अमिताभ स.
15 अगस्त की सुबह बीते साढ़े सात दशकों से लाल किले पर राष्ट्रीय पर्व का मुख्य समारोह होता है। तिरंगा शान से लहराता है। इस लालकिले को बनाने का श्रेय मुगल बादशाह शाहजहां को जाता है, लेकिन इसके अंदर-बाहर सुरक्षा दीवारें, मोती मस्जिद, जफर महल, बावली, फौजी बैरकें समेत कई हिस्से दूसरे बादशाहों और अंग्रेजों ने भी बनवाए हैं। ज्यादातर लोग समझते हैं कि आज जैसा लाल किला है, वैसा सारा का सारा मुगल बादशाह शाहजहां ने ही बनवाया था। हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर कल्चर हेरिटेज’ (दिल्ली चेप्टर) की किताब ‘दिल्ली द बिल्ट हेरिटेज’ में दर्ज है कि शाहजहां ने 1639 से 1648 के बीच लाल किले के निर्माण के दौरान लाहौरी दरवाजा, दिल्ली दरवाजा, छत्ता चौक, नक्कार खाना, दीवान-ए-आम, मुमताज महल, रंग महल, हमाम, दीवान-ए-खास, हयात बख्श बाग, शाह बुर्ज और सावन-भादो मंडप बनवाए थे। जफर महल, फौजी बैरक, हीरा महल, मोती मस्जिद, दिल्ली दरवाजा व लाहौरी दरवाजा की सुरक्षा दीवारें, भीतर जाने का पक्का पुल वगैरह बाद में दूसरे बादशाहों ने अपने-अपने शासनकाल में बनवाए।
मुगल काल के दौरान लाल किला ‘किला-ए-मुबारक’ और ‘किला-ए-शाहजहानाबाद’ कहलाता था। यह हिन्दुस्तान की नयी मुगलिया राजधानी का केंद्र था। इंटेक की हेरिटेज वॉक एक्सप्लोरर सपना लिडन अपनी किताब ‘दिल्ली 14 हिस्टोरिक वॉक्स’ में लाल किले के बारे में लिखती हैं, ‘बादशाह शाहजहां ने 16 अप्रैल, 1639 को शाहजहानाबाद के निर्माण की नींव रखी। उस्ताद हामिद और उस्ताद अहमद दो नामी-गिरामी भवन निर्माताओं को जिम्मा दिया गया। सारा निर्माण कार्य मकरमत खान की देखरेख में सम्पन्न हुआ। तब लाल किला बनाने में करीब 1 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। फिर 17 मई, 1648 को लाल किले में शाहजहां का पहला दरबार लगा।’
बनने के दसेक साल बाद ही लाल किले के सुनहरे दिन लदने लगे। दरअसल, 1658 में शाहजहां को उनके छोटे बेटे औरंगजेब ने बंदी बना कर, खुद की ताजपोशी कर ली। इसी दौरान, शाहजहां के लाल किले में सबसे पहला निर्माण जोड़ा गया मुंहाने पर ही। शुरुआती दौर में, लाल किले का मुख्य दरवाजा ऐन चांदनी चौक के सामने खुलता था। बादशाह औरंगजेब (1658 से 1707) ने 1665 में, असल दरवाजे के आगे बाहरी सुरक्षा दीवार खड़ी करवा दी। इस दीवार से किले में प्रवेश का रास्ता उत्तर दिशा की तरफ से हो गया। आज इसी दीवार के दरवाजे से गुजर कर, लाहौरी दरवाजे तक पहुंचते हैं। हालांकि औरंगजेब के दरवाजे का कोई अलग नाम नहीं है, इसलिए लाहौरी दरवाजा ही कहलाता है। दरवाजे का नाम लाहौर पड़ा क्योंकि यह पश्चिम की ओर है और इसी दिशा में लाहौर शहर (अब पाकिस्तान में है) है। नए दरवाजे की दीवार की ऊंचाई 10.5 मीटर है और इसका दरवाजा 12.2 मीटर ऊंचा और 7.3 मीटर चौड़ा है। आगरा में कैद शाहजहां को जब इस बाबत पता चला, तो उन्होंने खत लिखा, ‘तुमने किले को दुल्हन बना दिया और दुपट्टे से ढक दिया।’
