पंकज चतुर्वेदी
हिमाचल प्रदेश का बड़ा हिस्सा अचानक आई तेज बरसात और जमीन खिसकने से बुरी तरह प्रभावित हुआ है। जहां आपदा आई नहीं वहां के लोग भी आशंका में जी रहे हैं। राज्य के नेशनल हाईवे व अन्य सड़कों के यातायात पर बुरी तरह असर हुआ। कई सौ गांवों में बिजली व जल आपूर्ति व्यवस्था चरमरा गयी थ्ाी। सैकड़ों लोग मारे गये व कई लापता हुए। अनुमानित हजारों करोड़ का नुकसान है। पहाड़ों के धसने से घर, खेत से लेकर सार्वजनिक संपत्ति का जो नुकसान हुआ है उससे उबरने में राज्य को सालों लगेंगे। गंभीरता से देखें तो ये हालात भले ही आपदा से बने हों लेकिन इन आपदाओं को बुलाने में इंसान की भूमिका भी कम नहीं। जब दुनियाभर के शोध कह रहे थे कि हिमालय पर्वत जैसे युवा पहाड़ पर पानी को रोकने, जलाशय और सुरंगें बनाने के लिए विस्फोटक के इस्तेमाल के अंजाम अच्छे नहीं होंगे, तब हिमाचल की जल धाराओं पर छोटे-बड़े बिजली संयंत्र लगा कर उसे विकास का प्रतिमान बताया जा रहा था।
नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी, इसरो द्वारा तैयार देश के भूस्खलन नक्शे में हिमाचल प्रदेश के सभी 12 जिलों को बेहद संवेदनशील की श्रेणी में रखा गया है। देश के कुल 147 ऐसे जिलों में संवेदनशीलता की दृष्टि से मंडी को 16वें स्थान पर रखा गया है। यह आंकड़ा और चेतावनी फाइल में कैद रही और इस बार मंडी में तबाही सामने आ गयी। ठीक यही हाल शिमला का हुआ जिसका स्थान इस सूची में 61वें नम्बर पर दर्ज है। प्रदेश में 17,120 स्थान भूस्खलन संभावित क्षेत्र अंकित हैं, जिनमें से 675 बेहद संवेदनशील मूलभूत सुविधाओं और घनी आबादी के करीब हैं। इनमें सर्वाधिक स्थान चंबा जिले में हैं, उसके बाद के क्रम में मंडी, कांगड़ा, लाहौल-स्पीति, ऊना, कुल्लू, शिमला, सोलन आदि हैं। यहां भूस्खलन की दृष्टि से किन्नौर जिले को सबसे खतरनाक माना जाता है। बीते साल भी किन्नौर में दो हादसों में 38 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। इसके बाद किन्नौर जिला में भूस्खलन को लेकर भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के विशेषज्ञों के साथ-साथ आईआईटी, मंडी व रुड़की के विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42 प्रतिशत भूस्खलन संभावित है। हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपॉवर स्थल पर धरती खिसकने का खतरा है। कम से कम 10 ऐसे मेगा हाइड्रोपॉवर स्थल हैं जो कि मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।
राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से सर्वेक्षण कर भूस्खलन संभावित सैकडों स्थल चिन्हित किए हैं। चेतावनी के बाद भी किन्नौर में, एक हज़ार मेगावाट की करछम और 300 मेगावाट की बासपा परियोजनाओं पर काम चल रहा है। एक बात और समझनी होगी कि वर्तमान में बारिश का तरीका बदल रहा है और गर्मियों में तापमान सामान्य से कहीं अधिक पर पहुंच रहा है। ऐसे में मेगा जलविद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देने की राज्य की नीति को एक नाजुक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में लागू किया जा रहा है।
वैसे हिमाचल प्रदेश में पानी से बिजली बनाने का कार्य 120 सालों से जारी है जो इसके पूर्ण राज्य घोषित होने से पहले ही शुरू हो गया था। शुरुआत वर्ष 1908 में चंबा में 0.10 मेगावाट क्षमता की एक छोटी जल विद्युत परियोजना के निर्माण से शुरू हुई थी। इसके बाद वर्ष 1912 में औपचारिक रूप से शिमला जिले के चाबा में 1.75 मेगावाट क्षमता का बिजली संयंत्र शुरू हुआ जिसे ब्रिटिश भारत की बिजली जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थापित किया गया था। इसके बाद यहां और बिजली संयंत्र लगाने की संभावनाएं तलाशी जाने लगीं। इसी योजना के तहत मंडी जिले के जोगिन्द्रनगर में 48 मेगावाट की बड़ी परियोजना का निर्माण कार्य शुरू किया गया जो वर्ष 1932 में पूरा हुआ। आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटी-बड़ी बिजली परियोजनाएं चालू हैं जिनकी कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है। सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1000 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट क्षमता की होंगी। इसके लिये सतलुज, व्यास, रावी और पार्वती समेत तमाम छोटी-बड़ी नदियों पर बांधों की कतार खड़ी कर दी गई है। हिमाचल सरकार की चालू, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं की कुल क्षमता ही 3800 मेगावाट से ज्यादा है।
हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन की चोट कितनी गहरी है, इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि प्रदेश के 50 स्थानों पर आईआईटी मंडी द्वारा विकसित आपदा पूर्व सूचना यंत्र लगाये गए हैं। भूस्खलन जैसी आपदा से पहले ये लाल रोशनी के साथ सायरन बजाते हैं लेकिन इस बार आपदा इतनी तेजी से आई कि ये उपकरण काम के नहीं रहे। कई शोध पत्र कह चुके हैं कि हिमाचल में अंधाधुंध जल विद्युत परियोजनाओं से कई दिक्कतें आ रही हैं। पहला इसका भूवैज्ञानिक प्रभाव है, जिसके तहत भूस्खलन, तेजी से मिट्टी का ढहना शामिल है। दूसरा प्रभाव जलभूवैज्ञानिक है जिससे झीलों और भूजल स्रोतों में जल स्तर कम हो रहा है। तीसरा, बिजली परियोजनाओं में नदियों के किनारों पर खुदाई और बह कर आये मलबे के जमा होने से वनों और चरागाहों में जलभराव बढ़ रहा है। चौथा खतरा है, सुरक्षा में कोताही के चलते हादसों की संभावना। सच है कि विकास का पहिया बगैर ऊर्जा के घूम नहीं सकता लेकिन ऊर्जा के लिए ऐसी परियोजनाओं से बचा जाना चाहिए जो हिमाचल प्रदेश को हादसों का प्रदेश बना दें।