विश्वनाथ सचदेव
बहिष्कार और असहयोग में क्या अंतर है? भारत की राजनीति में यह दोनों शब्द राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ही दिये हुए हैं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने जो ‘हथियार’ देश की जनता को दिये थे उनमें ये दोनों काफी कारगर सिद्ध हुए थे। वैसे अंग्रेज़ी माल के बहिष्कार की शुरुआत वर्ष 1905 में बंगाल-विभाजन के विरोध में हुई थी, पर आगे चलकर गांधी जी ने इसे स्वदेशी-आंदोलन का रूप दिया। यह 1920 की बात है। स्वराज के लिए स्वदेशी का नारा देकर उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को एक निर्णायक दिशा दी थी। असहयोग इसी स्वदेशी-आंदोलन का दूसरा नाम था। हाल ही में यह दोनों शब्द भारत की राजनीति में फिर उछले हैं। भाजपा-विरोधी राजनीतिक दलों के ‘इंडिया’ गठबंधन ने घोषणा की है कि वह मीडिया के कुछ एंकरों का बहिष्कार करेंगे। उनका कहना है कि कुछ समाचार चैनलों के एंकर यानी कार्यक्रम के प्रस्तोता सरकारी प्रचार के काम में इस तरह लगे हुए हैं कि निर्भयता और निष्पक्षता के पत्रकारीय दायित्व को ही भुला बैठे हैं। इसे उन्होंने ‘गोदी मीडिया’ नाम दिया है। कुल 14 एंकरों के नाम लेकर कहा गया है कि वे निर्बाध रूप से भाजपा सरकार के पक्ष में हवा बनाने का काम कर रहे हैं।
यह आरोप अपने आप में नया नहीं है। अर्से से कुछ चैनलों पर ‘सरकारी’ होने की बात कही जाती रही है। पर इससे ऐसे चैनलों पर कुछ असर पड़ा है, ऐसा नहीं लग रहा। इसी को देखते हुए मीडिया की भूमिका सवालों के घेरे में आती रही है। पत्रकारिता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विवेकपूर्ण तरीके से काम करेगी और निष्पक्ष रहकर समाज को वास्तविकता से परिचित कराती रहेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले एक अर्से से इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता ‘पक्षपातपूर्ण’ रवैया अपनाने का आरोप झेल रही है। यह स्थिति जनतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप तो कतई नहीं है। जनतांत्रिक मूल्यों-परंपराओं का तकाज़ा है कि पत्रकारिता निर्भयतापूर्वक प्रहरी का काम करे, निष्पक्षता के साथ समस्याओं के समाधान की दिशा दिखाने की भूमिका निभाये। ‘इंडिया’ गठबंधन का कहना है कि हमारी टीवी पत्रकारिता का एक हिस्सा यह कार्य नहीं कर रहा, इसलिए इस गठबंधन के सदस्य राजनीतिक दल ऐसे एंकरों के कार्यक्रमों का बहिष्कार करेंगे। गठबंधन की इस कार्रवाई को लेकर जब कुछ आवाज़ उठने लगी तो इस ‘बहिष्कार’ को ‘असहयोग’ कहकर स्थिति संभालने की कोशिश की गयी। इस प्रकरण का हमारी राजनीति पर क्या असर पड़ता है यह तो आने वाला कल ही बतायेगा, पर पत्रकारिता के स्वास्थ्य को लेकर एक सुगबुगाहट ज़रूर शुरू हो गयी है।
एक तरफ कांग्रेस समेत गठबंधन के सदस्य दलों की इस कार्रवाई को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को चेतावनी देने वाला बताया जा रहा है तो दूसरी तरफ इस कार्रवाई को ग़लत बताने वाले इसे अजनतांत्रिक कह रहे हैं। कहा जा रहा है कि मीडिया का यह ‘बहिष्कार’ मीडिया पर अनुचित दबाव डालने की कोशिश है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जनतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप लग रहा है।
जहां तक एंकरों की भूमिका का सवाल है, उन्हें भी अधिकार है अपनी राजनीतिक राय और समझ रखने का, पर यह समझ उनकी निष्पक्षता पर हावी नहीं होनी चाहिए। ‘प्राइम टाइम’ में ‘डिबेट’ के कार्यक्रमों में उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने प्रश्नों और हस्तक्षेप से दर्शक-श्रोता को स्थिति को समझने में मदद देंगे। सवाल उठाना पत्रकारिता का धर्म है, पर यदि सवाल के पीछे की मंशा पर सवालिया निशान लगने लगे तो यह ज़रूरी हो जाता है कि टीवी पत्रकार और मीडिया-प्रबंधन अपने गिरेबान में झांके। दुर्भाग्य से ऐसा होता दिख नहीं रहा। ऐसा लग रहा है जैसे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा किन्हीं दबावों में काम कर रहा है। जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं की दृष्टि से यह स्थिति किसी भी तरह से अच्छी नहीं कही जा सकती। यह स्थिति बदलनी ही चाहिए। पर क्या ‘बहिष्कार’ या ‘असहयोग’ से यह स्थिति बदल जाएगी?
