प्याज-टमाटर के भाव सिर्फ रसोई का मसला नहीं हैं। प्याज-टमाटर के भावों का दूरगामी असर समग्र महंगाई दर पर पड़ता है और उसका असर आखिर में ब्याज दर पर पड़ता है। लगातार बढ़ती महंगाई में ब्याज दरों में गिरावट संभव नहीं है। इसलिए प्याज-टमाटरों के भावों को सिर्फ सरकारें नहीं देख रही हैं। रिजर्व बैंक के लिए भी ये भाव विश्लेषण का विषय है।
कवर स्टोरी
आलोक पुराणिक
लेखक आर्थिक पत्रकार हैं।
जुलाई, 2023 में खुदरा महंगाई दर 7.44 प्रतिशत पर जा पहुंची। जून 2023 में यह दर 4.87 प्रतिशत पर थी। रिजर्व बैंक की नीतिगत आकांक्षा यह है कि यह महंगाई दर चार प्रतिशत के करीब रहे गिरे तो गिरकर दो प्रतिशत से नीचे न जाये और बढ़े तो यह छह प्रतिशत से ऊपर न जाये। पर महंगाई छह प्रतिशत से ऊपर जा चुकी है यानी 7.44 प्रतिशत पर है। हालिया महंगाई की वजह टमाटरों की महंगाई है। टमाटर की महंगाई का असर समग्र होता है और ब्याज दर पर भी टमाटर की महंगाई असर डालती है। टमाटर-प्याज के भाव महंगाई दर को ऊपर उठा लेते हैं। महंगाई दर से सरकार तो परेशान होती ही है, रिजर्व बैंक आफ इंडिया की परेशानी भी बढ़ जाती है।
राजनीति बहुत मुश्किल काम है। कच्चे तेल के भावों से लेकर टमाटर-प्याज के भाव तक के मसले बहुत बड़े बन जाते हैं। अब सरकारें परेशान हैं टमाटर के भाव को लेकर। टमाटर के रिटेल भाव दिल्ली में अगस्त में दो सौ रुपये रुपये प्रति किलो तक पहुंचे। सस्ते टमाटर बिकवाने का इंतजाम सरकार को करना पड़ा। दिल्ली में बरसों पहले भाजपा की एक सरकार प्याज के भावों के चक्कर में गयी थी। प्याज सबसे ज्यादा राजनीतिक आइटम है। इस बार टमाटर के भावों ने सरकार को परेशान किया। बोफोर्स तोप के चक्कर में एक सरकार गयी, प्याज के चक्कर में जाने कितनी राज्य सरकारें परेशान रहती हैं।
टमाटर-प्याज के हाल
कई राज्यों में टमाटर की फसल तबाह हुई, तो टमाटर के भाव आसमान छूने लगे। प्याज रबी की फसल में भी होता है और खरीफ की फसल में भी होता है। देश की कुल प्याज पैदावार का करीब साठ प्रतिशत रबी में होता है, इसका प्याज ही अक्तूबर तक बाजार में चलता है, इसके बाद नवंबर में खरीफ का प्याज आना शुरू होता है। इस बार भारी बारिश बाढ़ के हालात के चलते प्याज की आपूर्ति पर असर पड़ा है। आपूर्ति कम होने या आपूर्ति कम होने की आशंका का ही मतलब है कि भाव ऊपर जायेंगे। भावों ने ऊपर जाना शुरू किया। प्याज के भावों ने उतना कहर न मचाया, जितना कहर टमाटर के भावों ने मचाया। पर प्याज के भावों के राजनीतिक महत्व को केंद्र सरकार समझती है। केंद्र सरकार ने देश से प्याज के निर्यात पर पाबंदियां लगा दी हैं। सरकार ने घरेलू बाजार में प्याज की उपलब्धता सुनिश्चित करने और इसकी कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए यह कदम उठाया है। इसके तहत प्याज के निर्यात पर 40 फीसदी का भारी-भरकम शुल्क लगा दिया गया है, जो इस साल के अंत तक प्रभावी रहने वाला है। पर प्याज के मसले प्याज की तरह कई परतवाले हैं। प्याज पर निर्यात शुल्क लगाने का मतलब कि प्याज के रेट बढ़ जायेंगे, बढ़े रेटों पर ग्राहक तलाशना अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मुश्किल है। प्याज निर्यात न हो पायेगा, तो उसकी आपूर्ति देश में बढ़ेगी। बढ़ी हुई आपूर्ति से भाव कम होंगे। पर यह भी राजनीतिक तौर पर कई नेताओं को मंजूर नहीं है। शरद पवार ने आलोचना की है कि इतने भारी निर्यात शुल्क को लगाने की। शरद पवार के राज्य महाराष्ट्र में प्याज का आर्थिक और राजनीतिक महत्व है। प्याज सस्ता हो, तो उपभोक्ता का फायदा है, पर किसान का घाटा है। स्मार्ट विपक्षी दलों के पास हमेशा यह विकल्प होता है कि प्याज सस्ता हो तो किसानों की तरफ से आंदोलन करो और प्याज महंगा तो उपभोक्ताओं की तरफ से आंदोलन करो। प्याज और टमाटर के भाव राजनीतिक और व्यापक आर्थिक महत्व रखते हैं।
