देश की राजधानी में प्रदूषण की भयावह स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद मंगलवार को केंद्र व चार राज्यों के मुख्य सचिवों की बैठक में दिल्ली सरकार द्वारा उठाये गये कदमों का अनुसरण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में करने की बात कही गई। एयर मॉनिटरिंग कमीशन, दिल्ली सरकार के पर्यावरण मंत्री तथा उत्तर प्रदेश, हरियाणा व पंजाब के मुख्य सचिवों की बैठक में एनसीआर क्षेत्र में भी स्कूल व अन्य शिक्षण संस्थाएं कुछ समय के लिये बंद करने, वर्क फ्रॉम होम, निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की बात कही गई। दिल्ली सरकार का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट यदि लॉकडाउन लगाने की जरूरत महसूस करता है तो उसका पालन किया जायेगा। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से प्रदूषण रोकने की कार्य योजना सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान सौंपने को कहा था। बुधवार को केंद्र कोर्ट को कार्ययोजना का प्रारूप सौंपेगा, जिसके बाद अदालत के नये निर्देश सामने आ सकते हैं। यह विडंबना है कि हर साल ठंड की शुरुआत पर इन्हीं महीनों में दिवाली के बाद वायु प्रदूषण की विभीषिका सामने आती है, फिर दिल्ली व केंद्र सरकार आग लगने पर कुआं खोदने के उपक्रम में हाथ-पैर मारती नजर आती हैं, लेकिन समस्या के निराकरण के लिये दीर्घकालीन उपाय होते नजर नहीं आते। ऐसा लगता है कि सरकारें सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद ही जागती हैं। विडंबना देखिये कि दिल्ली की जनता भयावह प्रदूषण संकट से जूझ रही है और दिल्ली सरकार और केंद्र की तरफ से राजनीतिक बयानबाजी थमती नजर नहीं आ रही। खासकर किसानों द्वारा जलायी जाने वाली पराली से होने वाले प्रदूषण के आंकड़े को लेकर। वहीं भाजपा का आरोप है कि जनता को प्रदूषण से स्थायी राहत देने के बजाय आप सरकार विज्ञापनबाजी में लगी हुई है। सुप्रीम कोर्ट की सजगता से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में विगत में भी सार्थक पहल हुई थी और फिलहाल भी कोर्ट की सख्त टिप्पणियों के बाद केंद्र व दिल्ली सरकारें हरकत में नजर आई हैं।
बहरहाल, कोर्ट की सख्ती के बाद दिल्ली सरकार द्वारा उठाये गये फौरी कदमों से कुछ राहत की उम्मीद तो की जा रही है। निस्संदेह लोगों की सक्रियता कम होने तथा घरों में रहने से प्रदूषण कम होगा और लोग घरों में सुरक्षित रहेंगे। कोर्ट का कुछ दिन का लॉकडाउन का सुझाव भी इसी मकसद से था। ऐसे वक्त में जब वायु गुणवत्ता का सूचकांक खतरनाक स्तर पार कर गया है तो ऐसे कदम अपरिहार्य हो जाते हैं। हमारी सरकारें इस समस्या के स्थायी समाधान के प्रति गंभीर नहीं नजर आतीं। उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है। इस समस्या को रोकने के लिये पर्याप्त कानून हैं लेकिन उनका सख्ती से अनुपालन ही नहीं होता। यह विचारणीय है कि एक खास मौसम में पराली जलाना एक कारक हो सकता है लेकिन जो स्थायी कारक प्रदूषण बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं, उनसे निपटने के लिये सरकारों ने कौन-सी दीर्घकालीन नीति बनायी है? क्या उन डीजल वाहनों को हटाने की कार्रवाई पूरी हो चुकी है जो निर्धारित अवधि पूरी कर चुके हैं? पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध के बावजूद वे कैसे बिके और छोड़े गये? दरअसल, असली समस्या तो कानूनों को लागू करने की है। इनके क्रियान्वयन में जो सख्ती होनी चाहिए, वो नजर नहीं आती। जरूरत इस बात की भी है कि दिल्ली से लगते शहरों में सरकारी निकायों से सामंजस्य बनाकर समस्या पर काबू पाया जाये। इसके साथ ही नागरिकों को भी जवाबदेह बनाने की जरूरत है। यह जानते हुए कि हर साल इस मौसम में दिल्ली का दम घुटता है, यह भी सोचने की जरूरत है कि ‘ऑड-ईवन’ और ‘रेड लाइट ऑन, गाड़ी ऑफ’ जैसे फौरी उपाय कहां तक प्रदूषण रोकने में कारगर साबित हो सकते हैं, जिसकी अवधि दिल्ली सरकार ने मंगलवार को पंद्रह दिन के लिये बढ़ाई है। साथ ही दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में वायु प्रदूषण की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि पिछले हफ्ते केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सर्वे में देश के सबसे ज्यादा प्रदूषित पंद्रह शहरों में दस उत्तर प्रदेश के हैं। जवाबदेही की सोच पूरे देश में बननी चाहिए।