एक होती है राजनीति की संस्कृति और दूसरी संस्कृति सत्ता की होती है। पहली वाली संस्कृति का कुछ रिश्ता नीतियों और नैतिकता से भले ही कुछ हो सकता हो, पर सत्ता की संस्कृति सिर्फ चुनावी-संदर्भ में ही समझ आ सकती है। जब हम आज़ाद हुए तो नीतियों और आदर्शों की बात होती थी हमारे यहां, पर पिछले सात दशक इस बात के गवाह हैं कि किस तरह नीति धीरे-धीरे नीयत में बदलती जाती है। नेताओं की नीयत हावी हो जाती है और नेतृत्व, चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का हो, चुनाव से चुनाव तक की रणनीतियां बनाने में अपनी सारी ऊर्जा खपा देता है। सत्ता हावी हो जाती है समूची राजनीति पर और इस सत्ता की संस्कृति में तथाकथित राजनीतिक दलों में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता।
यहां यह तथाकथित शब्द ज़रा चौंकाता ज़रूर है, पर वास्तविकता यही है। क्षेत्रीय दलों की सारी राजनीति का दारोमदार कुछ व्यक्तियों-परिवारों तक सिमट कर रह गया और राष्ट्रीय कहे जाने वाले दल भी धीरे-धीरे ऐसी ही स्थिति को प्राप्त करते जा रहे हैं। लगभग सत्तर साल देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने हाईकमानी राजनीति की शुरुआत की थी। इस हाईकमान का कुछ भी मतलब समझा जा रहा हो, पर अंतत: इसका अर्थ कोई एक व्यक्ति या एक परिवार बनकर रह गया। यह विडंबना ही है कि देश की सबसे पुरानी और गौरवशाली इतिहास वाली पार्टी पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद लगातार परिवारवादी राजनीति का शिकार बनती गयी। इंदिरा गांधी के कार्य-काल में ही शुरुआत हुई थी इस हाईकमान शब्द की, और कब यह शब्द एक व्यक्ति का पर्याय बन गया, पता ही नहीं चला। आज कांग्रेस में सब निर्णय हाईकमान के नाम पर लिये जाते हैं। बतलाया भले ही इसे शीर्ष समूह हो, पर यह समूह आज तीन व्यक्तियों तक सीमित होकर रह गया है।
विडंबना यह भी है कि कांग्रेस की रीति-नीति का विरोध करने की घोषणाओं के साथ सत्ता पर काबिज़ होने वाली भारतीय जनता पार्टी पर भी यह हाईकमानी संस्कृति वाली राजनीति हावी होती जा रही है। भाजपा की कार्यशैली को समझने का दावा करने वालों का कहना है कि कांग्रेस में यह हाईकमान भले ही तीन व्यक्तियों वाला हो, भाजपा में इसका अर्थ दो व्यक्ति ही है। रिजर्व बैंक के एक भूतपूर्व गवर्नर इसे ‘केंद्र के भीतर केंद्र’ वाली राजनीति मानते हैं।
सब जानते हैं कि क्षेत्रीय दलों पर कुछ व्यक्ति या परिवार हावी हैं। उत्तर की ‘आप’ पार्टी से लेकर दक्षिण की ‘द्रमुक’ तक और पूर्व की तृणमूल कांग्रेस से लेकर पश्चिम की राष्ट्रवादी कांग्रेस तक में मुख्यत: एक व्यक्ति का ‘आधिपत्य’ स्पष्ट दिखाई देता है। ये और ऐसी अन्य कई पार्टियां व्यक्ति-विशेष के भरोसे पर चल रही हैं। दावे भले ही नीतियों और वादों के किये जाते हों, पर हकीकत यह है कि इन दलों की बागडोर सिर्फ उसी के हाथ में रहती है, जो वोट दिला सकता है। यही स्थिति कांग्रेस की भी बनी रही और दुर्भाग्य से, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहलाने वाली भाजपा में भी यही स्थिति बनती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भाजपा के एकछत्र नेता हैं, जैसे कभी कांग्रेस में इंदिरा गांधी हुआ करती थीं। पिछले दो आम चुनावों में भाजपा को शानदार सफलता दिलाने का श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिए। लोकसभा ही नहीं, राज्यों के लिए होने वाले चुनावों में भी भाजपा का एकमात्र चेहरा नरेंद्र मोदी ही होते हैं। यह स्थिति भले ही किसी को नेतृत्व की ताकत का अहसास कराती हो, पर इसे जनतांत्रिक परंपराओं के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति नहीं, नीतियां महत्वपूर्ण होनी चाहिए। पर आज हमारे देश की राजनीति का सच इससे उलटा है।