सियासत की चुस्ती
भाव ऊपर जा रहे हैं, तो सरकारें चिंतित हैं। केंद्र सरकार की अलग चिंता है, राज्य सरकारों की अलग चिंताएं हैं। खासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में विधानसभा चुनाव सामने हैं। यहां अलग तरह की राजनीतिक चिंताएं हैं। टमाटर और प्याज आम तौर पर भारतीय खाने का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। तमाम टीवी चैनल लगातार कवरेज दिखाकर इन्हे और खास बना देते हैं। लगातार टीवी चैनलों पर इस आशय की कवरेज आती रहती है कि टमाटर खरीदने के लिए लाइन इतनी लंबी है और फलां सरकार ने सस्ता टमाटर बेचने की घोषणा की है। प्याज-टमाटर केंद्रित राजनीति के परिणाम और दुष्परिणामों से भारत के अधिकांश राजनीतिक दल वाकिफ हैं, इसलिए प्याज-टमाटर को लेकर कोई भी राजनीतिक दल सुस्त नहीं दिखना चाहता, खासकर उन राज्यों में तो बिलकुल नहीं, जहां विधानसभा चुनाव सामने हैं।
बाजार का खेल?
गौरतलब है कि प्याज जैसी सब्जियों को उगानेवाले किसानों के जोखिम का स्तर धान और गेहूं उगानेवाले किसानों के जोखिम से ज्यादा होता है। धान और गेहूं के मामले में तो न्यूनतम समर्थन मूल्य का सरकारी प्रावधान होता है। पर प्याज में ऐसा कोई प्रावधान नहीं होता है। यानी प्याज का न्यूनतम मूल्य क्या होगा, यह कोई तय नहीं कर सकता, सिर्फ बाजार ही तय करता है। बाजार तय करता है, ऐसा कहना भी पूरा सच नहीं है। बाजार में प्याज के भाव बहुत ऊपर न चले जायें, यह सुनिश्चित करने का काम तमाम सरकारें करती हैं। यानी मोटे तौर पर माना जा सकता है कि जब तमाम वजहों से प्याज के भाव गिर रहे हों, तो सरकारों को ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं होती। परेशानी सिर्फ किसान को हो रही होती है, आम जनता बतौर ग्राहक खुश ही रहती है। पर जैसे ही प्याज के भाव ऊपर जाने लगते हैं, तब सरकारों के कान खड़े हो जाते हैं और वो प्याज के भावों को नीचे गिराने में जुट जाती हैं। यानी यूं समझा जाना चाहिए कि प्याज के भाव गिरें, तो सरकारों को चिंता नहीं होती, प्याज के भाव बढ़ें तो ही सरकारें चिंतित होती हैं। इसलिए प्याज उगाने वाले किसानों को सरकारों की तरफ से बहुत ज्यादा सकारात्मक कदमों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
किसान बनाम उपभोक्ता
मसले पेचीदा हैं। अगर प्याज के भाव लगातार बढ़ते रहें, तो कहीं न कहीं किसान को इसका फायदा मिलने की उम्मीद होती है। यूं किसान को हर स्थिति में बढ़े हुए भाव नहीं मिलते, बिचौलिये यानी बीच में थोक कारोबारी ज्यादा कमा लेते हैं। प्याज के भाव जब सस्ते होते हैं, और छोटे किसान के पास प्याज को स्टोर करने की क्षमताएं नहीं होतीं, तो किसान सस्ते में प्याज बेचकर निकल लेता है। सस्ता प्याज बिचौलियों के गोदाम में जमा हो जाता है। भावों की तेजी के दौर में प्याज महंगा होकर निकलता है। इस महंगे प्याज से किसान का भला आम तौर पर नहीं होता, इससे बिचौलियों, ट्रेडरों का भला होता है और आखिर में उपभोक्ता की जेब से ज्यादा पैसा निकलता तो है, पर उसका रुख किसान की तरफ हमेशा नहीं होता। इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि महंगा प्याज किसान को अमीर बना रहा है।
