शारा
कोरा कागज उन दर्शकों की हरदिल अजीज थी जो 50-60वें दशक के इर्द गिर्द जन्मे थे और जरा-जरा-सी साहित्यिक सोच रखते थे क्योंकि एक तरफ ऋषि कपूर जैसे अभिनेताओं की सिनेमा में उछल-कूद जारी हो चुकी थी। लोग-बाग युवा और तरोताजा चेहरे देखने के लिए सिनेमा हाल जाते थे। डिंपल कपाड़िया भी एंट्री मार चुकी थी। ऐसे में जया भादुड़ी के साथ गोल्डी को देखने कौन जाएगा? जो साहित्यिक सोच वाले लोग होंगे, वही तो जाएंगे। युवा वर्ग को तो लगता ही नहीं मोटे फ्रेम वाले कॉलेज में पढ़ाने वाले प्रोफेसर को भी किसी लड़की से प्यार हो सकता है। जी हां, कोरा कागज ऐसी ही मूवी थी लेकिन ‘आई लव यू’ शब्दों जैसे शिगूफे हवा में उछालतीं फिल्मों के ठीक उलट एक साफ-सुथरी संजीदा फिल्म कोरा कागज जब सिनेमा हॉल में आयी तो दर्शकों ने इस बदलाव का खुले दिल से स्वागत किया। नतीजा यह हुआ कि फिल्म निर्माताओं के गल्ले भर गये। कोरा कागज 1974 में रिलीज हुई थी। वर्ष 1974 में मेरी उम्र के लोग आठवीं, नौंवी में पढ़ते होंगे। सिनेमाहॉल के बाहर हों या क्लासरूम में, हर कोई यहीं संवाद दोहराता हुआ मिल जाएगा कि—‘क्या सारा दोष मेरा ही था?’ ‘कुछ तुम्हारा था, कुछ मेरा कुछ हम दोनों का।’ यही विवाहित जीवन का सारांश है। इसमें किसी का कसूर नहीं होता है। या तो थोड़ा-थोड़ा दोनों का होता है या बिल्कुल नहीं होता। लड़ने की हुड़क उठती है तो लड़कर ठंडे होकर बैठ जाते हैं। और अगर प्यार है तो फिर देखिए दोनों के इस प्यार में कौन आ सकता है? बच्चे भी नहीं। बच्चा जब ब्लैकमेलिंग पर उतरता है तो दोनों जन इकट्ठे हो जाते हैं बेशक अबोला चल रहा हो। यही विवाहित जीवन की खूबसूरती है। दूसरा इस फिल्म के जरिए हमें इस बात की सीख मिली कि दोनों के बीच कम्युनिकेशन गैप देर तक कतई नहीं रहना चाहिए। तीसरा यह जो मां मदर इंडिया बनी अपनी बेटी को डिक्टेट करती है, बेटी ऐसे में कभी आबाद नहीं हो सकती। धीरज रखना, हर किसी बात पर आपा नहीं खोना ही सुखी जीवन का आधार है जो वैवाहिक जीवन की ही बानगी नहीं बल्कि हर कहीं यह फार्मूला लागू होता है। इसमें गोल्डी यानी विजय आनंद हीरो हैं। वही विजय आनंद जिन्होंने भारतीय सिनेमा को गाइड जैसी फिल्में दी हैं, जिसके निर्देशन पर आज तक भी कोई उंगली नहीं उठी। वह मूलत: जीनियस डायरेक्टर थे जो सिनेमा को साहित्य का ही अंग मानते हैं। यह उनके निर्देशन का कमाल है कि वह साहित्य की छोटी-छोटी बातों को सिनेमा में एग्जीक्यूट करते हैं। छोटी-सी बात लगती है यह कि दो प्यार करने वाले शादी करके इकट्ठे रहना शुरू करते हैं। फिर उसके बाद? शादी को निभाना कहीं खाला जी का बाड़ा है। कहते होंगे कि जोड़ियां स्वर्ग से बनकर आती हैं मगर शादी तो इसी समाज में होती है फिर उस समाज में सास-ससुर की दखलअंदाजी भी होती है। इसी बात को क्या साहित्यिक ट्रीटमेंट दिया है गोल्डी आनंद ने। उन्होंने यहां अपने रोल से जता दिया कि वह एक्टिंग करवा ही नहीं सकते बल्कि कर भी सकते हैं। तीसरी मंजिल, ज्वैल थीफ, जॉनी मेरा नाम जैसी कई फिल्में उन्होंने घरेलू प्रोडक्शन नवकेतन बैनर के तले बनायीं। वह आनंद बंधुओं में सबसे छोटे थे। चेतन आनंद उनके बड़े भाई थे और देव आनंद छोटे। शेखर कपूर की मां उनकी बहन है। गोल्डी ने जो जिंदगी तख़य्युल की थी, वैसी ही जिंदगी जीते थे वह। उन्हें अपनी ही बहन की बेटी यानी अपनी भानजी सुषमा कोहली से प्यार हुआ तो उन्होंने शादी भी कर ली। जब शादी की थी, फिल्मी समाज में हाय-तौबा मच गयी थी। उन्होंने देव आनन्द की फिल्म में नौ दो ग्यारह से निर्देशन में डेब्यू किया था। काला बाजार भी उन्होंने ही बनायी थी। उन्हें गीतों की बढ़िया पिक्चराइजेशन के लिए जाना जाता है। गाइड फिल्म की वहीदा रहमान पर फिल्माए गीत ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ या ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ को याद कीजिए। तीसरी मंजिल का गीत ‘ओ हसीना जुल्फों वाली’ इन्हीं की प्रस्तुति है। उन्हें संवाद लिखने के लिए भी इनाम मिल चुके हैं। वह निर्देशक के अलावा बढ़िया पटकथा, लेखक, एडिटर भी थे। बहरहाल, विजय आनंद पर बहुत कसीदे पढ़े जा चुके अब आते हैं कोरा कागज पर। कोरा कागज के निर्देशक गोल्डी नहीं अनिल गांगुली थे। निर्देशक बढ़िया था तो ढेरों पुरस्कार बटोर ले गयी यह फिल्म। यह फिल्म मूलत: बांग्ला फिल्म ‘सात पाके बांधा’ को आधा बनाकर फिल्माई गयी है, जिसमें जया भादुड़ी का रोल सुचित्रा सेन ने किया है। मूल कहानीकार थे आशुतोष मुखोपाध्याय जिसे हिंदी में लिखा है एमजी हशमत और पटकथा में तबदील किया है सुरेंद्र शैलज ने। संगीत निर्देशक थे कल्याणजी आनंदजी। पाठकों को एक अन्य जानकारी देती चलूं कि ‘मेरा जीवन कोरा कागज कोरा ही रह गया’ को बिनाका गीतमाता की सालाना सूची 1974 में टॉप का गीत घोषित किया गया। उस जमाने में बिनाका गीतमाला की तूती बोलती थी।
अब चलें कहानी की ओर। प्रोफेसर सुकेश (विजय आनंद) और अर्चना गुप्ता (जया भादुड़ी) दोनों की अकस्मात तब मुलाकात होती है जब वे दोनों बेस्ट बस सर्विस में मुम्बई जा रहे थे। वे दोनों पहली ही नजर में एक-दूसरे को दिल दे बैठे। चूंकि अर्चना के पिता को लड़का बहुत पसंद था इसलिए दोनों की शादी कर दी गयी। यह बात अलग है कि सुकेश को अर्चना की मां इसलिए पसंद नहीं करती थी क्योंकि उसकी आय के साधन सीमित थे। इसलिए वह अक्सर सुकेश के सामने अपनी अमीरी की शेखी बघारती रहती, जिससे अक्सर सुकेश खीझ जाता। वह अक्सर महंगी-महंगी चीजें उनके घर ले आतीं और गाहे ब गाहे उनकी विवाहित जीवन में दखलअंदाजी करतीं, जिससे सुकेश के स्वाभिमान को चोट पहुंचती। नतीजा वही हुआ जो होना था। दोनों ने अलग-अलग रहने का फैसला कर लिया। अर्चना अपने माता-पिता के घर चली गयी जबकि सुकेश ने वहीं अपनी दुनिया अकेले बसानी शुरू कर दी। अर्चना के माता-पिता सुकेश को भूलकर दोबारा शादी करने के लिए अक्सर उस पर दबाव डालते लेकिन अर्चना को यह सब अच्छा नहीं लगता। क्योंकि दिल ही दिल में वह अभी भी सुकेश को चाहती थी। मां-बाप की रोज-रोज की चख-चख से आजिज उसने शहर से दूर नौकरी ढूंढ़ ली ताकि उसे कहीं तो सुकून मिले। और तभी एक दिन अपने काम से छुट्टियों में घर लौटते वक्त दोनों की मुलाकात एक रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में हो जाती है जहां वे दोनों अपनी गलत फहमियां दूर कर लेते हैं और उसके बाद उन दोनों के बीच गलत फहमियां नहीं पनपीं। वे दोनों खुश थे। इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले। इनमें अनिल गांगुली को बेस्ट पॉपुलर फिल्म प्रोवाइडिंग होलसम एंटरटेनमेंट अवॉर्ड, लता मंगेशकर को बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर के लिए नेशनल फिल्म अवार्ड मिला। इसके अलावा जया भादुड़ी को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड एवं कल्याणजी आनंदजी को संगीत के लिए यही सम्मान मिला। साथ ही इस फिल्म का बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट स्टोरी आदि के लिए भी नामांकन हुआ।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : सनत कोठारी
निर्देशक : अनिल गांगुली
मूलकथा : आशुतोष मुखोपाध्याय
पटकथा : सुरेंद्र
संवाद : एमजी हशमत
सिनेमैटोग्राफी : विपिन गजर
गीत : एमजी हशमत
संगीत : कल्याणजी, आनंदजी
सितारे : विजय आनंद, जया भादुड़ी, एके हंगल, अचला सचदेव, देवेन वर्मा आदि
गीत
मेरा जीवन कोरा कागज : किशोर कुमार
मेरा पढ़ने में नहीं लागे दिल : लता मंगेशकर
रूठे-रूठे पिया : लता मंगेशकर