योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
आज तो मन महाकवि जयशंकर प्रसाद के कालजयी महाकाव्य ‘कामायनी’ की नायिका श्रद्धा द्वारा चिंताग्रस्त मनु को दिए गए दिव्य संदेश में ही अटका हुआ है। श्रद्धा ने मनु से कहा है :-
‘औरों को हंसते देखो मनु,
हंसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।’
क्या ऐसा हो सकता है कि हम ‘कामायनी’ के इस संदेश को फलीभूत होता देख सकें? क्या आदमी की मूल प्रवृत्ति यह हो सकती है? इन प्रश्नों का उत्तर आज एक बड़े ही प्रेरक संदेश से मिला है।
‘महान दार्शनिक सुकरात समुद्र के तट पर टहल रहे थे, तभी उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी। वो उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा, ‘तुम क्यों रो रहे हो?’
बच्चे ने कहा, ‘ये जो मेरे हाथ में प्याला है, मैं उसमें इस समुद्र को भरना चाहता हूं, लेकिन यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं।’
बच्चे की बात सुनकर सुकरात विस्माद में चले गये और स्वयं भी रोने लगे। अब पूछने की बारी बच्चे की थी। बच्चा बोला, ‘अरे! आप भी मेरी तरह रोने लगे, पर आपका प्याला कहां है?’ सुकरात ने जवाब दिया, ‘बालक, तुम छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहते हो और मैं अपनी छोटी-सी बुद्धि में सारे संसार की जानकारी भरना चाहता हूं। आज तुमने मुझे सिखा दिया कि समुद्र प्याले में नहीं समा सकता है। मैं तो व्यर्थ ही बेचैन बना रहा।’
यह सुनकर बच्चे ने अपने प्याले को दूर समुद्र में फेंक दिया और बोला, ‘अरे सागर, अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता, क्या हुआ? मेरा प्याला तो तुझ में समा सकता है।’ इतना सुनना था कि सुकरात उस बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले, ‘बहुत कीमती सूत्र आज मेरे हाथ में लगा है। हे परमात्मा! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते हो, पर मैं तो सारा का सारा आप में लीन हो सकता हूं।’
ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था, तो भगवान उस बालक में समा गए और सुकरात का सारा अभिमान ध्वस्त कर दिया। जिस सुकरात से मिलने के लिए सम्राट समय लेते थे, वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में लोट गए थे। सच यह है कि ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं, तब आपके अंदर का ‘मैं’ सबसे पहले मिट जाता है या यूं कहें कि जब आपके अंदर का ‘मैं’ मिटता है, तभी ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है।’
दार्शनिक सुकरात के इस प्रसंग से यही बात तो हमें मिलती है कि ‘स्वार्थ से निकलकर’ ही हम कुछ पा सकते हैं। कुछ पाने के लिए ‘गलना जरूरी’ है, अपने ‘अहं’ का विसर्जन करना जरूरी है।
यहीं दो महान कवियों के बीच का एक ऐसा संवाद याद आ रहा है, जो प्रेरक के साथ-साथ हमारे लिए अमृत भी है। रहीम ख़ानख़ाना प्रति दिन गरीबों को दान देते थे। दान देते समय उनकी नज़र नीची रहती थी। इस पर महाकवि तुलसीदास ने उन्हें पत्र भेज, जिसमें लिखा था :-
‘ऐसी देनी देन जू, कित सीखे हो सैन।
ज्यों ज्यों कर ऊंचा करो, त्यों त्यों नीचे नैन।’
क्या बात है कि जब देने वाला हाथ ऊंचा उठता है, आपके नयन नीचे हो जाते हैं?
तुलसी के इस प्रश्न का जो उत्तर रहीम जी ने दिया, वह इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज़ है :-
‘देनहार कोउ और है, भेजत है दिन रैन।
लोग भरम हम पै करें, ताते नीचे नैन।’
देने वाला मैं कहां हूं तुलसीदास जी, वो तो कोई ‘और’ ही है, लेकिन लोग यह समझते हैं कि मैं देता हूं।
यह प्रसंग ऐसा मार्मिक संदेश देता है कि हमें दार्शनिक सुकरात से जोड़ देता है। हम तो ‘अहंकार’ में डूबे खुद को ही ‘कर्ता’ मान बैठते हैं, जबकि ‘कर्ता’ तो कोई और है, जो सारी सृष्टि का पालन कर रहा है। यहीं फिर से ‘कामायनी’ की श्रद्धा का संदेश हमें चेतावनी देकर जगाता है :-
‘अपने में भर सब कुछ कैसे,
व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ है भीषण,
अपना नाश करेगा।’
और, यहीं अपने जीवन का अनुभव देने में अत्यंत सुख मिल रहा है, जो इन पंक्तियों में है :-
‘कुछ दे कर ही कुछ मिलता है।
दुख सहकर ही सुख मिलता है।
है अटल नियम इस सृष्टि का,
बीज गलकर ही पुष्प खिलता है।’