यूं भी राजनीति यही कहती है कि किसान बनाम पब्लिक के बीच के हित-टकराव को चुनना हो, तो सरकारें पब्लिक के हितों को ज्यादा ध्यान में रखती हैं। इसे यूं समझा जा सकता है। तमाम निजी स्कूल अपनी फीस बढ़ा देते हैं, लोग दे देते हैं। ओला-ऊबर सर्ज प्राइसिंग के नाम पर जब मांग ज्यादा होती है, तो टैक्सी का किराया बढ़ा देती हैं। यह आम तौर पर स्वीकार्य होता है। पर किसान सर्ज प्राइसिंग के नाम पर अगर जनता से ज्यादा कीमत वसूलता है, तो वह मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय भी टीवी पर हाहाकार करता है, जो ओला-ऊबर में ज्यादा पैसे देने में कोई कोताही नहीं करता। बाकी आइटमों की महंगाई कई वर्गों को सहज स्वीकार्य है, पर प्याज-टमाटर के भावों पर कार में चलने वाली आंटी भी टीवी बाइट देती हैं कि प्याज-टमाटर के भावों से मेरी किचन का बजट बिगड़ गया।
पर एक तर्क यहां यह है कि ओला-ऊबर के भाव ज्यादा देना अलग बात है। प्याज-टमाटर तो वह लोग भी खाते हैं, जो ओला-ऊबर में नहीं चलते। यानी प्याज-टमाटर बहुत ही आम उपभोग के आइटम हैं। इसलिए सरकारों को इसके भावों के लिए चिंतित होना पड़ता है। सस्ता प्याज-प्याज बेचने के लिए मैदान में उतरना पड़ता है। किसानों के वोटों की तादाद के मुकाबले आम पब्लिक के वोटों की तादाद बहुत ज्यादा है। सरकारों को वोटों की चिंता करनी होती है। किसानों का यह तर्क सही होने के बावजूद एक तरफ रखा रह जाता है –मांग में तेजी से पैदा होने वाली कीमत बढ़ोतरी का फायदा अगर दूसरे धंधों में उठाने की इजाजत होती है, तो किसान को मांग जनित कीमत बढ़ोतरी से क्यों वंचित रखा जाना चाहिए।
प्याज-टमाटर के बढ़े हुए भावों से सरकारें परेशान होती हैं, इसलिए वो हरचंद कोशिश करती हैं कि प्याज-टमाटर के भाव एक सीमा के बाद ऊपर न जायें। इसके लिए निर्यात को मुश्किल बनाया जाता है, इस कदर कि उसका निर्यात असंभव हो जाता है। प्याज निर्यात न होगा, तो कहां जायेगा, वापस घरेलू बाजार में आयेगा। घरेलू बाजार में प्याज की आपूर्ति बढ़ने से प्याज के भावों में नरमी आती है। इसलिए सरकारों की कोशिश रहती है कि आपूर्ति बढ़ायी जाये। प्याज बहुत ही राजनीतिक आइटम है। इससे सरकारें बनती हैं और बिगड़ती भी हैं। इसलिए किसानों को ज्यादा कीमत मिलना मुश्किल हो जाता है। ज्यादा कीमत से पब्लिक में मचे हाहाकार को सरकारें नजरअंदाज नहीं कर सकतीं, इसलिए प्याज में राजनीति कूद जाती है। घाटा खाकर प्याज बेचने में जुट जाती हैं। सस्ता टमाटर बेचने में जुट जाती हैं। प्याज के निर्यात को लगातार मुश्किल बनाती जाती हैं।
महंगे टमाटर-प्याज से जुड़ी समग्र महंगाई दर
महंगाई दर का ताल्लुक ब्याज दर से है, ब्याज दर क्या हो, यह निर्धारण रिजर्व बैंक आफ इंडिया करता है जो ब्याज दर निर्धारण में महंगाई दर का विश्लेषण करता है। यानी अगर महंगाई दर लगातार ऊपर जा रही हो, तो रिजर्व बैंक की कोशिश रहती है कि ब्याज दरें सस्ती न हों। ब्याज दर सस्ती कर जायें, तो पब्लिक के हाथ में खूब पैसा सस्ते भावों पर आ जाये, तो फिर महंगाई बढ़ने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। महंगाई अगर लगातार बढ़ती रहे, तो रिजर्व बैंक ब्याज दरें भी बढ़ाने की बात करता है। ऐसे में उद्योगपतियों को समस्याएं होती हैं। उद्योग जगत की सतत मांग यही रहती है कि ब्याज दरें कम हों। पर रिजर्व बैंक सिर्फ उद्योगपतियों की बात सुनकर नहीं चल सकता। उसे बाकी कारक-तत्व भी देखने होते हैं। संक्षेप में, अगर महंगाई दर लगातार बढ़ती जाती है, रिजर्व बैंक ब्याज दरों को कम करने के बारे में विचार नहीं करता बल्कि उलटा भी सोच सकता है। यानी ब्याज दरों में बढ़ोतरी की खबरें भी रिजर्व बैंक से आती हैं। यह बात उद्योग जगत को नागवार गुजर सकती है, खासकर जब एक तरह से मंदी का माहौल पहले ही बना है तमाम उद्योगों में। यानी प्याज-टमाटर के भाव सिर्फ रसोई का मसला नहीं हैं। प्याज-टमाटर के भावों का दूरगामी असर समग्र महंगाई दर पर पड़ता है और उसका असर आखिर में ब्याज दर पर पड़ता है। लगातार बढ़ती महंगाई में ब्याज दरों में गिरावट संभव नहीं है। इसलिए प्याज-टमाटरों के भावों को सिर्फ सरकारें नहीं देख रही। रिजर्व बैंक के लिए भी ये भाव विश्लेषण का विषय है।
