डॉ. जयभगवान शर्मा
रोहतक का प्राचीन नाम ‘रोहीतक’ था। इसी के निकटवर्ती वन को ‘रोहितकारण्य’ कहते हैं, जो कौरवों की विशाल सेना से घिर गया था। रोहतक के पूर्व में 12 कोस (लगभग 27 किमी) की दूरी पर समचाना ग्राम के समीपस्थ नागराज तक्षक का निवास-स्थान है जो सम्प्रति ‘श्री नागदेव आश्रम’ के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत में तक्षक परिचय उपलब्ध होता है :-
‘अनन्तो वासुकि: पद्मो महापद्मश्च तक्षक:।’
उक्त श्लोकांश में वर्णित अनन्तादि नाग काश्यपवंशी हैं। अग्निपुराण के ‘कश्यपवंशवर्णनम्’ नामक उन्नीसवें अध्याय के सोलहवें श्लोक के अनुसार अष्ट नागों में शेष, वासुकी और तक्षक-ये तीन प्रधान हैं।
एक बार श्रीकृष्ण और अर्जुन खाण्डव वन के समीप जल में विहार करने निकले। इसी दौरान एक ब्राह्मण उनके पास आया और कहा, ‘मैं बहुत खाने वाला ब्राह्मण हूं, सदा अपरिमित भोजन खाता हूं। मैं तुम दोनों से भिक्षा मांगता हूं कि तुम भोजन देकर मुझको तृप्त करो।’ अर्जुन और कृष्ण उनसे बोले, ‘कहिए, किस प्रकार का अन्न खाने से आपकी तृप्ति होगी, हम उसके लिए प्रयत्न करेंगे।’
ब्राह्मण रूपी भगवान ने उनसे कहा, ‘मैं अन्न नहीं खाना चाहता। तुम मुझे अग्नि जानो, जो अन्न मेरे योग्य हो वही मुझको दो। देवराज इंद्र सदा इस खाण्डव वन की रक्षा करते हैं, अतः इन्द्र द्वारा रक्षित इस वन को मैं जला नहीं सकता।’
ब्राह्मण वेशधारी अग्निदेव फिर कहने लगे, ‘इन्द्र का सखा तक्षक नामक सर्प अपने साथियों सहित इस वन में रहता है, उन्हीं सांपों के कारण वह वज्रधारी इस वन की रक्षा करते हैं। मैं देवराज के तेज के कारण खाण्डव वन को जला नहीं पाता।’
श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्नि से बोले, ‘भगवन्! आप खाण्डव वन का ग्रास कर सकते हैं। खाण्डव वन के जलने से बड़ी-बड़ी ज्वालाएं आकाश में जा पहुंची और उसने देवों में बड़ी घबराहट पैदा कर दी। सभी देवराज इन्द्र की शरण में जाकर प्राणियों की रक्षा हेतु उनसे प्रार्थना करने लगे। देवराज इंद्र ने जल बरसाना आरंभ कर दिया तभी अर्जुन ने बाण वर्षा इसे रोक दिया। महाबली सर्पराज तक्षक वहां नहीं थे। तक्षक का पुत्र अश्वसेन व उसकी माता मारी गई।
इस घटना से तक्षक अर्जुन का घोर शत्रु बना। उसने प्रतिज्ञा की कि वह पाण्डव परिवार के चक्रवर्ती सम्राट् नष्ट करेगा। महाभारत का युद्ध आरंभ होने पर उसने कर्ण से कहा, ‘हे कर्ण! यदि तुम मुझे बाण पर बैठाकर अर्जुन को लक्ष्य करके बाण छोड़ दें तो मैं उसका सिर काट कर प्रतिशोध की ज्वाला को शांत कर लूं।’ कर्ण सहमत हो गया तथा उसने अर्जुन की ग्रीवा को लक्ष्य बनाकर बाण छोड़ दिया। बाण को अर्जुन की ओर आता देखकर श्रीकृष्ण ने अपने भक्त की रक्षा हेतु तीनों लोकों का भार रथ पर टिकाकर उसे भूमि में धंसा दिया। बाण के प्रचण्ड आघात से कुंती-पुत्र अर्जुन का शीर्ष तो बच गया किन्तु वह बाण उसके मुकुट को उतार ले गया। तब नागराज ने देवकीनन्दन श्रीकृष्ण से कहा, ‘हे वासुदेव! मैंने आपके प्रति ऐसा कौन-सा अपराध किया है जो आपने मेरे विरुद्ध मेरे शत्रु अर्जुन की रक्षा की?’ योगीराज कृष्ण ने प्रत्युत्तर में कहा, ‘हे नागराज! राजा का मुकुट उतार लेना भी उसका सिर उतार लेने के तुल्य होता है, अतः तुम्हारी प्रतिज्ञा तो पूर्ण हुई। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम ऋद्धि-सिद्धि के दाता होंगे तथा कलियुग में जो लोग श्रद्धापूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे वे सब प्रकार से कुशलतापूर्वक रहेंगे।
युद्धभूमि से छोड़ा गया कर्ण का प्रचण्ड बाण रोहीतक के समचाना ग्राम में आकर गिरा था। कालान्तर में यह तपोभूमि सरीखा स्थान तक्षक-पूजा-स्थल बन गया। नागराज पूजा-स्थल के नितान्त सम्मुख एक पावन महासरोवर है, जहां भक्तजन श्रद्धापूर्वक स्नान करते हैं। सरोवर के चारों ओर लगभग एक किलोमीटर की परिधि में वनखण्ड है। इसे तपोवन की संज्ञा दी जाती है।
इस ऐतिहासिक एवं पवित्र धाम के पश्चिमी छोर पर समचाना ग्राम बसा है। ‘श्री नागदेव आश्रम’ नाम से विख्यात इस पवित्र स्थल पर प्रतिवर्ष गूगा नवमी के पावन पर्व के उपलक्ष्य में एक विशाल मेला लगता है जो वस्तुतः परस्पर सद्भाव एवं भाईचारे की भावना के साथ-साथ सांस्कृतिक एकता का प्रतीक भी है।