सुना है पश्चिम बंगाल में चुनाव-प्रचार के बाकी दिनों में प्रधानमंत्री बड़ी चुनावी सभाएं नहीं करेंगे। वह कहावत है न, देर आयद, दुरुस्त आयद! पर क्या बहुत देर नहीं हो गई प्रधानमंत्री को यह ज़रूरी निर्णय लेने में? कोरोना की स्थिति भयावह है। यह दूसरी लहर कुछ ज़्यादा ही खतरनाक सिद्ध हो रही है। लोगों के कोरोनाग्रस्त होने, मरीज़ के लिए अस्पतालों के दरवाजे बंद होने, ज़रूरी दवाओं और ऑक्सीजन की कमी होने, श्मशान में लगातार जलती चिताओं की खबरें अब डराने लगी हैं। उम्मीद ही की जा सकती है कि जल्दी ही स्थिति सुधरेगी, पर इस दौरान हमारे हुक्मरानों का व्यवहार जिस तरह का रहा है, उसे देखते हुए तो स्थिति के जल्दी सुधरने की उम्मीद भी खुशफहमी ही लगती है।
उस दिन हरिद्वार में लगे कुंभ के मेले के शेष आयोजन को प्रतीकात्मक बनाने का आग्रह प्रधानमंत्री ने साधु-संतों से किया था। यह आग्रह भी बहुत पहले होना चाहिए था पर सवेरे संत-समाज से यह आग्रह करने के तत्काल बाद शाम को पश्चिम बंगाल में जाकर विशाल चुनावी सभाएं करना आखिर क्या दर्शाता है? हरिद्वार में स्नानार्थियों की भीड़ पर चिंता जताने वाले चुनावी-सभा में उमड़ी भीड़ को देखकर आनंदित हो रहे थे! ‘जहां तक नज़र जाती है वहां तक लोगों की भीड़’ देखकर पुलकित होने वालों को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं थी कि उस भीड़ में आधे से अधिक लोगों ने मास्क नहीं पहन रखे थे। जिस ‘दो गज़ दूरी’ की बात हमारे प्रधानमंत्री पिछले एक साल से लगातार करते आ रहे हैं, और जो संक्रमण से बचने की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है, उसे उन्होंने न याद करना ज़रूरी समझा, न याद दिलाना।
सच तो यह है कि चुनावों में भाग लेने वाले सभी दलों के नेताओं को ‘मास्क’ या ‘दूरी’ की कोई चिंता नहीं थी। सभाओं और जुलूसों की विशालता उन्हें अपनी राजनीतिक सफलता की गारंटी लग रही थी। यह विशालता कोरोना की भयावहता को बढ़ा रही है, यह बात किसी को नहीं सूझ रही थी। देश का गृहमंत्री खुलेआम यह कहते रहे कि पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों पर उंगली उठाने वाले बाकी जगहों की बात क्यों नहीं करते।
बाकी जगहों की बात भी हुई है जनाब। वस्तुतः चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में होने वाले इन चुनावों में कोरोना से बचने के नियमों की जिस तरह धज्जियां उड़ाई गयी हैं, वह अपने आप में किसी अपराध से कम नहीं है। पश्चिम बंगाल में चुनाव इतने लंबे चले हैं, इसलिए वहां की बात ज़्यादा हो रही है। हमारे नेताओं ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए जिस तरह की लापरवाही बरती है, उससे चुनावों में भले ही उन्हें कुछ लाभ मिल जाये, पर देश की जनता को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
कोरोना की पहली लहर के समय भी हमारे हुक्मरानों को इस बात की चिंता ज्यादा थी कि ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम सफलतापूर्वक निपट जाये। इसीलिए, तब लॉकडाउन के निर्णय में देरी की गयी और फिर जल्दबाज़ी में की गयी लॉकडाउन की घोषणा के परिणाम देश ने भुगते। प्रधानमंत्री इस दौरान लॉकडाउन की अपनी रणनीति को लेकर अपनी पीठ लगातार थपथपा रहे थे, पर सारे देश ने तब ‘नमस्ते ट्रंप’ की कथित सफलता की कीमत चुकायी थी-अब तक चुका रहा है!
