शमीम शर्मा
लोककथा है कि एक सूअर भेड़ों के झुंड के साथ चरता था। एक दिन गडरिये ने उसे देख लिया और पकड़ लिया। सूअर ने चिल्लाना शुरू किया और यह देखकर भेड़ें उस पर हंसने लगीं। एक भेड़ ने कहा- तुम क्यों चिल्ला रहे हो, गडरिया हमें भी तो पकड़ता है पर हम तुम्हारी तरह कभी शोर नहीं मचाते। यह सुनकर सूअर बोला- जब गडरिया तुम्हें पकड़ता है तो उसे सिर्फ ऊन चाहिए होती है लेकिन जब मुझे पकड़ता है तो मतलब है कि उसे भोजन चाहिए और वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।
कुल सार यह है कि मरने से हर किसी को डर लगता है। और जिंदगी जैसी भी हो हर कोई जीना चाहता है। पर आपस में ही मारने-काटने की घटनायें रोजाना अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। मारने-काटने की घटनायें न हों तो आत्महत्या की वारदातें छायी रहती हैं। एक बार एक नौजवान आत्महत्या करने किसी नदी के तट पर पहंुचा तो उसकी पदचाप सुनकर वहां पानी पीने आये हिरणों के झुंड में खलबली मच गई और सब हिरण कूद मारते हुये भाग लिये। इधर-उधर उछलते-फांदते मेढक भी तितर-बितर होने लगे। तब भी आत्मघाती कदम उठाने वाले नौजवान की समझ में नहीं आया कि जीवन कितना प्यारा है।
आपसी मारकाट और आत्महत्या मेरे ख्याल से आम बात है। सदियाें से ऐसा होता ही आया है। इन घटनाओं में अब एक नया अध्याय जुड़ गया है कि आये दिन कभी पति अपनी पत्नी और बच्चों को मार कर खुद को खत्म कर लेता है या पत्नी अपने बच्चों समेत जीवन लीला समाप्त करती प्रतीत होती है। अब इसके लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये? ये कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो है नहीं कि सरकार या साम्प्रदायिकता के सिर ठीकरा फोड़ देंगे। दरअसल, आपस की कलह, अनबन, असफलतायें और अभाव ही जानलेवा बन जाते हैं। कारणों की जांच-पड़ताल करो तो कई बार नशा भी इस तरह की विनाश लीलाओं का कारण बनता है। पता नहीं सहनशीलता और धैर्य किस घाट पर पानी भर रहे हैं? अपने ही अपनों को डुबो रहे हैं तो रखवाला कौन है?
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एक बर की बात है अक सूबेदार सुरजा सिंह दारू डोच्चण मैं लाग रह्या था अर उसकी घरआली रामप्यारी अखबार बाच्चण मैं जुट री थी। अखबार पढ़ते-पढ़ते रामप्यारी समझाण के लहजे मैं बोल्ली- यो देखो अखबार मैं लिख राख्या है अक शराब सेहत के लिये बहोत घणी नुकसानदायक होती है। मेजर सुरजा एकदम उछल कै बोल्या- बंद बंद, बस आज तै ए बंद। रामप्यारी चहकती सी बोल्ली- अच्छा जी आज तै ए दारू बंद। सूबेदार मूच्छ्यां पै मरोड़ देते होये बोल्या- आज तै यो अखबार बंद।