होना तो यह चाहिए कि इस स्थिति को बदलने की मांग करने वाले राजनीतिक दल प्राप्त सुविधा का अधिकतम लाभ लेने की कोशिश करें। इस संदर्भ में एक पुरानी, लगभग 50 साल पहले की घटना याद आ रही है। वे आपातकाल के दिन थे। मीडिया तानाशाही के च॔ंगुल में था। तब कुछ पत्रकारों ने यह सोचा था कि वे ‘सरकारी मीडिया’ का सहयोग नहीं करेंगे। ऐसे लोगों में मैं भी एक था जो यह मानते थे कि ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए कि उससे वक्त की सरकार का हित-साधन हो। मेरे जैसे कई लोगों ने तब आकाशवाणी और दूरदर्शन के कई कार्यक्रम करने से इनकार कर दिया था। उन्हीं दिनों एक बातचीत के दौरान प्रतिष्ठित फिल्मकार श्याम बेनेगल ने कहा था, ‘मैं यह मानता हूं कि यदि आज की स्थिति में हज़ार फुट की एक फिल्म में मुझे सौ फुट अपने मन की फिल्माने का मौका मिलता है तो मुझे यह अवसर गंवाना नहीं चाहिए। मेरी कोशिश होनी चाहिए मैं ऐसे अवसर तलाशूं और उनका लाभ उठाऊं।’ उनकी यह बात मुझे जंच गयी थी। और तब मैंने दूरदर्शन के कुछ ऐसे कार्यक्रम किये भी थे जिनमें मैं अपने मन की बात कह सका था। इस कदम का दूरदर्शन के दर्शकों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा होगा, ऐसा मैं नहीं मानता, पर अंधेरे में सूर्योदय होने की आहट दिखा पाने का यह संतोष मुझे अवश्य मिला था। यह संतोष भी किसी उपलब्धि से कम नहीं था।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ एंकरों का बहिष्कार करने वालों को यह सोचना चाहिए कि कथित गोदी मीडिया वालों को विफल बनाने का एक तरीका यह भी है कि उनके प्रयासों की धार कुंठित की जाये। राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को ठोस तैयारी के साथ ऐसे कार्यक्रमों में जाकर विरोध के प्रयासों को सफल बनाने की कोशिश करनी चाहिए। जरूरी है कि पक्षपातपूर्ण एंकरों का चेहरा बेनकाब हो, और यह काम ऐसे टीवी पत्रकारों को चुनौती देकर अधिक सफलतापूर्वक किया जा सकता है। मीडिया का बहिष्कार नहीं, मीडिया को सार्थक बनाने की कोशिश होनी चाहिए। यह सही है कि आज हमारा मीडिया अपनी उचित और समुचित भूमिका निभाने में विफल होता दिख रहा है, पर बहिष्कार से तो मीडिया के ग़लत तत्वों को और खुला मैदान ही मिलेगा।
एक बात और भी है। सभी एंकर मीडिया में अपनी मनमानी भी तो नहीं कर सकते। उनकी नकेल भी तो किसी के हाथ में होती है। विरोध उन हाथों का होना चाहिए। ये हाथ सरकार के भी हो सकते हैं, और मालिकों के भी। इन हाथों की गतिविधियों पर नज़र होनी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि देश का नागरिक इन गतिविधियों को नहीं देख सकता, या नहीं देख रहा। आज आवश्यकता स्वस्थ पत्रकारिता के पक्ष में आवाज़ उठाने की है। यह स्थिति सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हमारा मीडिया का एक वर्ग अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। इस विश्वसनीयता को बनाने, बनाये रखने का मुख्य दायित्व तो मीडिया वालों का ही है, पर विवेकशील नागरिकों का भी दायित्व बनता है कि वे मीडिया की असफलता और ग़लत कामों की अनदेखी न करें। ज़रूरत सूर्योदय की आहट को सुनने, समर्थन देने की है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।