राकेश सोहम्
लो जी, हिंदी का मौसम फिर आ गया! अंग्रेजी के घने बादलों के बीच, हिंदी की चमक कौंधने लगी। मौसमी फुहार से कार्यालयों के प्रांगण पोस्टर और बैनरों की हरियाली से लहलहा उठे। वातावरण में ‘समोसा-बैठकों’ की सौंधी खुशबू बिखरने लगी। फाइलों पर उत्सव का माहौल है। हिंदी-कार्यक्रम के आयोजन-प्रस्तावों की शाख पर ‘खर्चा-पानी के झूले’ पड़ गए हैं। सुहाने मौसम में अंग्रेजी के हिमायती शुद्ध हिंदी के पके पकवानों की चर्चा करते हुए, इंग्लिश में तले पापड़ चबा रहे हैं।
‘राष्ट्रीय हिंदी दिवस’ के कार्यक्रम में एक हिंदी-नाटक का मंचन चल रहा था। वहां अधिकारियों और कर्मचारियों की भीड़ मजबूरन उपस्थित थी। अंग्रेजी के हिमायती केबीसी साहब भी वहां थे। वे अपने अधीनस्थ ‘अच्छा बच्चा चौधरी’ के साथ आए थे। अंग्रेजी में बतिया रहे थे। अजब-गजब का हिंदी प्रयोग भी कर रहे थे। वे अधीनस्थ अच्छा बच्चा चौधरी को शार्टनेम ‘एबीसी’ से संबोधित करते थे। उसे कमजोर अंग्रेजी के लिए अपमानित भी करते थे। इसलिए एबीसी रुष्ट था, लेकिन बॉस के सामने चुप रहता था। उसकी चुप्पी ज्वालामुखी बनकर उबल रही थी। केबीसी जी अपने अधीनस्थ एबीसी को बताना चाहते थे कि वे हिंदी का प्रयोग भी बखूबी कर लेते हैं। अतः पास बैठे एबीसी की ओर मुड़े और ‘इफ यू डोंट माइंड’ का सीधा हिंदी अनुवाद प्रयोग करते हुए बोले, ‘यदि दिमाग न हो तो मेरे चेंबर से एक जरूरी फाइल उठा लाइए।’ वे अभी अपनी बात पूरी नहीं कर पाए थे कि अपमान की आग से एबीसी का सुषुप्त ज्वालामुखी फट पड़ा। उसने क्रोधावेश में केबीसी साहब की कालर पकड़ ली। बोला, ‘आप सबके सामने मेरी बेइज्जती नहीं कर सकते?’
अचानक हमले से केबीसी जी भौचक थे! उन्होंने ऐसा क्या कह दिया कि एबीसी उन पर झपट पड़ा! वह अनभिज्ञ थे कि ‘इफ यू डोंट माइंड’ का हिंदी तर्जुमा ‘यदि आप बुरा न मानें’ होता है। कार्यालय प्रमुख उनका झगड़ा देखकर नाराज हो गए और कार्यक्रम को बीच में छोड़कर चले गए। माहौल बिगड़ चुका था। कार्यक्रम के संचालक ‘हिंदी अधिकारी’ किसी कारणवश अनुपस्थित थे। अतः कार्यक्रम को बीच में रोकते हुए एक अहिन्दी भाषी अधिकारी ने घोषणा कर दी, ‘फ्रेंड्स! हिंदी का नाटक समाप्त किया जाता है। थैंक्स।’
सभाकक्ष से निकलते हुए किसी ने चुटकी ली, ‘तो भैया, आज हम सबने गज़ब का ‘हिंदी का नाटक’ देखा। ध्यान रखना! जो लोग केवल हिंदी के मौसम में हिंदी सीखकर, हिंदी का नाटक बघारते हैं; उनकी जिंदगी में कभी भी बड़ा नाटक हो सकता है। समझे!’