अब जबकि देश कोरोना की सुनामी को झेल रहा है, यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि हमारा नेतृत्व स्थिति की गंभीरता को क्यों नहीं समझना चाहता? अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने देर से ही सही, यह निर्णय लिया है कि अब प्रचार के लिए विशाल सभाएं नहीं होंगी। यहां भी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने स्वागत-योग्य पहल की है। उनके विरोधी कह सकते हैं कि उन्हें तो एक बहाना मिल गया था अपना सिर छुपाने का, पर विरोधियों द्वारा ‘पप्पू’ कहे जाने वाले राहुल गांधी ने चुनावी सभाएं रद्द करने की पहल करके निश्चित रूप से सराहनीय कदम उठाया है। यह कदम चुनावी प्रचार में लगे हर नेता को उठाना चाहिए था। सत्तारूढ़ पक्ष, भले ही वह केंद्र का हो या पश्चिम बंगाल का, को इस दिशा में पहल करनी चाहिए थी। वह विफल रहा।
चुनाव आयोग भी चाहता तो विवेक का परिचय देते हुए चुनावी रैलियों पर प्रतिबंध लगा सकता था। पर उसने भी पता नहीं क्यों, यह काम नहीं किया। पश्चिम बंगाल और चुनाव वाले अन्य राज्यों में कोरोना कितना फैलता है, यह तो आने वाला कल ही बताएगा, पर हमारे स्वनामधन्य राजनेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी है कोरोना के स्वागत में।
इस समूचे चुनाव-प्रचार के दौरान हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने एक गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार का उदाहरण ही पेश किया है। सत्ता की राजनीति को प्राथमिकता देने वाले हमारे नेता यह भूल गये कि जनतंत्र में राजनीति सत्ता के लिए नहीं, जनता के लिए होनी चाहिए। जनतंत्र में जनता की सरकार होती है, और जनता के लिए होती है। जनता के हितों की उपेक्षा करने वाला भले ही और कुछ भी हो, जनता का सच्चा नेता नहीं हो सकता।
जिस दिन प्रधानमंत्री ने हरिद्वार में एकत्र संत समाज से प्रतीकात्मक स्नान की अपील की थी, उस दिन देश में कोरोनाग्रस्त होने वाले मरीज़ों की संख्या एक लाख साठ हज़ार से अधिक थी। यह तब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा था। और, दुर्भाग्य से यह आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। कह नहीं सकते इस महामारी से हमारी लड़ाई कब तक चलेगी, पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब इस लड़ाई में कोई भी ढिलाई स्वीकार नहीं होनी चाहिए।
राजनीतिक दलों के स्वार्थ जनता के हितों के समक्ष बेमानी हैं। और जनता के हितों का तकाज़ा है कि हमारा समूचा राजनीतिक नेतृत्व विवेक का परिचय दे। यह समय एक-दूसरे पर दोषारोपण का नहीं है, एक-दूसरे के साथ मिलकर एक भयावह स्थिति से उबरने का है। सत्ता की राजनीति तो चलती रहेगी, आवश्यकता जनता के हितों की रक्षा करने वाली राजनीति की है। प्रधानमंत्री पर जनता ने भरोसा किया था, इसीलिए उन्हीं को दूसरी बार सत्ता सौंपी। अब यह उनका दायित्व बनता है कि वह जनता के विश्वास पर खरा उतरने की चुनौती को स्वीकार करें। वे देश के प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचेंगे।
विशाल चुनावी रैलियों वाली उनकी राजनीति, या अपने राजनीतिक विरोधियों पर लच्छेदार भाषा में प्रहार करने की रणनीति, कोरोना काल की अपेक्षित नीतियों के अनुकूल नहीं है। इस संदर्भ में वे आज जो निर्णय ले रहे हैं, वे बहुत पहले लिये जाने चाहिए थे। फिर भी, दोहराना चाहूंगा, देर आयद, दुरुस्त आयद। पर क्या बहुत ज़्यादा देर नहीं हो गयी?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।