विवेक काटजू
स्वतंत्रता दिवस समारोह में राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले 25 वर्षों में भारत को गतिशील बनाने और समग्र रूप से आगे ले जाने के लिए देशवासियों से पांच प्रण करने का आह्वान किया। इन पांच प्रण में दूसरा है : ‘हमारे पूरे वजूद के किसी भी हिस्से में, यहां तक कि मानस के सबसे गहरे कोने या किसी आदत में, किसी की गुलामी की रत्तीभर भी गुंजाइश न रहे। यदि ऐसा कोई विचार हो भी तो अंकुरित होने से पहले नेस्तनाबूद कर दिया जाए। अब पिछली कई शताब्दियों में रही गुलामी ने हमें बांधकर रखा, हमारे रीति-रिवाज बंधे रहे, हमारे अंदर विकृत विचार पैदा कर दिए। हमें इस किस्म की मानसिकता से आजाद होना है, चाहे हमारे भीतर हो या फिर आसपास’। मोदी जी के कहे में, इस मूल धारणा पर कोई किंतु-परंतु नहीं हो सकता कि भारतीयों को अन्य लोगों की नकल करने की बजाय अपनी सभ्यता और सांस्कृतिक रिवायतों पर गर्व होना चाहिए।
इस दूसरे प्रण को मूर्त रूप में उतारने के लिए मोदीजी ने कुछ उपाय भी सुझाए हैं, जिनका सार कुछ यूं है ः ‘किसी भी परिस्थिति में, हमें औरों जैसा दिखने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। हमें अपने मानक खुद तय करने होंगे। भारतीय प्रतिभा किसी विदेशी भाषा की जंज़ीरों में न बंधने पाए। भारतीयों को अपनी भाषा पर गर्व हो, भारतीय अपनी क्षमता पर निर्भर रहें और उपनिवेशवाद युग वाली मानसिकता तज दें। भारतीयों को अपनी विरासत पर गर्व हो’।
पुनः देखा जाए तो, भले ही इन कुछ नुस्खों में और अधिक स्पष्टता की जरूरत है तथापि सैद्धांतिक रूप से यह कोई गैर-अपवाद नहीं है। उदाहरणार्थ, जब यह कहा जाता है कि हमें औरों जैसा दिखने का यत्न नहीं करना चाहिए तो इसका क्या अर्थ है? विदेशी, खासकर गोरे, उनकी शारीरिक बनावट के मानकों को हम अपने लिए आदर्श की तरह न लें, तो यह बात ठीक है, विशेषकर उनकी त्वचा का रंग। हमारी अपनी रिवायतों पर जोर देना चाहिए, मिसाल के लिए, सामाजिक तहजीब का पालन, यह सुझाव भी एकदम सही है। पर, इतना कहने के बाद, क्या प्रधानमंत्री की सलाह परिधान पर भी लागू होती है?
रिवायतें और वेश-भूषा को लेकर बने नियम क्रमिक विकास से संबंधित होते हैं। भारत की कुछ वर्तमान परिधान रिवायतों में हमें साफ तौर पर स्वदेशी उत्पति दिखाई देती है। हां, हो सकता है कि कुछ का उद्गम पश्चिमी देशों में हो परंतु समय के साथ वह परिधान भारतीयों ने अपना लिया। इस चलन की शुरुआत शायद औपनिवेशिक काल में हुई हो, किंतु पिछले 75 वर्षों में भी यह जारी है। कदाचित, प्रधानमंत्री भविष्य में इस विषय में अपनी सोच जाहिर करें। यह महत्वपूर्ण है उनके कुछ मंत्रियों के लिए, जो कई अवसरों पर लाऊंज सूट पहने और फैशनेबल टाई बांधे दिखाई देते हैं, खासकर जब विदेशों में हों। और इस संदर्भ में, गौरतलब है कि अंबेडकर के बुतों में अक्सर उन्हें सूट-टाई पहने और हाथ में संविधान की प्रति थामे दिखाया गया है। वे उन महान भारतीयों में एक थे जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी उस समाज के उत्थान और सशक्तीकरण करने में लगाई जिसने हजारों सालों तक बहुत सहा है।
