उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन के यक्ष प्रश्न
सिर्फ दो दशक के दौरान यदि किसी राज्य के दस मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देना पड़े तो राजनीतिक अस्थिरता का आकलन स्वयं हो जाता है। मंगलवार को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश के बाद राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को अपना इस्तीफा सौंप दिया था। बुधवार को राज्य के विधायकों की बैठक जरूर हुई, मगर राज्य की कमान सांसद तीरथ सिंह रावत को सौंपी गई। सवाल यह है कि एक रावत को बदलकर दूसरे रावत को राज्य की बागडोर सौंपने से क्या कुछ बदल पायेगा? आखिर जब त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने कार्यकाल का चौथा वर्ष पूरा करने जा रहे थे तो उन्हें अचानक हटाने की जरूरत क्यों पड़ी? सवाल यह भी कि यह मूल्यांकन पहले क्यों नहीं हो पाया? यह भी कि जब राज्य के विधानसभा चुनाव होने में एक साल का समय बचा है तो उन खामियों को दूर किया जा सकेगा, जिनकी वजह से त्रिवेंद्र रावत को हटाया गया। कहते हैं कि पार्टी में उनके नेतृत्व को लेकर असंतोष था और कहा जा रहा था कि यदि ऐसी ही स्थितियां रहीं तो अगला विधानसभा चुनाव जीतना पार्टी के लिये मुश्किल होगा। दरअसल, बजट सत्र के दौरान दिल्ली से पार्टी पर्यवेक्षकों के देहरादून पहुंचने के बाद राज्य में राजनीतिक परिवर्तन को लेकर अटकलें शुरू हो गई थीं। केंद्रीय नेतृत्व ने पार्टी के केंद्रीय उपाध्यक्ष डॉ. रमन सिंह व उत्तराखंड प्रभारी दुष्यंत गौतम को विधायकों का मन टटोलने के लिये देहरादून भेजा था। बताते हैं कि पार्टी के विधायक, कुछ सांसद तथा संघ की स्थानीय इकाई मुख्यमंत्री की कारगुजारियों से खुश नहीं थी। यही वजह है कि जिस भाजपा में मुख्यमंत्री बदलना सामान्य नहीं माना जाता, वहां त्रिवेंद्र रावत को चार साल का कार्यकाल पूरा होने के कुछ दिन पहले बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब सवाल यही है कि क्या नये मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत एक साल में पार्टी को उस स्थिति में ला पायेंगे, जिसके बूते आगामी विधानसभा चुनाव जीता जा सके?
ऐसे में सवाल यही है कि वे कौन से कारण थे, जिनके चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत को राजयोग से वंचित किया गया। यद्यपि उन पर या उनकी सरकार पर कोई गंभीर आरोप तो नहीं लगा लेकिन कहा जाता रहा कि सरकार के फैसलों में जनता की भागीदारी न के बराबर रही है। हां, हाल ही मंे एक टीवी चैनल के सर्वे में उन्हें सबसे विफल मुख्यमंत्रियों में शामिल किया गया था, जिसके बाद उनकी कार्यशैली को लेकर सवाल उठे। पर उनकी सरकार के कुछ फैसले ऐसे जरूर थे, जिनके चलते राज्य में भाजपा का वोटबैंक माने जाने वाला वर्ग नाराज हो गया। एक बड़ी वजह राज्य के चार जिलों को मिलाकर गैरसैंण मंडल बनाना भी रहा है। दरअसल, उत्तराखंड उत्तर प्रदेश के शासन के दौरान से ही भाषायी व सांस्कृतिक रूप में गढ़वाल व कुमाऊं मंडलों में विभाजित रहा है, जिनमें सदा एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर रही है। यहां की राजनीति को साधने के लिये दोनों मंडलों में संतुलन बनाने की कवायद चलती रही है। दरअसल, उत्तराखंड आंदोलन के दौरान से ही आंदोलनकारी जटिल भौगोलिक परिस्थिति वाले गैरसैंण को राज्य की राजधानी बनाने की मांग करते रहे हैं। त्रिवेंद्र सरकार ने गैरसैंण को न केवल ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया बल्कि चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर नया गैरसैंण मंडल प्रशासनिक सुविधा दृष्टि से बनाया, जिसके चलते इसे कुमाऊं की पहचान से खिलवाड़ बताते हुए क्षेत्र में राजनीतिक उबाल आ गया। वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड देवस्थानम बोर्ड बनाकर इसके अंतर्गत केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमनोत्री धाम को लाने से पुरोहित वर्ग में तल्ख प्रतिक्रिया नजर आई, जिसके खिलाफ भाजपा के चर्चित सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी पहले हाईकोर्ट और फिर शीर्ष अदालत गये। सरकार के इस निर्णय से ब्राह्मण और परंपरागत पुरोहित समाज हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक मुख्यमंत्री के खिलाफ उद्वेलित हो गया। अब देखना होगा कि नये मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत इस चुनौती का मुकाबला कैसे करते हैं और किस हद तक आगामी विधानसभा चुनावों में पार्टी का जनाधार कायम रख पाते हैं।