बहरहाल, पिछले कुछ दिनों में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं, देश में। एक गुजरात में और दूसरी पंजाब में। राज्य में चुनाव से कुछ ही महीने पहले गुजरात में समूचे मंत्रिमंडल को बदल दिया गया। अपने ढंग का पहला उदाहरण है शायद यह। ऐसा कुछ होने वाला है, इसका कोई संकेत किसी को नहीं मिला था। सत्ता-विरोधी भावनाओं को शांत करने के लिए इस तरह के कदम पहले भी उठाये जाते रहे हैं, पर यह कार्रवाई सचमुच चौंकाने वाली थी। पर मज़े की बात यह है कि गुजरात के सत्तारूढ़ दल भाजपा में कोई चौंका नहीं। इतने बड़े झटके को चुपचाप स्वीकार कर लिया गया। कोई चौंका भी तो उसने यह बताने की हिम्मत नहीं की। यह स्थिति भाजपा के केंद्रीय हाईकमान की ताकत बताती है। पर ताकत जताने का यह तरीका कुछ अर्सा पहले तक कांग्रेस में ही काम में लाया जाता था। इस दृष्टि से इसे भाजपा के कांग्रेसीकरण के एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। लग रहा है जैसे पुरानी कांग्रेस जैसी होती जा रही है भाजपा।
ऐसी ही पंजाब की घटना चुनाव से पांच-छह महीने पहले ही मुख्यमंत्री को बदलने की है। यहां कांग्रेस का शासन था। यहां भी यह बदलाव जनता के सत्ता-विरोधी रुझान को विफल बनाने के लिए ही किया गया है। पर शैली वही हाईकमानी रही है। कहा तो यह जाता है कि मुख्यमंत्री विधायक-दल के लोग चुनते हैं, पर यह जनतंत्र का मज़ाक ही है कि निर्णय का अधिकार हाईकमान को सौंप दिया जाता है।
पर गुजरात और पंजाब में थोड़ा-सा अंतर है। भाजपा की एक व्यक्ति की हाईकमान कांग्रेस के तीन व्यक्तियों की हाईकमान से ज़्यादा मज़बूत है। इसीलिए पंजाब में नये मुख्यमंत्री हाईकमान की पहली पसंद न होने के बावजूद कुर्सी पाने में सफल रहे।
एक दलित को मुख्यमंत्री बनाने का यह दांव कांग्रेस को कितना लाभ देता है, यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा, पर इस घटनाक्रम से यह पता ज़रूर चल गया है कि कांग्रेस में हाईकमान भले ही एक विवशता हो, पर उतना ताकतवर नहीं है जितना भाजपा का हाईकमान है। सच तो यह है कि ऐसी स्थिति पहले भाजपा में हुआ करती थी, जब क्षेत्रीय नेतृत्व हाईकमान को हावी नहीं होने देता था। इस दृष्टि से देखें तो कांग्रेस पुरानी वाली भाजपा जैसी होती दिख रही है।
गुजरात और पंजाब का यह नेतृत्व-परिवर्तन हमारी राजनीति की हाईकमानी संस्कृति को एक बार फिर सामने ले आया है। यह भले ही राजनीतिक दलों की विवशता हो, पर जनतांत्रिक परंपराओं की दृष्टि से यह खतरे की घंटी है। हमारा जनतंत्र मज़बूत बने, इसके लिए यह ज़रूरी है कि व्यक्ति नहीं, नीतियां महत्वपूर्ण बनें। चुनावी सफलता नहीं, सैद्धांतिक मज़बूती ही जनतंत्र को मज़बूत बना सकती है। पता नहीं कब हमारी राजनीति इस दिशा में आगे बढ़ पायेगी!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।