प्रेमचंद
शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहां शाम ही से अंधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहां जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आंख के सामने रहते हैं, उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैजि़नी ख़ामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आंखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं, और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजि़नी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़्याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्हीं अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के गुलाम होकर ज़लील से ज़लील काम करते हैं।
मैजि़नी अपने विचारों में डूबा हुआ है। आह बदनसीब क़ौम! मज़लूम इटली! क्या तेरी क़िस्मतें कभी न सुधरेंगी, क्या तेरे सैकड़ों सपूतों का खून ज़रा भी रंग न लाएगा! क्या तेरे देश से निकाले हुए हज़ारों जांनिसारों की आहों में ज़रा भी तासीर नहीं! शायद तुझमें अभी सुधरने, स्वतन्त्र होने की योग्यता नहीं आयी। मैजि़नी इन्हीं ख़्यालों में डूबा हुआ था कि उसका दोस्त रफेती जो उसके साथ निर्वासित किया गया था, इस कोठरी में दाख़िल हुआ। उसके हाथ में एक बिस्कुट का टुकड़ा था। रफेती उम्र में अपने दोस्त से दो-चार बरस छोटा था। उसने मैजि़नी का कंधा पकड़कर हिलाया और कहा-जोज़फ, यह लो, कुछ खा लो। मैजि़नी ने चौंककर सर उठाया और बिस्कुट देखकर बोला-यह कहां से लाये? तुम्हारे पास पैसे कहां थे? रफेती-पहले खा लो फिर यह बातें पूछना, तुमने कल शाम से कुछ नहीं खाया है। मैजि़नी-पहले यह बता दो, कहां से लाये। रफेती-पूछकर क्या करोगे? वही अपना नया कोट जो मां ने भेजा था, गिरवी रख आया हूं। मैजि़नी ने एक ठण्डी सांस ल़ी। रोते हुए बोला-यह तुमने क्या हरकत की, क्रिसमस के दिन आते हैं, उस वक़्त क्या पहनोगे? क्या इटली के एक लखपति व्यापारी का इकलौता बेटा क्रिसमस के दिन भी ऐसे ही फटे-पुराने कोट में बसर करेगा? ऐं? रफेती-क्यों, क्या उस वक़्त तक कुछ आमदनी न होगी, हम तुम दोनों नये जोड़े बनवाएंगे और अपने प्यारे देश की आने वाली आज़ादी के नाम पर खुशियां मनाएंगे।
क्रिसमस का दिन है, लन्दन में चारों तरफ़ खुशियों की गर्म बाज़ारी है। छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सब अपने-अपने घर खुशियां मना रहे हैं। कोई उदास सूरत नज़र नहीं आती है। ऐसे वक़्त में मैजि़नी और रफेती दोनों उसी छोटी-सी अंधेरी कोठरी में सर झुकाये खामोश बैठे हैं। अफ़सोस! इटली का सरताज जिसकी एक ललकार पर हज़ारों आदमी अपना