प्रमोद जोशी
हर साल हम 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ का समारोह मनाते हैं। हालांकि यह हिंदी के सरकारीकरण का दिन है, फिर भी बड़ी संख्या में लोगों का अपनी भाषा से प्रेम इस बहाने व्यक्त होता है। खासतौर से सरकारी दफ्तरों में तमाम लोग हिंदी के काम को व्यक्तिगत प्रयास से और बड़े उत्साह के साथ करते हैं। बेशक वाचिक भाषा के रूप में हिंदी का विस्तार हुआ है। यानी कि मनोरंजन, खेल और राजनीति की भाषा वह बनी है। वह ‘पैन इंडियन भाषा’भी बन गई है। मतलब मुंबइया, कोलकाता, बेंगलुरु और हैदराबादी हिंदी की शैलियां। पर ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में उसका वैसा विकास नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए। खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से हिंदी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिंदी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। सच यह भी है कि हिंदी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिंदी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिंदी को समझने वाले काफी पहले से हैं। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में हिंदी की भूमिका को सबसे पहले बंगाल से समर्थन मिला था। वर्ष 1875 में केशव चन्द्र सेन ने अपने पत्र’ सुलभ समाचार’ में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने की बात उठाई थी।
बंकिम चन्द्र चटर्जी भी हिंदी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। महात्मा गांधी गुजराती थे, फिर भी दक्षिण अफ्रीका से उन्होंने अंग्रेजी में अपना अखबार निकाला, तो उसमें हिंदी, तमिल और गुजराती को भी जगह दी। दो पीढ़ी पहले के हिंदी के श्रेष्ठ पत्रकारों में अमृत लाल चक्रवर्ती, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर और क्षितीन्द्र मोहन मित्र जैसे अहिंदी भाषी थे।
जैसे-जैसे हिंदी का विस्तार हो रहा है, उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। दक्षिण के लोगों को भी समझ में आ गया कि बेहतर कैरियर के लिए हिंदी का ज्ञान भी ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि हिंदी में काम करना है, इसलिए कि हिंदी इलाके में नौकरी करनी है तो उधर की भाषा का ज्ञान होना चाहिए। हिंदी की जानकारी होने से एक फायदा यह कि किसी तीसरी भाषा के इलाके में जाएं तो हिंदी की मदद मिल जाती है। पर राजनीतिक कारणों से विरोध भी होता है।
हिंदी को आज पूरे देश का स्नेह मिल रहा है और उसे पूरे देश को जोड़ पाने वाली भाषा बनने के लिए जिस खुलेपन की ज़रूरत है, वह भी उसे मिल रहा है। यानी भाषा में शब्दों, वाक्यों और मुहावरों के प्रयोगों को स्वीकार किया जा रहा है। पाकिस्तान को और जोड़ लें तो हिंदी या उर्दू बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। यह इस भाषा की ताकत है।
हिंदी का यह विस्तार उसे एक धरातल पर ऊपर ले गया है। यानी बोलने, संपर्क करने, बाजार से सामान या सेवा खरीदने, मनोरंजन करने की भाषा। विचार-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और साहित्यिक हिंदी का बाजार छोटा है। हिंदी-राष्ट्रवाद का भौगोलिक-आधार अब वही नहीं है, जो सौ साल पहले था। तब हिंदी का हृदय-क्षेत्र बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, आगरा व बरेली जैसे शहर थे।
आज हिंदी मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद में बोली जा रही है और हैरत नहीं होगी कि अगले कुछ वर्षों में चेन्नई में भी सड़कों पर उसे बोलने-समझने वाले मिलें। इसकी वजह है वे प्रवासी कामगार, जो अपना घर छोड़कर इन दूरदराज इलाकों में जाते हैं। हिंदी-क्षेत्र के लोगों की भी कुछ जिम्मेदारियां बनती हैं। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और सामान्य ज्ञान के विषयों की जानकारी के लिए अधकचरी अंग्रेजी का पल्लू पकड़ लिया है।
यह अधकचरी अंग्रेजी हालांकि पूरे देश पर हावी है, फिर भी अन्य भारतीय भाषाओं का पाठक, विचार-विमर्श के लिए अपनी भाषा से काफी हद तक जुड़ा है। आनन्द बाज़ार पत्रिका और मलयाला मनोरमा बंगाल व केरल के ज्यादातर घरों में जाते हैं। अंग्रेजी अखबारों के पाठक यों तो चंद महानगरों में केंद्रित हैं, पर मराठी, तमिल, बांग्ला और कन्नड़ परिवार में अंग्रेजी अखबार के साथ अपनी भाषा का अखबार भी आता है।
