ज्ञाानेन्द्र रावत
बढ़ते तापमान के चलते हो रही भीषण गर्मी के खतरे को कम करने की कोशिशें पूरी दुनिया में तेजी से की जा रही हैं। सदी के अंत तक इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयास जारी हैं। तापमान में वृद्धि से दुनिया पर इस सदी के अंत तक तकरीबन दो अरब तथा भारत में 60 करोड़ लोगों पर जहां भीषण गर्मी का खतरा मंडरा रहा है, वहीं यदि एक डिग्री भी तापमान में बढ़ोतरी होती है तो इस बात की आशंका बलवती है कि इसके चलते 10 गुणा तक विस्थापन बढ़ेगा। वहीं 30 फीसदी तक प्रजातियों की विलुप्ति की संभावना व्यक्त की जा रही है जो भयावह खतरे का संकेत है। नि:संदेह तापमान वृद्धि चुनौती बनकर सामने आ रही है।
वास्तव में बढ़ते प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग ने कई खतरों को जन्म दिया है। इसमें सबसे बड़ी चिंता का सबब ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि है जिसने वैज्ञानिकों और पर्यावरण विज्ञानियों की चिंता को और बढ़ा दिया है। दि मिनिस्ट्री फार दि फ्यूचर में किम स्टेनली रॉबिन्सन ने हीटवेव के दुष्परिणामों को शुरुआती अध्याय में लाखों लोगों की मौत की आशंका जतायी है। पुस्तक में जलवायु परिवर्तन की उन चरम सीमाओं को चित्रित किया गया है जो मनुष्य को जीवित रहने के लिए बेहद कठिन परिस्थितियों को पैदा करता है। इसमें बताया गया है कि लगातार तापमान बढ़ोतरी से आने वाले दशकों में भारी पैमाने पर विस्थापन होगा। वहीं आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इतने अधिक तापमान का सामना करने को मजबूर होगा। अध्ययन में कहा गया है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होती जायेगी, वैसे-वैसे वर्तमान जलवायु में भी तेजी से बदलाव आयेगा और समय के साथ ही यह परिवर्तन भविष्य में विस्थापन की गति को बढ़ावा देगा। इसका परिणाम यह होगा कि केवल एक ही डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से समूची दुनिया में विस्थापन करने वालों की तादाद 10 गुणा तक बढ़ सकती है।
गौरतलब है कि 2011 से 2020 तक का दशक सबसे अधिक गर्म रहा है। इस दशक के आखिर तक 29 डिग्री सेल्सियस से ऊपर वार्षिक तापमान यानी पहली बार दुनिया का औसत तापमान पूर्व औद्योगिक मानक से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच सकता है। इस बारे में यूनिवर्सिटी आफ ईस्ट एंग्लिया में टिंडल सेंटर फार क्लाइमेट रिसर्च की शोधकर्ता कहती हैं कि उच्च तापमान के कारण स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएं पैदा होंगी, जैसे हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क और गुर्दे के साथ-साथ दिमाग और हार्मोनल प्रणाली प्रभावित होगी। इससे समय पूर्व मृत्यु और विकलांगता भी हो सकती है। उल्लेखनीय है कि अत्यधिक तापमान के चलते हर साल तकरीबन 50 लाख लोगों की असमय मौत हो जाती है। जंगलों में आग लगने की घटनाओं में बढ़ोतरी होगी, गरीबी बढ़ेगी, पानी और भोजन की समस्याओं में इजाफा होगा। खेतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। उपज कम होने से खाद्यान्न की किल्लत होगी।
मौजूदा हालात में छह करोड़ लोग तो पहले से ही भीषण गर्मी का सामना कर रहे हैं। तात्पर्य यह कि ये लोग 29 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक के औसत तापमान में रह रहे हैं। यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर पाने में हम कामयाब हो जाते हैं, उस दशा में दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा भीषण गर्मी के ताप से बचाया जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन द्वारा अध्ययन के अनुसार यदि तापमान 2.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ेगा तो उस दशा में तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियां जिनमें स्तनधारी, एम्फीबियन, रेप्टाइल, पक्षी, कोरल, मछली और व्हेल शामिल हैं, तेज गर्मी को सहन न कर पाने की हालत में विलुप्ति के कगार पर पहुंच जायेंगी।
यूसीएल सेंटर फार बायोडायवर्सिटी एण्ड इन्वायरमेंट रिसर्च के शोध प्रमुख का कहना है कि जानवरों और पौधों पर जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे। इनको बड़े पैमाने पर विलुप्ति से बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन को तुरंत कम करने की जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि तापमान में 2.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होती है तो अत्यधिक गर्मी से भारत सबसे ज्यादा प्रभावित होगा। दुनिया की कुल आबादी में से 22 से 39 फीसदी गर्मी के प्रभाव को झेलने को विवश होगी। अनुमान के मुताबिक वर्ष 2070 तक दुनिया की आबादी 9.5 अरब पहुंचने का अनुमान है। वास्तव में जलवायु क्षेत्र तेजी से सिकुड़ रहा है। यह कम कार्बन उत्सर्जन वाले क्षेत्रों के निवासियों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहा है। यही नहीं, समूची दुनिया में जैसे-जैसे तापमान में रिकार्ड बढ़ोतरी हो रही है, वैसे-वैसे हीट स्ट्रेस यानी शहरी इलाकों में गर्मी की वजह से तनाव में बढ़ोतरी हो रही है। इसका कारण विश्व के दक्षिणी हिस्से में शहरी इलाकों में गर्मी का तनाव बढ़ना है। दरअसल, वनस्पति पानी के वाष्पीकरण के माध्यम से हवा के तापमान को कम कर सकती है और हवा की नमी के कारण गर्मी के प्रभाव को बढ़ाती है। अब वैज्ञानिक इस खोज में लगे हैं कि इससे बचाव का उपाय क्या है और इस कहर को कैसे कम किया जाये। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल कार्बन उत्सर्जन कम करने का है, इसके बिना सारी कवायद बेमानी रहेगी।