करन सिंह दलाल
एसवाईएल नहर का मुद्दा अब फिर गरमा गया है। पंजाब व हरियाणा के नेताओं का यह शगल बन गया है कि जब-जब राज्यों में गम्भीर मुद्दे आयें, उनसे ध्यान भटकाने के लिए इस जुमले का इस्तेमाल किया जाये। दोनों प्रदेशों के नेताओं को पता है कि इस मुद्दे पर केवल और केवल गाल बजानी है। न नहर, न पानी से उनका कोई वास्ता है। दोनों प्रदेशों की जनता भी इस मुद्दे से ऊब चुकी है।
हरियाणा व पंजाब सरकार ने वर्ष 1979 में केस डालकर अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। इसमें दोनों का ही स्वार्थ था क्योंकि हरियाणा के हिस्से का 18-19 लाख एकड़ फुट पानी 1977 से भाखड़ा मेन लाइन नहर से उनके इलाके में जा रहा था। 31 दिसम्बर, 1981 को तत्कालीन प्रधानमंत्री की उपस्थिति में पंजाब, हरियाणा व राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के बीच रावी ब्यास के अतिरिक्त जल के बंटवारे का समझौता हुआ, जिसके अनुसार 17.17 एमएएफ पानी में से 4.22 एमएएफ पंजाब को, 3.5 एमएएफ हरियाणा को, 8.60 एमएएफ पानी राजस्थान को, 0.20 एमएएफ पानी दिल्ली व 0.65 एमएएफ पानी जम्मू-कश्मीर को आवंटित हुआ। समझौते में तय हुआ कि एसवाईएल नहर का निर्माण पंजाब में 2 साल में पूरा किया जाएगा और उच्चतम न्यायालय से देवीलाल व प्रकाश सिंह बादल के समय में डाले मुकदमे वापस लिए जाएंगे।
8 अप्रैल, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटियाला के कपूरी गांव में एसवाईएल निर्माण की आधारशिला रखी, जिसके तुरंत बाद पंजाब में इस नहर के निर्माण के विरुद्ध प्रकाश सिंह बादल ने धर्मयुद्ध छेड़ दिया। उसके बाद ही पंजाब में उग्रवाद का जन्म हुआ। इसके बाद एक काला अध्याय देश ने देखा। राजीव गांधी ने पंजाब के आतंकवाद का राजनैतिक समाधान निकालने के लिए अकाली दल (लोंगोवाल) के अध्यक्ष संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ 24 जुलाई, 1985 को पंजाब समझौता किया, जिसमें राजधानी व भाषाई विवादों के साथ-साथ जल विवाद के समाधान का प्रावधान किया। इस समझौते में जल विवाद के बारे अनुच्छेद तीन में प्रावधान थे। एक यह कि 1 जुलाई, 1985 को विभिन्न राज्यों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा पानी संरक्षित होगा। दूसरा, रावी ब्यास के फालतू पानी के बंटवारे का फैसला एक ट्रिब्यूनल करेगा और तीसरा पंजाब सरकार 15 अगस्त, 1986 तक एसवाईएल नहर का निर्माण करेगी। इस समझौते के खिलाफ हरियाणा में चौ. देवीलाल व डा. मंगल सैन के नेतृत्व में संघर्ष समिति गठित कर न्याय युद्ध के नाम से आंदोलन छेड़ दिया गया और पंजाब में उग्रवाद भड़क गया। कुछ ही दिन बाद संत लोंगोवाल की आतंकवादियों ने हत्या कर दी और नहर का निर्माण कार्य अधर में लटक गया।
आज हैरानी की बात है कि उसी राजीव-लोंगोवाल अवार्ड को देवी लाल की पार्टी, उनका परिवार और भाजपा लागू करने की मांग कर रहे हैं। ऐसा करने से पहले उन्हें हरियाणा के लोगों से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि 1986 में न्याय युद्ध आन्दोलन न चलाते तो एसवाईएल नहर का निर्माण उसी समय पूरा हो गया होता। दरअसल 1986 में हरियाणा के मुख्यमंत्री चौ. बंसीलाल ने इस नहर का निर्माण कार्य पूरा करने का भरसक प्रयास किया था। सितम्बर, 1985 के विधानसभा चुनावांे में जीतकर सुरजीत सिंह बरनाला पंजाब के मुख्यमंत्री बने और उन्हाेंने समझौते अनुसार एसवाईएल नहर का निर्माण युद्धस्तर पर शुरू कर दिया। मार्च, 1987 में उनकी सरकार की बर्खास्तगी तक नहर का लगभग 90 प्रतिशत निर्माण उन्होंने करवा दिया था।
