एक बार फिर साबित हो गया कि भारत सरीखे विविधता वाले विशाल देश में विदेशी तर्ज पर सैंपल सर्वे से मतदाताओं का मन पढ़ पाना आसान नहीं। जाति-वर्ग-संप्रदाय के गणित में उलझी उत्तर भारतीय राजनीति में तो यह और भी मुश्किल काम है। ज्यादातर एग्जिट पोल इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव को एकतरफा बता रहे थे। नीतीश कुमार के 15 साल के मुख्यमंत्रित्वकाल के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना को, खासकर कोरोना-पलायन-बाढ़ और बेरोजगारी के मद्देनजर, मुखर बताते हुए इन चुनावी पंडितों का दावा था कि राजग जहां तीन अंकों में भी नहीं पहुंच पायेगा, वहीं तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला महागठबंधन शानदार बहुमत हासिल करेगा। बेशक बदनाम लालू यादव के पुत्र की पहचान तक सीमित रहे तेजस्वी ने इन चुनावों में पहली बार अपना राजनीतिक तेज दिखाया और राजग को बहुमत का आंकड़ा छूने में सर्दी के मौसम में भी पसीने छूट गये। फिर भी दो साल पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से भाजपा की सत्ता से विदाई के मद्देनजर 15 साल के शासन के बाद भी बहुमत हासिल कर लेना क्या कम उपलब्धि है?
निश्चय ही यह आसान चुनाव नहीं था। न राजग के लिए और न ही राजद-कांग्रेस के महागठबंधन के लिए, जिसमें इस बार वाम दल भी शामिल थे। 70 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस महज 19 सीटें जीत कर जहां कमजोर कड़ी साबित हुई, वहीं वाम दलों ने शानदार प्रदर्शन करते हुए अपनी खोयी राजनीतिक जमीन वापस पाने के संकेत भी दिये। अगर कांग्रेस को कम सीटें देते हुए तेजस्वी वीआईपी समेत ओवैसी और उपेंद्र कुशवाहा के दलों को भी महागठबंधन में शामिल कर पाते तो आज तस्वीर कुछ और हो सकती थी। राजग के विरुद्ध पहला कारक तो सत्ता विरोधी भावना ही थी। इसमें दो राय नहीं कि लगभग डेढ़ दशक के लालू-राबड़ी राज में बिहार इतना बदनाम हो गया था कि उसमें सुधार की आस ही लोगों ने छोड़ दी थी। उसी बिहार में नीतीश ने मुख्यमंत्री बन कर यह विश्वास जगाया कि अभी भी सुधार संभव है। उत्तरोत्तर मजबूत होते इसी विश्वास ने नीतीश की छवि सुशासन बाबू की बनायी, पर 15 साल कम नहीं होते। इस दौरान एक ऐसी पीढ़ी नये मतदाताओं के रूप में आ गयी, जिसने लालू-राबड़ी का कथित जंगलराज नहीं देखा-भोगा था। फिर गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जर्जर कानून व्यवस्था अन्य बीमारू राज्यों की तरह बिहार की भी पहचान का अभिन्न अंग बनी रही हैं।
राज्य के विशाल आकार और बेलगाम आबादी के चलते इन समस्याओं का समाधान भी आसान नहीं है। यह अलग बात है कि इनका ईमानदार समाधान किसी राजनीतिक दल-सरकार के एजेंडा पर भी नहीं रहा। इसलिए लालू-राबड़ी राज की विस्मृति और शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार की युवा आकांक्षाएं स्वाभाविक ही सत्ता विरोधी भावना के रूप में मुखर हुईं। कोरोना के चलते हुए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के परिणामस्वरूप देश भर से हुए बिहारी श्रमिकों के पलायन, उनके साथ अपने ही राज्य में हुए असहज व्यवहार, फिर बेरोजगारी की मार और उसके बाद बाढ़ की विभीषिका ने सत्ता विरोधी भावना को उफान पर ही ला दिया। ऐसा नहीं है कि नीतीश को इसका अहसास नहीं था, पर उनके पास जिम्मेदारी-जवाबदेही से बचने का विकल्प ही नहीं था। हां, उनकी सरकार में भागीदार होने के बावजूद भाजपा ने सत्ता विरोधी भावना से बचने की रणनीति अवश्य बनायी। परिणाम बताते हैं कि वह उस रणनीति में कामयाब भी रही। दरअसल हारी हुई बाजी कैसे जीती जा सकती है, बिहार विधानसभा चुनाव इस राजनीतिक प्रबंधन कला का भी प्रमाण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि के अलावा तमाम समीकरण-कारक इस बार राजग के विरुद्ध ही थे।