हिंदी के शहरी पाठक का हिंदी अखबार के साथ वैसा जुड़ाव नहीं है। एक ज़माने तक हिंदी घरों में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी,नन्दन और सारिका जैसी पत्रिकाएं जाती थीं। उनके सहारे पाठक अपने लेखकों से जुड़ा था। ये पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। बांग्ला का ‘देश’ बंद नहीं हुआ, तमिल का ‘आनंद विकटन’ बंद नहीं हुआ। हिंदी मीडिया अंग्रेजी अनुवाद को पसंद करता है, हिंदी के मौलिक-लेखन को समर्थन देने से हिचकिचाता है। हिंदी क्षेत्र का शहरी पाठक अंग्रेजी अखबार लेता है रुतबे के लिए, ड्राइंग रूम में रखता है। मनोरंजन के बाद हिंदी राष्ट्र का एक और शगल है, राजनीति। लोकसभा में जब भी किसी अविश्वास प्रस्ताव पर बहस होती है सबसे अच्छे भाषण हिंदी में होते हैं। राजनेता ज्यादा बड़े इलाके तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं। बौद्धिकता के लिहाज से अच्छे नहीं, भावनाओं में। लफ्फाज़ी में।
संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिंदी देश की राजभाषा है, पर संवैधानिक व्यवस्था अनुसार ही अनंत काल तक अंग्रेजी देश की राजभाषा के रूप में काम करती रहेगी। हिंदी के जबर्दस्त उभार-प्रसार के बावजूद इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि केवल उसे राजभाषा बनाने के लिए एक ओर समूचे देश की स्वीकृति की ज़रूरत है, दूसरे उसे काबिल बनना होगा कि उसके मार्फत राजकाज चल सके।
सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट में अंग्रेजी का ही प्रयोग होता है। ज्यादातर बौद्धिक कर्म की भाषा अंग्रेजी है। हिंदी पुस्तकालय की भाषा नहीं। उसे समृद्ध बनाने का दायित्व भारत सरकार का है। संविधान का अनुच्छेद 351 यह बात कहता है, पर सरकार 14-21 सितंबर तक हिंदी सप्ताह मनाने के अलावा और क्या कर सकती है? शेष काम आपको करना होगा। संविधान हिंदी के विकास में ज़रूर सहायक होता बशर्ते हिंदी का समाज निजभाषा की इज्जत के बारे में सोचता।
14 सितंबर को जब सरकारी संस्थानों में हिंदी दिवस मनाया जाता है, उसी रोज कुछ ट्विटर हैंडल हिंदी के विरोध में आवाज उठाते हैं। उसे ‘स्टॉप हिंदी इंपोज़ीशन’ या ऐसे ही हैशटैग से जोड़ा जाता है। हिंदी को लेकर हाल में दक्षिण के दो राज्यों ने विरोध का झंडा फिर उठाया। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखे। केरल के मुख्यमंत्री ने लिखा कि राजभाषा को लेकर बनी संसदीय समिति की सिफारिशों को केरल स्वीकार नहीं करेगा। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा कि हिंदी थोपकर केंद्र सरकार को एक और भाषा युद्ध शुरू नहीं करना चाहिए। नेताओं ने ये बातें राजभाषा पर संसदीय समिति अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को हाल में सौंपी रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया में कही थीं। संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में आईआईटी, आईआईएम, एम्स, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों में हिंदी को भी माध्यम बनाने की सिफारिश की है। सच यह कि भारत सरकार सभी भारतीय भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था कर रही है।
हिंदी कभी किसी भाषा की प्रतिद्वंद्वी नहीं हो सकती। वह देश की सभी भाषाओं की दोस्त है। हिंदी के प्रयोग को लेकर कुछ गैर-हिंदी राज्यों में आंदोलन चलाया जाता है जिसे अंग्रेजी मीडिया हवा देता है। कुछ समय पहले दक्षिण भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के नाम-पटों में हिंदी को शामिल करने के विरोध में आंदोलन हुआ था। यह एक तरह से भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाने की कोशिश है, साथ ही अंग्रेजी के ध्वस्त होते किले को बचाने का प्रयास भी। बावजूद इस राजनीति के हिंदी का विस्तार हो रहा है और होता रहेगा। उसके पीछे वजह सरकार नहीं, जनता है। आप हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।