खून बहाने के लिए तैयार हो जाते थे, आज ऐसा मुहताज हो रहा है कि उसे खाने का ठिकाना नहीं। इतने में एक चिट्ठीरसा ने पूछा-जोज़ेफ मैजि़नी यहां कहीं रहता है? अपनी चिट्ठी ले जा। रफेती ने खत ले लिया और खुशी के जोश से उछल कर बोला-जोज़ेफ, यह लो मैग्डलीन का खत है। मैजि़नी ने चौंककर ख़त ले लिया और बड़ी बेसब्री से खोला। लिफ़ाफा खोलते ही थोड़े से बालों का एक गुच्छा गिर पड़ा, जो मैग्डलीन ने क्रिसमस के उपहार के रूप में भेजा था। मैजि़नी ने उस गुच्छे को चूमा और उसे उठाकर अपने सीने की जेब में खोंस लिया। ख़त में लिखा था—
माइ डियर जोज़फ, यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो। भगवान करे तुम्हें एक सौ क्रिसमस देखने नसीब हों। इस यादगार को हमेशा अपने पास रखना और ग़रीब मैग्डलीन को भूलना मत। मैं तेरे साथ मुसीबतें झेलूंगी, भूखों मरूंगी, यह सब मुझे गवारा है, मगर तुझसे जुदा रहना गवारा नहीं। तुझे क़सम है, यहां आजा, क्रिसमस क़रीब है, मुझे क्या, जब तक जि़न्दा हूं, तेरी हूं। तुम्हारी-मैग्डलीन
मैग्डलीन का घर स्विट्ज़रलैण्ड में था। वह एक समृद्ध व्यापारी की बेटी थी और अनिन्द्य सुन्दरी। कितने ही अमीर और रईस लोग उसका पागलपन सर में रखते थे, मगर वह किसी को कुछ ख़्याल में न लाती थी। मैजि़नी जब इटली से भागा तो स्विटज़रलैण्ड में आकर शरण ली। मैग्डलीन उस वक़्त भोली-भाली, जवानी की गोद में खेल रही थी। मैजि़नी की हिम्मत और कुर्बानियों की तारीफें पहले ही सुन चुकी थी। कभी-कभी अपनी मां के साथ उसके यहां आने लगी और आपस का मिलना-जुलना जैसे-जैसे बढ़ा और मैजि़नी के भीतरी सौन्दर्य का ज्यों-ज्यों उसके दिल पर गहरा असर होता गया, उसकी मुहब्बत उसके दिल मे पक्की होती गयी। मैजि़नी की जवानी की पुरजोश उम्मीदें दिल में लहरें मार रही थीं, मगर उसने संकल्प कर लिया था कि मैं देश और जाति पर अपने को न्योछावर कर दूंगा। और इस संकल्प पर क़ायम रहा। एक ऐसी सुन्दर युवती के नाजुक-नाजुक होंठों से ऐसी दरख्वास्त सुनकर रद्द कर देना मैजि़नी ही जैसे संकल्प के पक्के हियाव के पूरे आदमी का काम था। मैग्डलीन भीगी-भीगी आंखें लिये उठी मगर निराश न हुई थी।
मैजि़नी ख़त पढ़ चुका तो एक लम्बी आह भरकर रफेती से बोला-देखा मैग्डलीन क्या कहती है? रफेती-उस ग़रीब की जान लेकर दम लोगे! मैजि़नी फिर ख़्याल में डूबा-मैग्डलीन, तू नौजवान है, सुन्दर है, भगवान ने तुझे अकूत दौलत दी है, तू क्यों एक ग़रीब, दुखियारे, कंगाल, फक्कड़, परदेश में मारे-मारे फिरने वाले आदमी के पीछे अपनी जि़न्दगी मिट्टी में मिला रही है! मैजि़नी ने क़लम-दवात निकाली और मैग्डलीन को ख़त लिखना शुरू किया?
