अंशुमाली रस्तोगी
हालांकि मैं कवि नहीं हूं मगर कवि की बेचैनी को समझ सकता हूं। कवि इन दिनों बहुत बेचैन है। बेचैनी में कविताओं पर कविताएं लिखे चला जा रहा है। कवि कविताएं लिखने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकता है। यही उसका कर्म है। यही उसकी पूंजी।
कवि दरअसल अपनी कविताओं से सिस्टम को बदलना चाहता है। मगर सिस्टम इतना नालायक है कि वो बदलकर नहीं देता। कवि जितना सिस्टम के खिलाफ लिखता है, सिस्टम उतना ही और बिगड़ता जाता है। यह सिस्टम की बड़ी धूर्तता है कि उस पर कवि की कविताओं तक का कोई असर नहीं।
जबकि सुना और देखा यही गया है कि कवि की कविताओं ने देश-समाज के भीतर अनेक क्रांतियां ला दी हैं। देश को आजादी दिलाने में कविताओं की बड़ी भूमिका रही है। सत्ता के खिलाफ जब भी खड़े होने की बात होती है, सबसे पहले कवि ही खड़ा होता है। पाश और दुष्यंत ने कितनी ही कविताएं सत्ता-व्यवस्था के विरुद्ध लिखीं।
कवि केवल सिस्टम को ही नहीं, वो बहुत कुछ को बदल देना चाहता है। कवि को अच्छी तरह से इल्म है कि देश मंदी की गिरफ्त में है। कवि को अभिव्यक्ति की आजादी की भी फिक्र है। कवि बढ़ती बेरोजगारी से भी परेशान है।
इतने नाजुक समय में कवि ने खुद पर ध्यान देना लगभग बंद कर दिया है। वो सिर्फ और सिर्फ कविताएं ही लिख रहा है। बड़ा बोझ उसके कंधों पर है।
जब किसी क्रांतिकारी कवि को बैखोफ होकर कविताएं लिखते देखता-पढ़ता हूं तो मेरा सीना गर्व से फूल जाता है। अपने कवि न होने का दर्द मिटता-सा महसूस होता है।
कवि जितनी बेचैनी अगर हर किसी के दिल में पैदा हो जाए तो मेरा दावा है, यह देश रातभर में काया पलट कर लेगा। कवि भी जी-जान से लगा है कि वो एक दिन इस सिस्टम को बदलकर ही दम लेगा। वो देश को मंदी से उबारेगा।
अभी कवि जरूर बेचैन है लेकिन जल्दी ही वो खुद भी चैन से सोएगा और देश की जनता को भी सोने देगा। मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं, जब कवि को सिस्टम बदला हुआ मिलेगा। हर तरफ क्रांति का उद्घोष होगा।