यह शोध का विषय हो सकता है कि कोरोना के मद्देनजर अचानक लॉकडाउन का फैसला केंद्र सरकार का था, फिर उसका खमियाजा सिर्फ नीतीश को ही क्यों भुगतना पड़ा, मोदी की छवि पर कोई खरोंच क्यों नहीं आयी? बेशक लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों का पलायन दूसरे राज्यों के लिए भी हुआ था, लेकिन बिहार संभवत: सर्वाधिक प्रभावित राज्य था। इसीलिए महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने तो अपना चुनाव प्रचार मुख्यत: इसी मुद्दे पर केंद्रित रखा। स्वाभाविक ही बेरोजगारी भी मुद्दा बनी और कमोबेश सभी दलों को नौकरियां देने के लंबे-चौड़े वादे करने पड़े, लेकिन परिणाम बताते हैं कि प्रचार के दौरान उभरे मुद्दे मतदान को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाये। ऐसा क्यों हुआ, इस पर महागठबंधन को निश्चय ही गंभीर मंथन करना चाहिए, लेकिन तीन चरणों में हुए बिहार चुनाव की बिसात का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि अपनी बहुआयामी रणनीति से मोदी की भाजपा ने सारे समीकरण ध्वस्त कर दिये।
कहना नहीं होगा कि नीतीश की गिरती साख के मद्देनजर भाजपा को अपना राजनीतिक अस्तित्व और भविष्य बचाने के लिए भी यह रणनीति जरूरी थी। बेशक 2013 से 17 के बीच खासकर मोदी और नीतीश के बीच जैसे कड़वाहट भरे रिश्ते रहे, उसके मद्देनजर भाजपा की यह स्वाभाविक मंशा भी रही होगी कि जद (यू) के साथ अपनी जूनियर पार्टनर की भूमिका को सीनियर पार्टनर में बदले। इस चुनाव में नीतीश के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना ने उसे यह अवसर उपलब्ध भी करा दिया। भाजपा की रणनीति रही कि सत्ता विरोधी भावना का निशाना राज्य की गठबंधन सरकार के बजाय मुख्यमंत्री नीतीश ही बनें। प्रधानमंत्री के स्वयंभू हनुमान चिराग पासवान ने राजग में रहते हुए भी नीतीश पर हर तरह के हमले कर इस रणनीति में बड़ी भूमिका निभायी। इसका भाजपा को दोहरा लाभ हुआ। एक ओर उपरोक्त चुनावी मुद्दों से प्रधानमंत्री मोदी की छवि प्रभावित होने से बच गयी, दूसरी ओर लोजपा के उम्मीदवार लगभग तीन दर्जन सीटों पर इतने वोट लेने में सफल हो गये कि जद (यू) उम्मीदवारों की पराजय सुनिश्चित की जा सके। बेशक एक दर्जन से भी ज्यादा सीटों पर लोजपा उम्मीदवारों को मिले वोटों ने महागठबंधन के उम्मीदवारों की पराजय में भी निर्णायक भूमिका निभायी, लेकिन उससे भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा ही लाभान्वित हुई, जो विधानसभा में न सिर्फ जद (यू) से बहुत बड़ा दल बन कर उभरी, बल्कि सबसे बड़े दल –राजद से भी महज एक सीट ही पीछे रह गयी। उधर पिछले चुनाव के मुकाबले जद (यू) की सीटें लगभग उतनी ही कम हुई हैं, जितनी पर चिराग की लोजपा के उम्मीदवारों ने उसके उम्मीदवारों की पराजय में निर्णायक भूमिका निभायी है।
लोजपा जीत भले ही मात्र एक सीट पायी हो, पर चिराग भाजपा की दोहरी रणनीति को सफल बनाने में कारगर भूमिका निभाने में सफल रहे। तेजस्वी के हमलों के बीच चिराग ने भी नीतीश पर और ज्यादा तीखे हमले कर उन्हें कमोबेश खलनायक की तरह ही पेश किया तो जद (यू) के हिस्से वाली सीटों पर लोजपा उम्मीदवार उतार कर उसे विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी भी बना दिया। इस रणनीति के बावजूद जो कमी रह गयी थी, उसे पहले चरण के मतदान से सबक लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने जंगलराज की याद दिला कर पूरा कर दिया। फिर भी भाजपा को तीसरे नंबर के दल जद (यू) के नेता नीतीश को ही मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करना पड़ रहा है तो शायद इसलिए वाम दलों को महागठबंधन में शामिल करने के तेजस्वी के दांव से उसकी अपनी सीटें उम्मीद से कम रह गयीं और लोजपा भी एक सीट पर सिमट गयी। ऐसे में महाराष्ट्र में अहं के चलते सत्ता गंवा बैठी भाजपा के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था, जबकि नीतीश के पास बाहर से समर्थन दे कर महागठबंधन की सरकार बनवा कर विपक्ष में अपनी खोयी साख पाने का अवसर था। यह अवसर तब तक रहेगा, जब तक कि भाजपा अन्य दलों में तोड़फोड़ के जरिये खुद बहुमत का आंकड़ा हासिल नहीं कर लेती, पर इस बीच उसे बिहार में अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार पर भी सहमति बनानी होगी। इसलिए तय मानिए कि बिहार में चुनाव निपटा है, पर एक-दूसरे को निपटाने की राजनीति जारी रहेगी।
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