प्यारी मैग्डलीन, तुम्हारा ख़त उस अनमोल तोहफ़ा के साथ आया। मैं तुम्हारा हृदय से कृतज्ञ हूं कि तुमने मुझ जैसे बेकस और बेबस आदमी को इस भेंट के क़ाबिल समझा। मैं उसकी हमेशा क़द्र करूंगा। यह मेरे पास हमेशा एक सच्चे नि:स्वार्थ और अमर प्रेम की स्मृति के रूप में रहेगी और जिस वक़्त यह मिट्टी का शरीर क़ब्र की गोद में जाएगा मेरी आख़िरी वसीयत यह होगी कि यह यादगार मेरे जनाज़े के साथ दफ़न कर दी जाये।
मगर प्यारी बहन, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है। तुम मेरी तकलीफों के ख़्याल से अपना दिल मत दुखाना। मेरा जी बेअख्तियार चाहता है कि तुझे देखूं। काश मैं आज़ाद होता। देखो मुझसे नाराज़ न हो। खुदा की क़सम, मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं हूं। आज क्रिसमस का दिन है, तुम्हें क्या तोहफ़ा भेजूं। खुदा तुम पर हमेशा अपनी बेइन्तहा बरकतों का साया रखे। अपनी मां को मेरी तरफ़ से सलाम कहना। -तेरा जोज़ेफ।
बहुत दिन गुज़र गये। जोजेफ़ मैजि़नी फिर इटली पहुंचा और रोम में पहली बार जनता के राज्य का एेलान किया गया। तीन आदमी राज्य की व्यवस्था के लिए निर्वाचित किये गये। मैजि़नी भी उनमें एक था। मगर थोड़े ही दिनों में फ्रांस की ज़्यादातियों और पीडमाण्ट के बादशाह की दग़ाबाजि़यों की बदौलत इस जनता के राज का ख़ात्मा हो गया और उसके कर्मचारी और मन्त्री अपनी जानें लेकर भाग निकले। मैजि़नी अपने विश्वसनीय मित्रों की दग़ाबाजी और मौक़ा-परस्ती पर पेचोताब खाता हुआ ख़स्ताहाल और परेशान रोम की गलियों कि ख़ाक छानता फिरता था। दोपहर का वक़्त था, धूप से परेशान होकर वह एक पेड़ की छाया में ज़रा दम लेने के लिए ठहर गया कि सामने से एक लेडी आती हुई दिखाई दी। उसका चेहरा पीला था, कपड़े बिल्कुल सफेद और सादा, उम्र तीस साल से ज़्यादा। मैजि़नी आत्म-विस्मृति की दशा में था कि यह स्त्री प्रेम से व्यग्र होकर उसके गले लिपट गयी। मैजि़नी ने चौक़कर, देखा, बोला-प्यारी मैग्डलीन, तुम हो! मैग्डलीन ने रोकर कहा-जोज़ेफ! और मुंह से कुछ न निकला। दोनों ख़ामोश कई मिनट तक रोते रहे। आख़िर मैजि़नी बोला-तुम यहां कब आयी, मेगा?
मैग्डलीन-मैं यहां कई महीने से हूं, मगर तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं निकलती थी। तुम्हें कामकाज में डूबा हुआ देखकर और यह समझकर कि अब तुम्हें मुझ जैसी औरत की हमदर्दी की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही, तुमसे मिलने की कोई ज़रूरत न देखती थी। (रुककर) क्यों जोज़फ, यह क्या कारण है कि अक्सर लोग तुम्हारी बुराई किया करते हैं? क्या वह अन्धे हैं, क्या भगवान ने उन्हें आंखें नहीं दीं?