लाल किले को मोती मस्जिद का तोहफा भी बादशाह औरंगजेब की देन है। हमाम के पश्चिम में दूधिया सफेद रंग की मोती मस्जिद है। बादशाह शाहजहां तो दिल्ली दरवाजे से निकल कर, जामा मस्जिद में नमाज अदा करने जाते थे। उनके बेटे औरंगजेब ने ताजपोशी के बाद किले के भीतर ही नमाज अता करने के लिए मोती मस्जिद का निर्माण करवाया। तमाम पहरों में इबादत करने के लिए उसे अपने शयन कक्ष से महज चंद ही कदम चल कर जाना पड़ता था। मोती मस्जिद में शाही घराने की औरतें भी नमाज
पढ़ती थीं।
मस्जिद ऊंचे चबूतरे पर सफेद संगमरमर से बनी है। आजकल आमतौर पर बंद रहती है, फिर भी, झरोखों से झांक कर देख सकते हैं- नायाब नक्काशी को। फर्श पर ‘मुसाल्लह’ यानी नमाज अता करने के चकौर गलीचे की शक्ल के डिजाइन बने हैं। आंगन ऊंची दीवारों से घिरा है। आंगन के बीच में फौवारे वाली हौज-ए-वजु (इबादत से पहले हाथ-पैर धोने की हौज) है। शुरुआती दौर में, मोती मस्जिद के ऊपर ताम्बे के गुम्बद थे। 1857 की पहली जंग-ए-आजादी में गुम्बदों को भारी नुकसान हुआ। बाद में, इसे संगमरमर का बनाया गया। खास बात है कि ज्यादातर लाल किला लाल पत्थरों का है, जबकि मोती मस्जिद सफेद।
अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने भी लाल किले में यहां-वहां अपने निर्माण की निशानियां छोड़ीं हैं। हमाम के उत्तर में, छोटा-सा संगमरमरी मंडप है- हीरा महल। यह बहादुर शाह जफर के शासन काल के दौरान बना है। यहीं मोती महल नाम का एक और मंडप भी बनाया गया। आजादी की पहली लड़ाई के बाद मोती महल हटा दिया गया, लेकिन हीरा महल ज्यों का त्यों कायम है। उधर हयात बख्श बाग के दक्षिण और उत्तर दिशा में सावन और भादो नाम के दो संगमरमरी मंडपों के साथ लाल पत्थरों से निर्मित एक मंडप और है, जो बड़े जलकुंड के मध्य में है। यही जफर महल कहलाता है। इसका निर्माण 1842 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय ने करवाया था। इसके खम्भों पर मुगल शिल्प के आखिरी दौर की छाप झलकती है।
अंग्रेजों ने भी लाल किले के भीतर इमारतों का निर्माण करवाया। 1857 की जंग-ए-आजादी के बाद अंग्रेजों ने अपना कब्जा जमा लिया। तब अंग्रेजों ने अंदर कई इमारतों को ढहा दिया। जो जगह खाली हुई और कुछ पहले से खाली जगह पर, 1860 के दशक में कई बैरक बनाए गए। छत्ता बाजार पार करते ही, बाईं तरफ बैरक अब नए रंग-रूप में मौजूद हैं। किसी जमाने में इन बैरकों में फौजी रहते रहे हैं। आज भी एक बैरक में स्वतन्त्रता संग्राम संग्रहालय है और दूसरे में सेंट्रल इंडस्ट्रियल फोर्स का रेड फोर्ट यूनिट का दफ्तर चलता है।
लाल किले में उत्तरी दौर पर, सेंट्रल इंडस्ट्रियल फोर्स के दफ्तर के सामने एक प्राचीन बावली है। ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज’ (दिल्ली चैप्टर) के मुताबिक बावली लाल किला बनने से सदियों पहले दिल्ली सल्तनत के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के जमाने की है। उल्लेखनीय है कि फिरोजशाह तुगलक ने 1351 से 1388 के बीच शासन किया था। दूसरे शब्दों में, बावली लाल किला बनने से करीब 300 साल पहले से मौजूद है। प्राचीन बावली 14 मीटर गहरी अष्टकोणीय दंडाकर संरचना की है। यह 6.1 मीटर चौड़े और 6.1 मीटर लम्बे चकौर कुंड से जुड़ी हुई है। उत्तर और पश्चिम में दोनों तरफ मेहराबदार कमरों वाली सीढ़ियां हैं। बावली पर लगी पट्टिका पर लिखा है कि 1945-46 में, आईएनए के अधिकारियों शाहनवाज खान, पीके सहगल और जीएस ढिल्लों को कैद किया गया था।