ज्यादा गहराई में उतरें तो पता चलता है, उपनिवेशवादी शासकों द्वारा भारतीयों की वेशभूषा को पश्चिमी लोगों जैसी बनाने का यत्न निम्न दर्जा प्रतिकृति बनकर रह गया। वर्ष 1835 में मैकाले का वह कुख्यात उद्धरण, जिसमें वह अरबी और संस्कृत माध्यम में शिक्षा देने वाले संस्थानों के वास्ते ईस्ट इंडिया कंपनी की तत्कालीन सहायता नीतियों में बदलाव लाना चाहता था और इनके लिए रखे धन को अंग्रेजी माध्यम के शिक्षा संस्थानों की ओर मोड़ने की सलाह देता था। कट्टर उपनिवेशवादी सोच रखने वाला मैकाले भारतीय संस्कृति को दोयम समझता था। रोचक है कि अपने विवरणों में उसने यह भी लिखा है कि ऐसे भी भारतीय हैं, जिन्होंने गहन शिक्षा प्राप्त की है और धारा प्रवाह इंग्लिश बोल लेते हैं। वह इस वर्ग को विस्तार देना चाहता था और लिखा : ‘हमें फिलहाल वह वर्ग बनाने के लिए हरचंद कोशिशें करनी होंगी जो हमारे और उन करोड़ों लोगों के बीच दुभाषिए का काम करे, जिनपर हमने शासन करना है, ऐसा वर्ग जिसका खून और रंग भले ही भारतीय हो लेकिन पंसद, सोच, नैतिकता एवं बुद्धिमत्ता अंग्रेजों जैसी हो’।
क्या मैकाले वास्तव में अपना यह उद्देश्य पा सका? वास्तव में, यहां गौरतलब है कि जरूरी नहीं जिन्होंने अंग्रेजी का ज्ञान पाया, उन सबने अपनी भारतीयता गंवाई हो, गोकि उनकी जीवनशैली की कुछ पसंद-नापसंदों पर अंग्रेजों की छाप जरूर पड़ी। सच्चाई तो यह है कि इसी वर्ग के कुछ व्यक्ति कट्टर राष्ट्रवादी बने और भारत के राजनीतिक पुनरुत्थान में योगदान दिया, वे भारत की ऐतिहासिक विरासत की खोई आभा फिर से खोजने में मददगार रहे, उन्होंने भारतीय समाज को समानता और सामाजिक न्याय के नजरिए से बदलना चाहा। यह विचार रखना ठीक नहीं कि यह वर्ग, जैसे-जैसे बढ़ता गया, कुछ भी हो मूल भारतीयों जैसा नहीं था, क्योंकि इसने कभी अपनी भारतीय जड़ें नहीं खोईं।
मोदी उस वक्त ठीक हैं जब कहते हैं कि भारतीयों को अपनी तमाम भाषाओं पर गर्व होना चाहिए। इन सभी की विरासत बहुत समृद्ध है और आज भी है, और ये भारतीयों को स्वयं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम हैं। मोदी जी तब भी सही हैं जब कहते हैं कि भारतीयों के अपने मानक होने चाहिए। जैसा कि उन्होंने कहा : ‘भाइयो, कब तक हम अपनी योग्यता का प्रमाणपत्र शेष दुनिया से लेते रहेंगे? कब तक हम दूसरों द्वारा दिए प्रमाणपत्रों पर जीते रहें? क्या हम खुद के मानक नहीं तय कर सकते?’ हमें करना होगा, किंतु तथ्य यह है कि मानक विकसित मुल्क तय करते हैं और हम उनका अनुपालन। यह सच्चाई ज्ञान के क्षेत्र में खासतौर पर स्पष्ट दिखाई देती है, इसमें भी विज्ञान एवं तकनीक के विषयों में। यहां पर हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए : विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत की कारगुजारी वास्तव में क्या है? बेशक बहुत से भारतीयों ने इन क्षेत्रों में नाम कमाया है, किंतु अधिकांश ने भारत में रहते हुए नहीं। हमें तेजी से आगे बढ़ना होगा और उन तमाम महिमाओं को याद करते रहना कि कभी हमारे पूर्वजों ने भी गणित, विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल की थीं, यह गर्वोक्ति हमारे लिए क्षणिक प्रेरणास्पद हो सकती है, लेकिन इससे परे, इस राह पर आगे बढ़ने में मददगार नहीं। हमें नूतन ज्ञान पाना होगा, स्रोत कुछ भी हो, भारत के भीतर इस पर और आगे काम हो। क्या इस किस्म की राह को दासता-मानसिकता का बचा-खुचा अंश ठहराया जाएगा?
अगले 25 सालों में, भारतीयों को हमारे कुछ संस्थानों में आज भी जारी उपनिवेशवादी विरोधाभासी रीतियों से जूझना होगा। हम सबको अपनी सेना की व्यावसायिकता और शौर्य पर गर्व है। उन्होंने बारम्बार अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन किया है। लेकिन क्या हम, एक ही समय में, मंगल पांडे की स्मृति को सम्मान देना और ठीक इसी समय कुछ सैन्य इकाइयों में ब्रिटिश रिवायतें कायम रहने पर संतोष पा सकते हैं? आखिरकार भारतीय गणतंत्र की महान सेना ब्रिटिश-भारतवर्ष वाली से काफी हद तक अलहदा है।
लेखक भारत सरकार के पूर्व विदेश सचिव हैं।