जोज़ेफ-मेगा, शायद वह लोग सच कहते होंगे। फ़िलहाल मुझमें वह गुण नहीं है जो मैं शान के मारे अक़्सर कहा करता हूं कि मुझमें हैं या जिन्हें तुम अपनी सरलता और पवित्रता के कारण मुझमें मौजूद समझती हो। मेरी कमज़ोरियां रोज़-ब-रोज़ मुझे मालूम होती जाती हैं। मैग्डलीन -तभी तो तुम इस काबिल हो कि तुम्हारी पूजा करूं। मुझे अफसोस है कि दुनिया में क्यों लोग इतने तंग-दिल और अन्धे होते हैं और ख़ासतौर पर वह लोग जिन्हें मैं तंग ख़्यालो से ऊपर समझती थी। रेफेती, रसारीनो, पलाइनो, बर्नाबास यह सब के सब तुम्हारे दोस्त हैं। तुम उन्हें अपना दोस्त समझते हो, मगर वह सब तुम्हारे दुश्मन हैं। जोज़फ से अब सब्र न हो सका। मैग्डलीन के मुरझाये हुए पीले-पीले हाथों को चूमकर कहा-प्यारी मेगा, मेरे दोस्त बेक़सूर हैं और मैं खुद दोषी हूं। (रोकर) जो कुछ उन्होंने कहा वह सब मेरे ही इशारे और मर्ज़ी के अनुसार था, मैंने तुमसे दग़ा की मगर मेरी प्यारी बहन, यह सिर्फ इसलिए था कि तुम मेरी तरफ़ से बेपरवाह हो जाओ और अपनी जवानी के ब़ाकी दिन खुशी से बसर करो। मैं बहुत शर्मिन्दा हूं। मैं मांफी चाहता हूं। मैग्डलीन -हाय, जोज़ेफ, तुम मुझसे माफ़ी मांगते हो, ऐं, तुम जो दुनिया के सब इनसानों से ज़्यादा नेक, ज़्यादा सच्चे और ज़्यादा लायक़ हो! मगर हां, बेशक तुमने मुझे बिल्कुल न समझा था जोज़ेफ! यह तुम्हारी ग़लती थी। मुझे ताज्जुब तो यह है कि तुम्हारा ऐसा पत्थर का दिल कैसे हो गया।
जोज़फ-मेगा, ईश्वर जानता है जब मैंने रफेती को यह सब सिखा-पढ़ाकर तुम्हारे पास भेजा है, उस वक़्त मेरे दिल की क्या कैफ़ियत थी। मैं जो दुनिया में नेकनामी को सबसे ज़्यादा क़ीमती समझता हूं और मैं जिसने दुश्मनों के ज़ाती हमलों को कभी पूरी तरह काटे बिना न छोड़ा, अपने मुंह से सिखाऊं कि जाकर मुझे बुरा कहो! मगर यह केवल इसलिए था कि तुम अपने शरीर का ध्यान रखो और मुझे भूल जाओ।
सच्चाई यह थी कि मैजि़नी ने मैग्डलीन के प्रेम को रोज़-ब-रोज़ बढ़ते देखकर एक ख़ास हिकमत की थी। उसे खूब मालूम था कि मैग्डलीन के प्रेमियों में से कितने ही ऐसे हैं जो उससे ज़्यादा सुन्दर, ज़्यादा दौलतमन्द और ज़्यादा अक़्ल वाले हैं, मगर वह किसी को ख़्याल में नहीं लाती। मैग्डलीन पर मुहब्बत का रंग ऐसा गहरा चढ़ा हुआ था कि इन कोशिशों का इसके सिवाय और कोई नतीजा न हो सकता था जो हुआ। वह एक रोज़ बेक़रार होकर घर से निकल खड़ी हुई और रोम में आकर एक सराय में ठहर गयी। यहां उसका रोज़ का नियम था कि मैजि़नी के पीछे-पीछे उसकी निगाह से दूर घूमा करती मगर उसे आश्वस्त और अपनी सफलता से प्रसन्न देखकर उसे छेड़ऩे का साहस न करती थी। आख़िरकार जब फिर उस पर असफलताओं का वार हुआ और वह फिर दुनिया में बेकस और बेबस हो गया तो मैग्डलीन ने समझा, अब इसको किसी हमदर्द की ज़रूरत है। और पाठक देख चुके हैं जिस तहर वह मैजि़नी से मिली।
मैजि़नी रोम से फिर इंगलिस्तान पहुंचा और यहां एक अरसे तक रहा। सन् 1870 में उसे ख़बर मिली कि सिसली की रिआया बग़ावत पर आमादा है और उन्हें मैदाने जंग में लाने के लिए एक उभारने वाले की ज़रूरत है। बस वह फ़ौरन सिसली पहुंचा मगर उसके जाने के पहले शाही फ़ौज ने बाग़ियों को दबा दिया था। मैजि़नी जहाज़ से उतरते ही गिरफ्तार करके एक कै़दखाने में डाल दिया गया। मगर चूंकि अब वह बहुत बुड्ढा हो गया था, शाही हुक्काम ने इस डर से कि कहीं वह क़ैद की तकलीफों से मर जाये तो जनता को सन्देह होगा कि बादशाह की