समझौते के अनुसार 2 अप्रैल, 1986 को केन्द्र सरकार में रावी-ब्यास ट्रिब्यूनल का गठन न्यायविद् बालकृष्ण इराडी की अध्यझता में कर दिया गया। इस ट्रिब्यूनल ने अपना ड्राफ्ट अवार्ड 31 जनवरी, 1987 को घोषित किया, जिसे केन्द्र सरकार ने सम्बंधित राज्यों को विचार के लिए भेजा। इस ड्राफ्ट अवार्ड पर पंजाब सरकार ने 19 अगस्त, 1987 को अपने एतराज दाखिल किए। जिनका फैसला करने के उपरांत ट्रिब्यूनल अंतिम ड्राफ्ट अवार्ड घोषित करता जो आज तक नहीं हो सका। जिस वक्त ट्रिब्यूनल ने जल विवाद का अवार्ड घोषित करना था, उस समय देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री बन चुके थे और दो साल बाद केन्द्र में उपप्रधानमंत्री बन गये। अगर वो पानी का फैसला करवाने में दिलचस्पी रखते तो ट्रिब्यूनल के खाली पदों पर नियुक्ति करवा सकते थे।
सन् 1996 में हरियाणा सरकार ने उच्चतम न्यायालय में नहर बनवाने का आदेश देने का केस डाला, जिसका फैसला 15 जनवरी, 2002 को आया। जिसके पैरा 14 में माननीय न्यायालय ने रावी-ब्यास ट्रिब्यूनल पर बड़ी तल्ख टिप्पणी की कि सरकार ट्रिब्यूनल के खाली पदों पर नियुक्ति करके अवार्ड को फाइनल नहीं करवा रही है और एक उच्चतम न्यायालय का अवकाशप्राप्त न्यायाधीश बगैर काम के वेतन ले रहा है। यह फैसला आने पर तत्कालीन मुख्यंमत्री ओ.पी. चौटाला और भाजपा ने दीप जलवा कर जश्न मनाया पर उनके समर्थन से एनडीए की केन्द्र सरकार ने ट्रिब्यूनल के खाली पदों पर नियुक्ति के लिए एक चिट्ठी भी नहीं लिखी। उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद किसी भी सरकार ने पंजाब ट्रमिनेशन आॅफ रिवर वाटर एक्ट की वैधता को निरस्त करने के लिए आज तक किसी भी उच्च न्यायालय या अन्य न्यायालय में दावा नहीं डाला है। दरअसल, राजनेताओं की दोहरी नीतियों के कारण आज हरियाणा पानी के लिए तरस रहा है। एक मौका फिर आया है जब सुप्रीम कोर्ट मामले को सुलझाने में गम्भीरता दिखा रहा है और केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक पूर्ण बहुमत की मजबूत सरकार है परंतु हरियाणा में वही पुरानी जोड़ी नए रूप में शासन पर विराजमान है। हरियाणा के नेताओं को समझना होगा कि एसवाईएल का निर्माण बड़बोले बयानों से नहीं हो सकता।
ब्यास सतलुज चैनल तैयार होने के बाद 1977 से हरियाणा 1.62 एमएएफ से 1.92 एमएएफ ब्यास का पानी भाखड़ा मेन लाइन नहर के माध्यम से ले रहा है, जिसको पंजाब भी मानता है। भाखडा मेन लाइन नहर 60 साल पुरानी हो चुकी है, जिसकी क्षमता घटती ही जा रही है और इसकी मरम्मत की भी जरूरत पड़ती है। यह भी एक तथ्य है कि एक-आध साल छोड़कर हर साल व साल में कई बार भाखड़ा बांध का गोविन्द सागर जलकोश ओवरफ्लो होता है और वो पानी बगैर इन्डेंट के बहाना पड़ता है, जिसके कारण पंजाब के लोगों का बाढ़ से नुकसान होता है और वह पानी अंत में पाकिस्तान ही जाता है।
अतः जब जलकोश में ओवरफ्लो की स्थिति में अगर वो पानी एसवाईएल में छोड़ दिया जाए तो वह पानी महेन्द्रगढ़ व भिवानी के मरुस्थल के लोगों की प्यास बुझा सकता है। हरियाणा के बयानवीर नेता जिस कस्सी से नहर खोदने जाते हैं, उन कस्सियों को किसानों व मजदूरों को दे दें ताकि वे रोजी-रोटी कमा सकें। कस्सी से राजनीति न करें। यह नहर किसानों व खेतों की प्यास बुझाने के लिए है, ना कि वोटों की खेती करने के लिए। पंजाब व हरियाणा के नेताओं से यह गुजारिश है कि वे पानी व नहर के मुद्दे पर राजनीति करने से किनारा कर लें। अगर अब तक की जांच कराई जाए तो पता चल जाएगा कि एसवाईएल के नाम पर वकीलों को दी जाने वाली अरबों रुपये की फीस में एक छोटी एसवाईएल नहर का निर्माण किया जा सकता था।
लेखक हरियाणा के कृषि मंत्री रहे हैं।