शारा
क्या फिल्म थी? ऐसी फिल्म बनाने की जुर्रत गुलजार ही कर सकते हैं। इस फिल्म ने पुरस्कारों की बाढ़ ला दी। गुलजार, गुलजार हो गये। उनकी बांछें खिल गयीं। बढ़िया पटकथा, बढ़िया अभिनेता, बढ़िया अभिनेत्री और न जाने क्या क्या? दो तो राष्ट्रीय पुरस्कार ही ले उड़ी यह फिल्म। बाकी बड़े-बड़े पुरस्कार फिल्मफेयर के थे। दो गूंगे, बहरे लोग (स्त्री व पुरुष) मिलते हैं, आंख मिलती है, शादी कर लेते हैं, बच्चा भी होता है लेकिन वह गूंगा व बहरा नहीं है। बच्चे के पैदा होने से पहले की जिंदगी और जिंदगी की दरपेश मुश्किलें, उस पर बेरहम समाज पूर्णतया असंवेदनशील, मगर दोनों गूंगे बहरे पति-पत्नी अपनी मुश्किलों का सामना कैसे करते? सबसे पहले नाम बताकर अपना परिचय क्या दिया जाये? कितना कठिन है? लेकिन दाद देनी चाहिए गुलजार की कि उन्होंने ऐसी पटकथा लिखी कि गूंगे-बहरे के लिए समाज के सभ्य लोगों का नजरिया ही बदल गया। वे उन्हें भरे-पूरे इनसान समझने लगे फिर वे गूंगे-बहरे ही तो हैं और अपनी जरूरतें खुद पूरी कर रहे हैं। कमी-बेशी तो चलती ही रहती है जीवन में। फिर कभी किसी को मुकम्मल जहां मिला है क्या? इस फिल्म के बनने से पूर्व गूंगे-बहरों को हाशिये से बाहर ही समझा जाता था। फिल्म के बाद उन्हें सामान्य इनसान समझा जाने लगा। थैंक्स गुलजार। यह फिल्म बाद में तमिल में भी बनी, जिसमें कमल हसन और सुजाता थे। यह फिल्म वैसे जापानी फिल्म ‘हैपीनेस ऑफ अस एलोन’ की तर्ज पर बनायी गयी थी। गूंगे किरदार पर बाद में एक अन्य फिल्म भी बनी थी, जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने गूंगे व बहरे का रोल निभाया था। इस फिल्म में अभिनेत्री का रोल शबाना आजमी ने किया था। मगर यह फिल्म कोशिश के दर्जे की नहीं थी इसलिए इतनी कामयाब भी नहीं हुई क्योंकि इस फिल्म में नसीरुद्दीन गूंगे थे, उनकी पत्नी नहीं। कहानी तो तभी फिल्म बनती है जब पति-पत्नी दोनों गूंगे-बहरे हों। ‘कोशिश’ गुलजार की ऐसी मानस पुत्री है, जिसकी अंगुली उन्होंने बचपन से थामकर बुढ़ापे में छोड़ी है। भले ही वे खुद भी बुढ़ा गए। उन्होंने बाकी फिल्मों के निर्देशकों की तरह किरदारों से भाषणबाजी नहीं करवायी है सिर्फ सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल किया है। फिल्म की मांग ही ऐसी थी। गूगों बहरों की अलग दुनिया है, लेकिन उन्हें विकलांगों की तरह क्यों ट्रीट किया जाये? उनके जज्बे, उनके अरमान, उनकी ख्वाहिशें तो विकलांग नहीं—बस यही बात को गुलजार फिल्म के जरिये दर्शकों तक पहुंचाने में शत-प्रतिशत कामयाब हो गए हैं।
दो घंटे की इस फिल्म में संजीव कुमार ने फिल्म के शो को लीड किया है तो जया भादुड़ी ने उनके किरदार को भरपूर साथ दिया है। कई ऐसे पल भी आये जब कठोर से कठोर हृदय वाले दर्शक की आंखें भी गीली हुईं। कलात्मकता की ऐसी पराकाष्ठा पर्दे पर गुलजार की कविता को संजीव व जया ही जी सकते हैं। इस फिल्म में गीत न के बराबर हैं। गीत तो हीरो-हीरोइन ही गायेंगे न? मगर वे तो गूंगे हैं। गुलजार ने बतौर निदेशक कैसी समझदारी दिखाई है। उन दोनों से गीत न गंवाकर। रोमांस गीत गाकर ही नहीं किया जाता, आंखों की भाषा ही बहुतेरी है। सोचो, अगर संजीव कुमार भी यहां गोविंदा की तरह ठुमकने लगते?
यह फिल्म 1972 में रिलीज हुई थी। थी। हरिचरण (संजीव कुमार) अखबार बांटने का काम करता है। वह गूंगा और बहरा है। वह आरती (जया भादुड़ी) से मिलता है। वह भी गूंगी बहरी है। दोनों गूंगे-बहरों की आंखें चार हो जाती हैं और दोनों शादी कर लेते हैं क्योंकि दोनों की भाषा दोनों समझते हैं। उन दोनों के यहां बच्चा भी होता है। दोनों को अपने गूंगे-बहरे होने का गम तब होता है जब उनके बेटे की मृत्यु हो जाती है (सब कनु की बदौलत)। इस कहानी में एक नारायण अंकल भी हैं जो अंधे हैं। यह नारायण अंकल हरि और आरती को बहुत प्यार करते हैं। बच्चे की मौत का सदमा उन्हें भी खासा पहुंचता है क्योंकि वह तो गूंगे नहीं हैं और अंधा बोल सकता है। हरि और आरती बच्चे की मौत से दुखी तो हुए मगर जीवन पर भरोसा बरकरार था। इसलिए उनके घर में दूसरा बेबी आया। वह गूंगा-बहरा नहीं था। उसे उन्होंने पाल-पोसकर बड़ा किया। आरती ने घर संभाला तो घर के बढ़ते खर्च को वहन करने के लिए हरि ने अपनी फैक्टरी में ओवरटाइम किया। उसकी आदतों से खुश होकर फैक्टरी के मालिक ने उसे तरक्की दी। कहानी में मोड़ तब आया जब फैक्टरी के मालिक ने हरि के समान्य बेटे से अपनी गूंगी-बहरी लड़की के रिश्ते की बात चलायी और हरि व आरती ने हामी दे दी जबकि लड़का गूंगी-बहरी लड़की से शादी करने के लिए इनकार कर गया। इस पर हरि ताव खा गया। उसने जिस सांकेतिक भाषा में अपने बेटी की खटिया खड़ी की, वह सीन देखते ही बनता है। हालांकि मैं इसे फिल्म की कहानी का लोचा मानती हूं क्योंकि शादी के लिए किसी को मजबूर करना ठीक नहीं। क्या अच्छा होता अगर बेटा इनकार न करता। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म (1973) का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसके अलावा सर्वोत्तम पटकथा (गुलजार) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (1973) मिला, संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय एवं फिल्मफेयर अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशक (गुलजार 1974), जया भादुड़ी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर अवार्ड (1974) और सर्वश्रेष्ठ कहानी (1974) के लिए गुलजार को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : रोमू एन. सिप्पी, राज एन. सिप्पी
मूल व पटकथा लेखक : गुलजार
सिनेमैटोग्राफी : वी. बैकुण्ठ
संगीत : मदन मोहन
निर्देशक व गीत रचना : गुलजार
सितारे : संजीव कुमार, जया भादुड़ी, दीना पाठक, असरानी, दिलीप कुमार (कैमियो) आदि।