प्रेरणा से वह क़त्ल कर डाला गया, उसे रिहा कर दिया। निराश और टूटा हुआ दिल लिये मैजि़नी स्विट्ज़रलैण्ड की तरफ़ रवाना हुआ। उसकी जि़न्दगी की तमाम उम्मीदें ख़ाक में मिल गयीं। निरन्तर असफलताओं ने दृढ़व्रती मैजि़नी के दिल में यह ख़्याल पैदा किया कि शायद जनता की राजनीतिक शिक्षा इस हद तक नहीं हुई, कि वह अपने लिए एक प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था की बुनियाद डाल सके और इसी नीयत से वह स्विट्जरलैण्ड जा रहा था कि वहां से एक ज़बरदस्त क़ौमी अख़बार निकाले, क्योंकि इटली में उसे अपने विचारों को फैलाने की इजाज़त न थी। वह रात भर नाम बदलकर रोम में ठहरा। फिर वहां से अपनी जन्मभूमि जिनेवा में आया और अपनी नेक मां की क़ब्र पर फूल चढ़ाये। इसके बाद स्विटज़लैण्ड की तरफ़ चला और साल भर तक कुछ विश्वसनीय मित्रों की सहायता से अख़बार निकालता रहा। मगर निरन्तर चिन्ता और कष्टों ने उसे बिल्कुल क़मज़ोर कर दिया था। सन् 1870 में वह सेहत के ख़्याल से इंगलिस्तान आ रहा था कि आल्पस पर्वत की तलहटी में निमोनिया की बीमारी ने उसके जीवन का अन्त कर दिया और वह एक अरमानों से भरा हुआ दिल लिये स्वर्ग को सिधारा।
मैंजि़नी को क़ब्र में सोये हुए आज तीन दिन गुज़र गये। शाम का वक़्त था, सूरज की पीली किरणें इस ताज़ा क़ब्र पर हसरतभरी आंखों से ताक रही हैं। तभी एक अधेड़ खूबसूरत औरत, सुहाग के जोड़े पहने, लडख़ड़ाती हुई आयी। यह मैग्डलीन थी। उसका चेहरा शोक में डूबा हुआ था, बिल्कुल मुर्झाया हुआ, कि जैसे अब इस शरीर में जान बाक़ी नहीं रही। वह इस क़ब्र के सिरहाने बैठ गयी और अपने सीने पर खुंसे हुए फूल उस पर चढ़ाये, फिर घुटनों के बल बैठकर सच्चे दिल से दुआ करती रही। जब खूब अंधेरा हो गया, बर्फ पड़ने लगी तो वह चुपके से उठी और ख़ामोश सर झुकाये क़रीब के एक गांव में जाक़र रात बसर की और भोर की वेला अपने मकान की तरफ़ रवाना हुई। मैग्डलीन की मां बहुत ज़माना हुआ, मर चुकी थी। उसने मैजि़नी के नाम से एक आश्रम बनवाया और खुद आश्रम की ईसाई लेडियों के लिबास में वहां रहने लगी। मैजि़नी का नाम उसके लिए एक निहायत पुरदर्द और दिलकश गीत से कम न था। हमदर्दों और क़द्रदानों के लिए उसका घर उनका अपना घर था। मैजि़नी के ख़त उसकी इंजील और मैजि़नी का नाम उसका ईश्वर था। आस-पास के ग़रीब लडक़ों और मुफ़लिस बीवियों के लिए यही बरकत से भरा हुआ नाम जीविका का साधन था। मैग्डलीन तीन बरस तक जि़न्दा रही और जब मरी तो अपनी आख़िरी वसीयत के मुताबिक उसी आश्रम में दफ़न की गयी। उसका प्रेम मामूली प्रेम न था, एक पवित्र और निष्कलंक भाव था और वह हमको उन प्रेम-रस में डूबी हुई गोपियों की याद दिलाता है जो श्रीकृष्ण के प्रेम में वृन्दावन की कुंजों और गलियों में मंडराया करती थीं, जो उससे मिले होने पर भी उससे अलग थीं और जिनके दिलों में प्रेम के सिवा और किसी चीज़ की जगह न थी। मैजि़नी का आश्रम आज तक क़ायम है और ग़रीब और साधु-सन्त अभी तक मैजि़नी का पवित्र नाम लेकर वहां हर तरह का सुख पाते हैं।
(साभार : हिंदी समय डॉट कॉम)