फेसबुक में एक मित्र की टाइमलाइन पर यह चर्चा देखी कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू खर्च बहुत कम हो गया है और लोग वैसे ही जीवन बिता रहे हैं जैसे हमारे दादा-परदादा वगैरह बिताते थे। यह पढ़कर मुझे अपने दादा का जीवन याद आ गया। जिस किफायत में उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी बिता दी, वह अन्यत्र देखना दुर्लभ है। मेरे से पहले वाली मेरे पिता की पीढ़ी भी रुपये को समझदारी से खर्चती थी। इस बात की ताकीद मेरे पिता दे सकते हैं, वे भी फेसबुक पर हैं। अपने साथ के जूनियर कलीग्स की लाइफस्टाइल को मैं बारीकी से ऑब्ज़र्व करता था। उन्हें कोई समझाइश देना मैंने कभी मुनासिब नहीं समझा क्योंकि लोग आजकल इसे दखलअंदाज़ी समझते हैं। तो मुझे स्पष्ट दिखता है कि पहले की पीढ़ियां किस तरह कम पैसे में सर्वाइव करते हुए भी अगली पीढ़ियों के लिए चल-अचल संपत्ति बना सकीं। दूसरी ओर, नयी पीढ़ी में पति-पत्नी दोनों के ठीकठाक कमाने पर भी पैसों की चिकचिक बनी रहती है। असल में पिछली पीढ़ी के लोग मनोरंजन पर बेतहाशा खर्च नहीं करते थे। लोग अधिकतर अपने घर में खाना खाते थे। वे दफ्तर टिफिन लेकर जाते थे। अपने परिवार को बाहर खिलाने के लिए ले जाने का मौका कभी-कभार विशेष अवसर पर ही आता था।
वे अपनी आय का एक हिस्सा बचत खाते में सुरक्षित रखते थे। बिजली पर कम खर्च होता था क्योंकि घरों में तरह-तरह के प्रोडक्ट और एप्लाएंस नहीं होते थे। कमरे से बाहर जाते वक्त बत्ती बंद कर दी जाती थी। ऐसा नहीं करने पर बच्चों को डांट पड़ती थी। लोग आवागमन पर कम खर्च करते थे। वे शहर के बाहरी छोर पर बड़ा घर नहीं खरीदते थे, जिसके कारण ऑफिस पहुंचने में 2 घंटे लगते हों। लोग स्कूटर-कार तभी खरीदते थे जब बहुत ज़रूरी हो। हर दूसरे साल अपनी कार या बाइक नहीं बदलते थे। घर या गाड़ी खरीदते वक्त वे कीमत का बड़ा हिस्सा डाउन पेमेंट से चुका देते थे। बहुत कम लोन लेते थे। लोन लेने के बाद कोई डिफाल्ट नहीं करता था। डिस्काउंट या ऑफर देखकर नहीं बल्कि कीमत देखकर चीज खरीदते थे। थोक में राशन खरीदते थे। बहुत घरों में उनके गांव से अनाज आ जाता था। पड़ोसी को देखकर अपना रहन-सहन नहीं बदलते थे। लेकिन यह भी सच है कि उनके पास खर्चने के बेतहाशा विकल्प नहीं होते थे। वे अलग तरह के लोग थे। एक थान से ही परिवार में सबके कपड़े बन जाते थे, वह भी दिवाली, जन्मदिन या शादी-ब्याह के मौकों पर। इसलिए वे ज्यादा सुखी थे।
साभार : हिंदीजेन डॉट कॉम