलश व्याकरण या गणित सिखाने से परे का उपाय कभी सोचा हो।
दूसरा, जिस किस्म का शिक्षा का मौजूदा ढांचा है, उसने छात्र की यायावर होने की लालसा को खत्म कर डाला है या वैसा मनुष्य बनने की जो सीमाओं से परे जाकर देख-समझकर अपनी समझ विकसित करे या फिर वह जो लगातार नया सीखते-भूलते के क्रमिक विकास से शिक्षित हो। इन दिनों, हम कामना करते हैं ऐसे बच्चे की जो चतुर रणनीतिकार, परीक्षा-वीर और कक्षा में प्रथम रहे। इस तरह स्कूल में उनकी समझ यह यकीन करने वाली बना दी जाती है कि ज्ञान और कुछ नहीं बल्कि आधिकारिक पाठ्यक्रम है, जैसे कि आईआईटी में प्रवेश के इच्छुकों के लिए भौतिकी केवल एफआईआईटी फिजिक्स या गणित जैसा उपभोक्ता उत्पाद है, जो कोटा के कोचिंग केंद्रों में मिलता है।
वहीं जी. कृष्णमूर्ति के लिए छात्र की ‘अनुकूलता’ करना, तरक्की को बाधित कर देता है, यह उन्हें जिंदगी की लय-ताल से नया सीखने और पुराना भूलने के नाकाबिल बनाता है क्योंकि जीवन की प्रफुल्लता अनिश्चितता और अकल्पनीयता में छिपी होती है। कृष्णमूर्ति याद दिलाते हैं कि सत्य किसी विशेष मार्ग पर चलकर नहीं मिलता। लेकिन हमारी शिक्षा बच्चे को एकल-आयामीय बना डालती है। कोई हैरानी नहीं कि इस किस्म की बौद्धिक अनुकूलता से दिमाग सदा भयग्रस्त रहता है। वह जोखिम उठाना पसंद नहीं करता, स्थापित ढर्रे से परे नहीं देखता, वह कोई ऐसी राह नहीं चुनता जो रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता वाली मार्गहीन यात्रा हो। अतएव परीक्षा आधारित रिवायती शिक्षा दूसरे बच्चे के मानस में दूसरों से तुलना करने, असफल रहने का डर, पीछे छूटने का भय या फेल होने पर सामाजिक शर्मिंदगी झेलने का तनाव पैदा करती है। शिक्षकों, शिक्षाविदों और विद्यार्थियों से, साथ अपने जीवन-पर्यन्त आख्यानों में कृष्णमूर्ति शिक्षा को बुद्धिमत्ता जगाने, स्व-अन्वेषण करने, जीवन के प्रति संवेदनशील या खोज करने की इच्छा जगाने का महत्व समझने का सुझाव देते रहे।
जो दुनिया हमने बनाई है, अगर उसे देखें तो इसमें धर्म हठधर्मिता है, राष्ट्रवाद एक तरह की बाहुबली आक्रामकता दिखाने का जरिया है, ‘अच्छी जिंदगी’ का अर्थ रास-रंग आधारित उपभोक्तावाद है, प्रकृति को तकनीक-विज्ञान की जीत में एक बाधा माना जाता है, सामाजिक डार्विनवाद प्रिय मंत्र है यानी जीवित रहने को आगे बने रहना जरूरी है। सफलता दूसरों को हराने में मिला ‘आनंद’ है। शिक्षा के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह एक कुरूप दुनिया बनाने से परे नहीं ले जा सकता। वास्तव में, ऐसी शिक्षा ही हिंसा की संस्कृति को बार-बार पैदा कर रही है। इस किस्म की शिक्षा ने मौजूदा वैश्विक महामारी के समय एक बार फिर से अपना अमानवीय रूप दिखाया है। शिक्षा विभाग के नौकरशाहों ने लचीलापन दिखाने से किनारा कर लिया, ‘ऑनलाइन पढ़ाई’ जिसका ध्येय केवल आधिकारिक पाठ्यक्रम पूरा करवाना, परीक्षा लेना और ग्रेड बांटना है, इससे परे इनकी सोच है ही नहीं। ऐसे वक्त में, जब मानसिक संतुलन और वजूद पर बन आई हो, वे शिक्षकों से यंत्रवत केवल डाटा मुहैया करवाने की उम्मीद रखते हैं ताकि अपने से ऊपर अधिकारियों को वांछित सूचनाएं, जैसे कि हाजिरी और ग्रेड का आंकड़ा पहुंचा सकें। जब ‘सब चलता है’ वाली दुनिया ढह रही हो, ऐसे वक्त पर शिक्षा के प्रति इस किस्म का खोखला रवैया रखना गंभीरता से नितांत परे है।
तथापि हम में कुछ ऐसे लोग हैं जो अलग सोच रखने की जुर्रत रखते हैं। बतौर एक शिक्षक, मेरा यकीन है कि वे टैगोर और कृष्णमूर्ति के विचारों को पढ़कर, मनन कर, ऐसी शिक्षा पद्धति बनाने हेतु पुनर्विचार करेंगे जो हमें शिद्दत से शालीनता एवं अर्थपूर्ण जीवन जीने और मृत्यु का ढंग सिखाए।
लेखक समाजशास्त्री हैं।