ज्ञानेन्द्र रावत
भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रुधिर में वीरता का प्रादुर्भाव हो, विजयादशमी मनाये जाने के पीछे यही भावना अहम है। इस पर्व को लोकमाता भगवती विजया के पूजन के नाम पर भी विजयादशमी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय मुहूर्त’ होता है, और यह काल सर्व सिद्धिदायक होता है, इसलिए इस दिवस को विजयादशमी कहते हैं। विजयादशमी के दिन ही श्री रामचन्द्र जी ने लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था- ‘अथ विजयदशम्यामाश्विने शुक्लपक्षे दशमुखनिधनाय प्रस्थितों रामचन्द्रः।’ अर्थात् आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी को दशमुख रावण वध के लिए श्री रामचन्द्र जी ने प्रस्थान किया था। तदुपरांत रावण वध किया था। नवरात्र के शक्ति उपासना के नौ दिनों के उपरांत मनाया जाने वाला यह उत्सव मूलतः शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला प्रमुख पर्व है। यह पर्व हमें दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की प्रेरणा देता है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि यद्यपि राम ने लंकाधिपति रावण पर विजय प्राप्ति की थी, लेकिन उनका शत्रु रावण नहीं बल्कि उसका पापाचार था, दुराचार था, अधर्म था, असत्य का मार्ग था। यदि लंका को जीतना ही श्रीराम का उद्देश्य होता तो जीती हुई लंका रावण के ही भाई विभीषण को वे लौटा नहीं देते। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि विभीषण का मार्ग धर्म का था और वह सत्य के मार्ग का अनुयायी था। यथार्थ में श्रीराम मात्र रावण विजेता नहीं थे, असलियत में वह कर्म विजेता थे। उन्होंने शत्रु यानी दुराचार, अधर्म और असत्य को परास्त कर धर्म, सदाचरण और सत्य की प्रतिष्ठा की। श्रीराम ने युद्ध से पूर्व शक्ति की पूजा की, आराधना की, साधना की और शक्ति प्राप्त कर विजय प्राप्त की, इसलिए बाह्य साधनों के साथ-साथ आंतरिक शुद्धता, शक्ति संपन्नता, धर्मानुसरण और सत्य के मार्ग का पथिक होना मनुष्य के लिए परमावश्यक है। यही विजयादशमी का संदेश है।
समर विजय रघुवीर के…
लंका कांड के अंत में दोहा है- ‘समर विजय रघुवीर के चरित जे सुनहिं सुजान। विजय विवेक विभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।’ इसके अनुसार विजय, विवेक और विभूति उन्हीं को प्राप्त होती है, जो सुजान होते हैं। यहां सुजान का तात्पर्य है सत्कर्म करने वाला, सदाचरण का पालन करने वाला। यानी धर्मानुरागी व्यक्ति ही इसका अधिकारी है। यथार्थ में मानव के सम्पूर्ण जीवन में इन तीन वस्तुओं की परीक्षा पल-पल पर होती है। यदि हम इस पर्व के परिप्रेक्ष्य में छिपे संदेशों पर चिंतन-मनन करें और उनका पालन व निर्वाह अपने जीवन में करें, तभी इस पर्व की सार्थकता संभव है। वर्तमान में मानव का एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक रूप से भोग की प्राप्ति है, यह संभव भी हो जाये, लेकिन क्या रावण पर विजय संभव है, सत्य के मार्ग का अवलम्बन किये बिना तो कदापि नहीं। यह विचारणीय है। वस्तुतः अंदर के रावण पर विजय ही जीवन का मूल है, इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता।
कहीं शस्त्र पूजन, कहीं उत्सव…
भारतीय इतिहास ऐसे कथानकों से भरा पड़ा है जब इस दिन हिन्दू राजाओं ने युद्ध में विजय प्राप्ति हेतु रणभूमि के लिए प्रस्थान किया। श्रवण नक्षत्र का योग रण भूमि में विजय हेतु अत्यधिक शुभ और फलदायी माना गया है। यह तो रही शक्ति, शौर्य और विजय की भावना या यूं कहें कि प्राचीन धार्मिक मान्यता की बात, जबकि विजयादशमी या दशहरे का पर्व आपसी रिश्तों को मजबूत करने और भाईचारा बढ़ाने का पर्व भी है, जो घृणा एवं बैर मिटाकर प्रेम, सदाचार, एक्यभाव को बढ़ाने के स्मरण का बोध कराता है। समूचे देश में अलग-अलग विधियों, रीति-रिवाजों से यह मनाया जाता है। कहीं शस्त्र पूजन, तो कहीं ऋतु परिवर्तन के उपरांत किसान द्वारा फसल रूपी संपत्ति के घर लाने के सांस्कृतिक उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। महाराष्ट्र में ‘सिलंगण’ नामक सामाजिक महोत्सव और विद्या की देवी सरस्वती तथा उनके तांत्रिक प्रतीकों की पूजा के तौर पर, बस्तर में मां दतेश्वरी की आराधना पर्व के तौर पर तो बंगाल, ओडिशा, असम में दुर्गा पूजा के रूप में, तमिलनाडु, आंध्र और कर्नाटक में लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा के रूप में, गुजरात में गरबा के रूप में, कश्मीर में खीर-भवानी माता की आराधना-दर्शन आदि के रूप में विभिन्न राज्यों में अनेकानेक तरीकों से यह पर्व मनाया जाता है। लेकिन अधिकांशतः समूचे देश में यह पर्व युद्ध में राम की रावण पर विजय का उत्सव है।
जीवन का सार
यह पर्व वास्तव में सांसारिक जीवन का खुला चिट्ठा प्रस्तुत करता है। यह समाज के स्वरूपों, प्रवृत्तियों और समाज की दिशा समझने-बूझने की एक जबरदस्त कसौटी है। यह हमें राजनीति के अर्थ, राजनीति और कूटनीति के भेद-विभेदों, परस्पर संबंधों के निर्धारण के सिद्धांत, रण-कौशल, शासन-व्यवस्था के लिए आवश्यक चातुर्य आदि का विस्तृत ज्ञान देता है। असलियत में यह पर्व हमें अपने अंदर के दशानन को पहचानने, उसका दमन करने का संदेश देता है, लेकिन दुख इस बात का है कि फिर भी हम अपने अंदर बैठे दर्जनों रावण को वैसा ही रहने देते हैं। उनका दमन किए बगैर क्या विजयादशमी सार्थक हो सकती है? इस अवसर पर हमें पुनरीक्षण करना होगा और अपने मन से यह निकाल देना होगा कि अकेले रावण का पुतला जलाने से बुराई का खात्मा हो जाएगा। हमें अपने अंदर के रावण पर विजय प्राप्त करनी होगी, तभी विजयादशमी के पर्व की सार्थकता सिद्ध होगी।