किसान के हित भी सोचें
किसी भी आइटम के भावों में तेज गिरावट और बढ़ोतरी के कारणों में आपूर्ति और मांग का संतुलन ही होता है। अगर किसी आइटम की मांग तेजी से बढ़ जाये, तो भाव बढ़ जाते हैं और किसी आइटम की आपूर्ति तेजी से गिर जाये, तो उसके भाव गिर जाते हैं। आपूर्ति गिरने के कारण कुछ भी हो सकते हैं, बाढ़, सूखा या अन्य प्राकृतिक आपदा के चलते किसी आइटम की आपूर्ति बाधित हो सकती है। इसमें किसी सरकार का कोई दखल नहीं है। पर सरकारें किसी एक दीर्घकालीन नीति पर काम कर सकती हैं जिनसे किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को सुनिश्चित किया जा सके। खबरें आती हैं कि सस्ती कीमतों से नाराज किसान अपना प्याज सड़क पर ही छोड़कर चले गये। कई मामलों में यह भी कि प्याज या किसी और कृषि उपज को खेत से बाजार तक लाने की लागत ज्यादा बैठती है उससे मिलने वाली कीमत कम बैठती है। ऐसी सूरत में किसान अपनी फसल सड़क पर छोड़कर जाने में भलाई समझता है। विरोध का यह तरीका कई बार देखा जाता है। ऐसा क्यों होता है कि किसान अंदाज नहीं लगा पाता कि उसकी फसल के भाव इस सीजन में उसे ठीक नहीं मिलेंगे। ऐसा इसलिए होता है कि इस तरह की व्यवस्थाएं अभी बनी नहीं हैं, जो किसान को सलाह दे सकें कि प्याज-टमाटर की आवक ज्यादा होने की उम्मीद है, सो इस बार प्याज के बजाय कुछ और उपजा लो । छोटा किसान आंख मूंदकर अपने सैट पैटर्न पर काम कर रहा है, मांग-आपूर्ति के पूर्वानुमान उसके पास नहीं हैं। इसके लिए संस्थागत इंतजाम भी नहीं हैं। बड़े किसान, चतुर सुजान तो अपना हिसाब किताब जमा लेते हैं। यह अंदाजा कर लेते हैं कि भाव क्या होंगे और कब ज्यादा होंगे। इसलिए लगातार देखने में आता है कि बिचौलिये सस्ते भाव पर प्याज को स्टॉक करते हैं और महंगे पर बेचते हैं। पर महंगे रेट का फायदा बिचौलियों को होता है, छोटे किसान के रोने वही रहते हैं कि इस बार प्याज बहुत ज्यादा हुआ, तो सस्ता बेचना पड़ा। या इस बार प्याज कम उगाया, तो भाव बहुत बढ़े हुए मिल रहे हैं बाजार में। कुल मिलाकर किसानों की ज्ञान चेतना का स्तर उन्नत करने के साथ साथ ऐसे इंतजाम भी किये जाने जरूरी हैं कि छोटा किसान भी अपनी फसल का स्टाक उस तरह से कर ले, जिस तरह से बिचौलिये ट्रेडर और बड़े किसान कर लेते हैं और जब भाव ज्यादा होते हैं, तब बेचते हैं। इस संबंध में को-आपरेटिव संस्था बनाकर किस तरह से काम किया जा सकता है। अमूल का डेरी मॉडल क्या छोटे किसानों के लिए इस्तेमाल हो सकता है। इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के स्तर पर गंभीर चिंतन और कर्म की जरूरत है, संस्थागत इंतजामों की जरूरत है। सस्ता प्याज-टमाटर बेचकर तात्कालिक राजनीति सेट कर ली जाये, यही तमाम सरकारों को सूझता है। इसलिए कई दशकों के बाद भी प्याज से जुड़ी समस्याओं के पक्के इलाज नहीं हो पा रहे हैं। प्याज की राजनीति तात्कालिकता में फंसी रहती है, इसलिए प्याज-टमाटर का सर्वहितकारी अर्थशास्त्र विकसित ही नहीं हो पा रहा है। इस मसले पर समग्र चिंतन और कर्म की जरूरत है। फौरी इलाजों से समस्याओं के पक्के हल नहीं निकलते।